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मानो मत, जानोः “रब्बा हुण की करिये” ...बंटवारे की टीस

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हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .Thus Departed Our Neighbours (2007), by Ajay Bhardwaj.

लालसिंह दिल नजर आते हैं, शुरू में। पहली डॉक्युमेंट्री मेंवे इस्लाम के प्रति अपने अनूठे नेह और दलितों के साथ मुस्लिमों को भी सदियों के व्यवस्थागत-सामाजिक शोषण का पीड़ित बताते हैं। यहां उनकी संक्षिप्त झलक मिलती है। वे उर्दू की बात करते हैं। तेजी से दौड़ता और फिर लौटकर न आने वाला दृश्य उनका कहा सिर्फ इतना ही सुनने देता है, “...पंजाबी दी ओ तु पख्ख है। उर्दू, अरबी-पंजाबी नाळ इ मिळके बणया है। ओ अपणी लैंगवेज है। आप्पां अपणे पांडे बार सिट सिरदे हैं, वी साड्डे नी है साड्डे नी है। हैं साड्डे...। (उर्दू पंजाबी का ही तो हिस्सा है। ये अरबी और पंजाबी से ही तो मिलकर बनी है। ये हमारी ही भाषा है। हम अपने ही असर को बाहर फेंक रहे हैं कि ...हमारे नहीं हैं... ये हमारी ही है।)”

Pro. Karam Singh ji, in a still.
फिर इस डॉक्युमेंट्री के सबसे अहम पात्र प्रो. करम सिंह चौहान आते हैं जो बठिंडा, पंजाब से हैं। वे मुझे देश के सबसे आदर्श व्यक्तियों में से लगते हैं। जैसे हम में से बहुतों ने अपने गांवों में देखें होंगे। मख़मली ज़बान वाले, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, बेहद सहनशील, अनुभवों से समृद्ध, हर किसी के लिए रब से प्रार्थना करने वाले, समाज की समग्र भलाई की बात कहने वाले और उन्हें तक माफ कर देने वाले जो बंटवारे के क़ातिल थे। सिर्फ ‘रब्बा हुण की करिये’ की ही नहीं, अजय भारद्वाज की तीनों डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों की बड़ी ख़ासियत, ऐसे पात्र हैं। हर फ़िल्म में ऐसे एक-दो, एक-दो लोग हैं जिन्हें कैमरे पर लाना उपलब्धि है। इन सलवटी चेहरों के एक-एक शब्द को सुनते हुए कलेजा ठंडा होता है, मौजूदा दौर की बदहवासी जाती है, समाजी पागलपन का नशा टूटता है और समाज का सही पर्याय दिखता है। अगले 10-15 साल बाद ऐसे विरले बुजुर्ग सिर्फ दंतकथाओं में होंगे। मैं सिर्फ करम सिंह जी को सुनने के लिए ‘रब्बा हुण की करिये’ को पूरी उम्र देख सकता हूं। वे हमें तमाम तरह की अकड़ की जकड़ से निकालते हैं। उन जैसे लोग हमारे लिए मानवता का संदर्भ बिंदु हैं।

करम सिंह जी उर्दू के बारे में बात जारी रखते हुए पंजाब के मानसा जिले की बात करते हैं, “कुछ महीने बाद (विभाजन के) मैं मानसा के रेलवे स्टेशन गया। वहां जाकर क्या देखा, कि वहां जो उर्दू में मानसा लिखा हुआ था, वो नाबूद था। बड़ा दुख हुआ। मैंने सोचा, इन्होंने तो जिन्ना साहब को सच्चा कर दिया, जिन्होंने कहा था कि हम आप लोगों के साथ क्या रहें, आप तो हमारी भाषा को भी नहीं रहने देंगे”। अगले दृश्य में उधम सिंह का 1940 में लिखा ख़त पढ़ा जा रहा है। पास ही मेंपहली फ़िल्म के पात्र बाबा भगत सिंह बिल्गा बैठे हैं। जिक्र हो रहा है कि ख़त में कैसे उधम सिंह ने अपने लंदन में ब्रिक्सटन जेल के अधिकारी से कहा कि उनका नाम न बदला जाए जो मोहम्मद सिंह आजाद है। बिल्गा बताते हैं कि उधम को जेल में हीर पढ़ना बहुत पसंद था और खासकर हीर व क़ाज़ी के संवाद। फिर हम जालंधर के लोकप्रिय गायक पूरण शाहकोटी की आवाज सुनते हैं जिन्होंने अपने गांव शाहकोट के नाम को अपना नाम बना लिया। वे हीर गा रहे हैं। कहते हैं कि वारिस की हीर और सूफीयत से पंजाब का गहरा ताल्लुक है और आज भी दोनों पंजाबों का सभ्याचार एक ही है। मसलन, हीर। जो एक ही तरह से गाई जाती है। आप सरहद के किसी ओर वाले पंजाब में इसे सुनकर फर्क नहीं बता सकते। पूरण शाहकोटी नकोदर दरबार के अपने मुर्शिद (गुरू/स्वामी) बाबा लाडी शाह, बाबा मुराद शाह का जिक्र करते हैं, जिनके लिए गाने पर उन्हें तसव्वुर मिलता है। यानी सवाल खड़ा होता है कि आपने किसको अलग कर दिया? क्या आप वाकई में अलग कर पाए? क्योंकि ये तो उन्हें आज भी अपना ही मानते हैं। खैर, हम उनसे हीर का अनूठा हिस्सा सुनते हैं। वो हिस्सा जब हीर अपनी मां को गाते हुए पूछती है, “...दो रोट्टियां इक गंडणा नी मा ए, पाली रखणा कि ना ए”। सुनकर नतमस्तक होते हैं। हीर के मायने बड़े गहरे हैं जो सामाजिक टैबू, सांप्रदायिकता और बैर का विरोध करने वाली अजर-अमर छवि है। जैसे मीरा अपने वक्त में थीं। वो अपनी मां से कहती है कि वो बस दो रोटियां और एक प्याज लेगा, इतनी तनख़्वाह में ही उसे अपने जानवर चराने के लिए पाली रख ले मां। (किसी भी तरह से वो रांझे के करीब होना चाहती है)। वाकई तसव्वुर होता है।

इसके बाद करम सिंह जी रात के अंधियारे में बात करना शुरू करते हैं। वे शुरू करते हैं तुलसीदास जी की पंक्ति से, “पैली बणी प्रारब्ध, पाछे बणा शरीर...” यानी पहले आपकी नियति बनी थी, उसके बाद शरीर बना। वे बताते हैं कि उनके गांव में कोई स्कूल नहीं था, कोई पढ़ने का उपाय नहीं था, दो कोस दूर स्कूल था। फिर लुधियाना से करम इलाही नाम के एक पटवारी तबादला होकर उनके गांव आए। उनकी पत्नी पढ़ी-लिखी थी, पर उनके कोई बच्चा नहीं था। उनका नाम शम्स-उल-निसा बेग़म चुग़ताई था। उन्होंने उन्हें करमिया कहकर बुलाना, पढ़ाना और स्नेह देना शुरू किया। उन्हीं की बदौलत वे पढ़ पाए। बाद में उन्होंने लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज से 1947 में फ़ारसी में एम.ए. की। करम सिंह द्रवित हो कहते हैं, “बीब्बी जी ने मैनूं बड़ा ही मोह दीत्ता, मिसेज करम इलाही पटवारी ने। मैनूं पार्टिशन दा ए बड़ा दुख औन्दा ए। वी मैं एहे जे बंदेया कौळों बिछोड़या गया”।

फिर हम हनीफ मोहम्मद से मिलते हैं। वे अटालां गांव के हैं जो समराला-खन्ना रोड पर स्थित है। अहमदगढ़ के जसविंदर सिंह धालीवाल हैं। ये दोनों विभाजन के वक्त के क़त्ल-ए-आम के चश्मदीद रहे हैं। हनीफ बच्चे थे और उन्होंने वो वक्त भी देखा जब उनके गांव की गली में पैर रखने को जगह नहीं बची थी, बस चारों ओर लाशें और ख़ून था। जसविंदर ने अपनी छत से खड़े होकर सामने से गुजरते शरणार्थियों के काफिले देखे। क़त्ल होते देखे। वो दौर जब मांओं ने अपनी जान बचाने के लिए अपने बच्चे पीछे छोड़ दिए। करम सिंह जी भी उस दौर के नरसंहार के किस्से बताते हैं। ये भी मालूम चलता है कि, वो लोग जिन्होंने निर्दोषों की बेदर्दी से जान ली और बाद में अपनी क़ौम से शाबाशियां पाईं, बहुत बुरी मौत मरे। तड़प-तड़प कर, धीरे-धीरे।

विभाजन के दौर की ये सीधी कहानियां हैं जो इतनी करीब से पहले नहीं सुनाई गईं। ‘उठ गए गवांडो यार, रब्बा हुण की करिये...” वो पंक्ति है जो बींध जाती है। आप पश्चिमी पंजाब के आज के लोगों के मन में तब सरहद खींच उधर कर दिए गए पड़ोसियों, दोस्तों के लिए अपार प्रेम देखते हैं। ये गीत रातों को और स्याह बनाता है, मन करता है बस सुनते रहें। कि, उन्हें याद करने को और रब से शिकायत करने को, मुझसे कोई नहीं छीन सकता।

डॉक्युमेंट्री के आखिर में करम सिंह जी जो कहते हैं, वो हमारी सामूहिक प्रार्थना है। 1947 की मानवीय त्रासदी के प्रति। बर्बरता से, नृशंसता से मार दिए गए दूसरी क़ौम के हमारे ही भाइयों, बहनों, रिश्तेदारों से क्षमा-याचना है। उनकी रूहों की शांति के लिए। जिन्होंने क्रूरता की हदें पार की, उनके लिए भी। उनकी रूहों को भी नेक रास्ते लाने के लिए। वे क़लमा पढ़ते हैं, हम भी...

“ मज़लूमों, थोड्डा
थोड्डा
इल्ज़ाना देण वाला
अल्ला-पाक़ ए
रहमान-ओ-रहीम ए
ओस ने थोड्डा
होया नुकसान
थ्वानूं देणा ए
ते मैं दुआ करदा हां,
परमात्मा थ्वानूं जन्नत बख़्शे
ओन्ना मूर्खा नूं
ओन्ना पूलयां नूं वी
रब्ब
ओन्ना दीयां रूहां नूं
किसे पले रा पावे
किसे नेक रा पावे
ओन्ना उत्ते तेरी मेहरबानी होवे
इनसान आख़िर नूं
तेरा इ रूप ए
तेरा इ बंदा ए
इनसान ने इनसान उत्ते कहर करेया
जिदे उत्ते इनसान सदा रौंदा रहू
जेड़ा इनसानियत नूं समझदा ए
या अल्ला
तेरी मेहर…”

(कृपया ajayunmukt@gmail.comपर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Thus Departed Our Neighbors” - Watch an extended trailer here:


While India won her independence from the British rule in 1947, the north western province of Punjab was divided into two. The Muslim majority areas of West Punjab became part of Pakistan, and the Hindu and Sikh majority areas of East Punjab remained with, the now divided, India. The truncated Punjab bore scars of large-scale killings as each was being cleansed of their minorities. Sixty years on, ‘Rabba Hun Kee Kariye’ trails this shared history divided by the knife. Located in the Indian Punjab where people fondly remember the bonding with their Muslim neighbours and vividly recall its betrayal. It excavates how the personal and informal negotiated with the organised violence of genocide. In village after village, people recount what life had in store for those who participated in the killings and looting. Periodically, the accumulated guilt of a witness or a bystander, surfaces, sometimes discernible in their subconscious, other times visible in the film. Without rancour and with great pain a generation unburdens its heart, hoping this never happens again.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Peter Wintonick’s last and unfinished documentary BE HERE NOW: (Interview) Mira Burt-Wintonick on finishing it, on her legendary father & his Utopia

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Peter Wintonick 1953-2013
I’ve always loved film and images. I continually watch important works in the history of cinema. Films from Fellini, Chaplin, Donald Brittain, Robert Frank. My mentor, Emile de Antonio, was the godfather of political documentary. A man born to fight, he was the only filmmaker to be put on President Nixon’s Enemies List. If there were ever such a thing as a radical army, de Antonio would have been the progressive general leading the alternative media shock troops into a war against oppression. His war was for independent and free expression. Which brings me to Werner Herzog. Any of Herzog’s 30-odd documentaries would uniquely define the documentary art form. Herzog said: “Perhaps I seek certain utopian things, space for human honour and respect, landscapes not yet offended, planets that do not exist yet, dreamed landscapes. Very few people seek these images today. ”He once told me, “The world is just not made for filmmaking. You have to know that every time you make a film you must be prepared to wrestle it away from the Devil himself. But carry on, dammit! Ignite the fire.”
- Peter Wintonick, In 'Point Of View magzine', 2007

He was a rare man, of the kinds I regret not meeting. For thousands or perhaps millions of documentary makers, thinkers, educationists, activists, journalists and young breed around the world his 1992 documentary “Manufacturing Consent: Noam Chomsky and the Media”, co-directed by another great Mark Achbar, is easily the most powerful reference point of how they see the world today; or how one should see societies, politics, entertainment, civilization and media in these increasingly blurred and manipulated times. It is among the greatest documentaries of all time. He explored this subject in many of his docs. In 1994 came “Toward a Vision of a Future Society “, “Noam Chomsky: Personal Influences”, “Holocaust Denial vs. Freedom of Speech”, “Concision: No Time for New Ideas”, “A Propaganda Model of the Media Plus Exploring Alternative Media” and “A Case Study: Cambodia and East Timor”, all shorts, made by him. There are two other greats that he directed. “Cinéma Vérité: Defining the Moment” released in 1999. It was about the Cinéma Vérité (direct cinema) movement of the '50s and ' 60s which was driven by a group of rebel filmmakers (Jean Rouch, Frederick Wiseman, Barbara Kopple and others) that changed movie-making forever. “Seeing Is Believing: Handicams, Human Rights and the News” came in 2002 which was a remarkable document and extremely dangerous shoot for him.

Peter Wintonick dedicated his entire life to the film medium. Literally, he lived for it. Going to film festivals and helping the filmmakers was all he was seen doing. In China, more than a decade ago, he was one of the first people to support the movement towards independent director-producers. He strove hard to ensure that movies like “Last Train Home” or “China Heavyweight” were produced and widely distributed. He gave advice and encouragement, brought people together and also contributed greatly as a co-producer. He travelled to Indonesia and Burma to see the creation of the first documentary associations there, and to provide them with advice. He came back with projects and lists of emerging talents. In a true sense he was a documentary Guru.

On the morning of November 18, 2013 he passed away quietly and happily. Peter was diagnosed with cancer. As soon as he came to know this he started planning his last film that would reflect on his work, his influence and the philosophy he lived by – “Be Here Now.” His daughter Mira Burt-Wintonick is now completing and directing the film. She co-directed “PilgrIMAGE” with him in 2009, a documentary about documentary filmmaking. She lives in Montreal, Canada. About “Be Here Now” she says that over the past two decades, Peter had been obsessed with Utopia. He shot hours and hours of footage as he journeyed around the world on his quest. She would sometimes ask him why he was travelling in search of something that doesn’t exist. He’d reply that “Utopias place pictures of possible worlds in our minds.” He devoted his life to the idea of a possible world, of a better world, and he believed that documentaries were key in helping us make that world a reality.

This project needs a little nudge to be completed. So please contribute in your capacity and share it with others. It is our honour to be part of Peter’s better world. I’m sure we won’t get another chance.

Watch “Be Here Now” Trailer:
  

I talked to Mira about her father, his ideas, his personality, UTOPIA and much more.
Read on:

What is the meaning of your name Mira? Did your father name you after the Indian mystic poet and devotee of Krishna, 'Mira/Mirabaai'?
My parents named me Mira because Mir means Peace in Russian and they are both strong believers in peace and social justice. Peter also liked that Mirabaai was a musical devotee of Krishna, and music and poetry were very important to him. Mira also means ‘look’ in Spanish, and Peter was always looking, observing the world.

What do you do? Tell us about your life and professional journey so far.
I’m a radio producer at CBC, Canada’s national public broadcaster. I produce a show called WireTap, which is a playful and poetic radio show, mixing fictional and documentary storytelling. It’s a fun, challenging job. I studied film and sound production from Concordia University, but have been working primarily in radio for the past 9 years.

Given the gender bias and atrocities against women across civilizations over the centuries, there are very few human beings who know how to raise a child (esp. girl child) in a needful way, so that the next generation become more equal, kind, giving, vocal and correct. Peter was one of those human beings. How did he raise you?
My parents are both feminists, so they always raised me to not be satisfied with anything less than complete equality and respect. Peter understood that human beings are defined by what is in their head and their heart so he encouraged me to develop my intellect and compassion. He always had high expectations of me and encouraged me to dream big. I believe he treated me exactly the way he would have treated me had I been a son.

What were the things that made him such a wonderful human being? That changed the course of his life? How did he know so much about society, world, future, development models, governments, people, history, truths and lies?
Peter was a voracious reader. He was always, always reading. He had a huge appetite for learning, even from a young age, according to his mother, Norma. His intelligence made him a bit of a rebel at school. He was always questioning authority and making sure that he fundamentally agreed with any rules that he was expected to follow, otherwise he rejected them. He was a critical thinker and never took anything at face value, but always dug deeper, to get at the Hows and Whys.

Peter and Mira while making PilgrIMAGE.
If you can share what his childhood was like, it’ll be fulfilling.
When he was young, Peter’s father gave him his first 8mm camera, which he used to make short films as a child. He also started a newspaper at his school where he’d publish poetry and satirical essays. My grandmother says he had a very quick sense of humour, even as a child. His father died when Peter was only 9, and I believe that inspired him to make the most of each day, because life is short.

How did your parents meet and their story take place? What were the most learning things about their relationship?
My parents met at a film production company, in 1976. My mum, Christine, was working on one floor and Peter on another, but the coffee machine was right in front of my mum’s desk so the upstairs people would come down and mingle in front of her workspace. My mum was part of a group of women activists who protested in various ways, including a clandestine stickering campaign targeting sexist ads. Peter thought that was just the kind of woman for him. They both had an avid curiosity about the world and how it works, and bonded through intellectual discussion and a shared love of art. They are both very unique individuals and had a somewhat unconventional relationship, fostering each other’s independence and personal development. They never married until a few days before Peter died.

Whenever I think of him, I feel bad for not meeting him, ever. Do you miss him and for what reasons?
Yes, of course I miss him very much. His laughter, his perspective on life… but I feel like his spirit is still alive within everyone who knew him, so I take comfort in that.

What is Peter Wintonick's "Utopia?" Why did he have such a conviction in this idea?
Peter didn’t believe in a specific, perfect place, but he believed that imagining Utopia was itself a worthy pursuit. He said that “Utopias place pictures of possible worlds in our minds”, and I think that what he meant by that is that it’s important to carry around that picture of how things could be better as a reminder not to be satisfied with the way things are. The idea of Utopia is a reminder that any injustices in our society are unnecessary, and that we can and should do better.

In 2009, you co-directed “PilgrIMAGE” with him. Can you tell us his process of filmmaking?
Peter travelled much of the year to various film festivals and such, so making PilgrIMAGE was a way for us to travel together for a change, to spend time together. During the shoot, he was very spontaneous and determined. We even got kicked out of a couple locations because we didn’t have a permit to shoot, but Peter kept on rolling, refusing to let anyone stop him from making the film he wanted to make. Although he was a workaholic, he also believed in enjoying the process and not taking anything too seriously, so much of our trip was spent exploring and having fun.

What is your Peter Wintonick favourite? “Manufacturing Consent” (1992), “Cinema Verite” (1999) or “Seeing is Believing” (2002)?
I think Manufacturing Consent is absolutely brilliant. I was only 6 when it was released and I would accompany my parents to the screenings and feel very confused as to why all these people were interested in watching this boring old man talk on screen for over 2 hours. I make a brief appearance in the film, about 30 minutes in, so I’d always watch until that point and then take a nap. But as I got older, I started to appreciate Chomsky’s ideas, as well as the very creative ways that they are expressed in the film. It’s really quite impressive how they visually portray some very complex and academic thinking. Peter was very adept at that kind of thing.

Please tell us something about "Be Here Now." What is the project about? What kind of response are you getting so far?
Be Here Now is the film Peter started planning shortly before he died. It was to be a portrait of his life and his obsession with Utopia. Of course, the film won’t be the same without him, but will instead become a sort of tribute to Peter and his search for a better world. For the past 15 years or so, Peter had been collecting footage of different Utopian societies and ideals around the world, so the film will draw on that footage in order to paint a portrait of him. The film has been getting a great deal of support. We are in the middle of a fundraising campaign and the response has been overwhelmingly positive. Peter had so many friends around the world and they’ve all been reaching out to offer their encouragement, which has really meant a lot to me. It’s a bit of a daunting project, to complete someone’s dying wish and to paint a portrait of such a talented man, but with the support of the documentary filmmaking community, and EyeSteelFilm who are producing the project, I feel confident that we’ll make it something really special.

Peter once said, "We are very naive documentary filmmakers. When we start to step on toes of the powerful, we think that the powerful won't bite back. But the reason people have powers, because they do address the power, use the power, abuse the power, can smash the lens of documentary filmmaker." Did he or your family feel afraid at any point in time because of the docs he made, which exposed the mighty in big way? How did he deal with his fears of any kind?
Peter was very passionate about social justice and didn’t let fear of retaliation stand in his way. One of his films which perhaps was the most “dangerous” in that sense, though, was “Seeing is Believing”, which he co-directed with Katerina Cizek. During the shoot, they always considered themselves incredibly privileged and tried to keep their fears in check, understanding that they were small in comparison with the very real threats and dangers that the human rights activists portrayed in the film faced every day. For example, the sugar cane companies in the Philippines, where much of the film takes place, were a serious and deadly threat, so much so that the Nakamata Tribe Peter and Katerina were working with, actually posted body guards outside their jungle huts all night. But Katerina says that Peter dealt with any frightening situations with grace and humour. “He always found a way to laugh about it, and keep humble.”

How did your father inspire you?
Broadly speaking, the way Peter devoted himself to his creative endeavours was very inspiring.

What were his thoughts on India, or the documentaries made here?
He loved India and had many friends there. I don’t know how he felt in particular about the film scene there, but he visited often.

How do you wish to take his legacy forward?
He left such an incredible legacy through the films he made and the people he touched that he is sure to be remembered for a long time to come. I can only hope that “Be Here Now” is an adequate tribute and perhaps paints a more personal portrait of him for those who didn’t have the pleasure of meeting him.

He invested in the next generation in a big way. Now when he’s gone, are you contacted by those students of his? What do they share?
Yes, I’ve received many letters and emails from people around the world that Peter inspired personally or that were moved through his work. One email stands out in particular is from a filmmaker in the UK who said that “seeing Manufacturing Consent back when they were in University stuck such a cord with them that they stole the VHS from the school library”. I love hearing stories like that, and knowing how many people Peter reached during his lifetime. It helps make the loss a little easier.

His teachings to you and us all?
To live each moment to the fullest. To never stop dreaming of a better world, and to embrace our responsibility in bringing that world about.

His philosophy in life?
Be Here Now. And have fun.

Reason behind his cool and happiness?
He knew not to take things too seriously.

What turned him on?
Art, laughter, social justice.

What turned him off?
Inequality.

His thoughts on food?
He had a very healthy appetite.

His lifestyle?
Nomadic.

His thoughts on mainstream media?
He knew how to enjoy the occasional Hollywood film, but believed that documentaries were better than fiction.

His most frequent word/line?
Fantastic! Peter thought everything was fantastic and lit up so easily, exclaiming at the wonders of the world.

His ultimate/last wish in life?
To leave the world a better place than he found it, and he did.

His most favourite documentary filmmaker/filmmakers around the world?
He had too many favourites. He loved the creativity of young filmmakers. "Darwin’s Nightmare", by Hubert Sauper was one of his favourites.

His favourite movies?
"Citizen Kane" was one of his all time favourites. He also loved Fellini and Charlie Chaplin.

His favourite quote?
“Live simply, so that others may simply live" - Gandhi.

People he was most impressed with/His idols?
Gandhi, Mandela, Van Gogh, and all activists.

Memories from his last days that stuck?
He became a ball of pure light and love during his final days. He never complained about his suffering and greeted everyone with a big, bright smile. On one of the final nights before he died, he and my mum and I had a dance party around his hotel bed and I will never forget the peaceful joy of that moment.

Here is something worth reading about Peter and his last days...


पीटर विंटोनिकहजारों के प्रेरणास्त्रोत और विश्व के महान डॉक्युमेंट्री फ़िल्मकारों में से थे। वे मॉट्रियल, कैनेडा में रहते थे। नवंबर, 2013 में उनका कैंसर की बीमारी की वजह से निधन हो गया। वे खुशियां बांटते हुए ही गए। डॉक्युमेंट्री फिल्मों और एक आदर्श समाज के लिए उनका जज़्बा, प्रेम और प्रयास अतुलनीय थे। मार्क एकबार के साथ 1992 में आई उनकी डॉक्युमेंट्री “मैन्यूफैक्चरिंग कंसेंटः नोम चोम्सकी एंड द मीडिया” ने अभूतपूर्ण ख़्याति, पुरस्कार और दर्जा हासिल किया। इसे विश्व की सर्वकालिक फिल्मों में शामिल किया जाता है। “सिनेमा वैरिते” और “सीईंग इज़ बीलिविंगः ह्यूमन राइट्स एंड द न्यूज” उनकी दो अन्य बेहतरीन फ़िल्में रहीं। मृत्यु से कुछ वक्त पहले उन्हें अपनी बीमारी का पता चला और इसके तुरंत बाद वे अपनी आखिरी फ़िल्म को बनाने में जुट गए। इसका नाम “बी हियर नाओ”रखा गया जो बेहतर समाज की रचना करने वालों के तुरंत साथ आ जुटने का आह्वाहन है। अब उनके जाने के बाद उनकी बेटी मीरा बर्ट-विंटोनिक उनकी इस फ़िल्म को पूरा करने में जुटी हैं। मीरा स्वयं पीटर के साथ 2009 में एक फ़िल्म “पिलग्रिमेज” की सह-निर्देशक रह चुकी हैं। मैंने हाल ही में मीरा से संवाद स्थापित किया। पीटर और उनके जीवन के बारे में इसके जरिए प्रेरणादायक विषय-वस्तु सामने आई। उनकी इस फ़िल्म को अपना सहयोग देने के लिए यहांक्लिक कर सकते हैं। 
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If there is an idea you have, test it, try it out and practice, it will happen: Adruitha Lee

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Oscar winner (2014) Adruitha has done hairstyling of movies like "Dallas Buyers Club", "12 Years A Slave", "The Artist"& "A Mighty Heart"

Matthew McConaughey in a still from Dallas Buyers Club.
On Monday morning, March 3, 2014 Indian time, she’ll be in competition with Stephen Prouty of “Jackass Presents: Bad Grandpa” and Joel Harlow, Gloria Pasqua-Casny of “The Lone Ranger” for winning the 86th Academy Award statuette in Best Makeup and Hairstyling. For her great work in “Dallas Buyers Club”, she’s been nominated with Robin Mathews (And, yes they are the winners!!!). Though she’s not nominated for “12 Years a Slave” which was her other best work in 2013, the film has received 9 nominations, highest after “Gravity” and “American Hustle” both receiving 10 each. We’re talking about Adruitha Lee. The very talented, experienced and hard working hair stylist is not new to quality work and Hollywood biggies. When Michel Hazanavicius was making “The Artist”, it was Adruitha who he entrusted with the Hairstyling of the 1927 silent era movie. Not to mention the Jean Dujardin and Bérénice Bejo starrer got 10 Oscar nominations in 2012, winning five of them.

Adruitha grew up in South America. Initially she worked in a salon as a hairdresser. Few years after completing her training she opened her own salon, then a second one in Nashville, Tennessee. There she began working with country music stars on music videos and live performances. She later moved to Los Angeles to fulfil her dream in the movie business. Her work was soon seen on television shows such as “Medium” and “Lizzie McGuire.”

Adruitha Lee
For more than 10 years she’s been working in Hollywood. She has been the hair department head on “Salt”, “Evan Almighty”, “The Good Shepherd”, “Friends with Benefits”, “A Mighty Heart”, “Role Models”, “Killing Them Softly”, “Spring Breakers”, “12 Years a Slave”, “Hannah Montana: The Movie”, “Scary Movie 5”, “Dallas Buyers Club” and few more. Many of them have been wonderful films. Including director Jean-Marc Vallée’s “Dallas Buyers Club,” a 1985 story of Ron Woodroof (Matthew McConaughey), a homophobic electrician in Texas who discovers he has AIDS and he starts doing something unexpected.

I got to get some answers from Adruitha regarding the Oscar nomination and her experience. It might be useful for some filmmaking aspirants. Read on:

How do you react to the Academy nomination for “Dallas Buyers Club”?
I’m just over the moon. When I first heard that I got the nomination I couldn’t believe it. And I was like wow! I was just doing my job, and then I get a nomination for an Oscar; I believe it hasn’t even sunk in yet, because I’ve been in Puerto Rico, working.

What will you say about the work of fellow nominees (Stephen Prouty for “Jackass Presents: Bad Grandpa”, Joel Harlow and Gloria Casny for “The Lone Ranger”)? Who should win?
I just met Steve Prouty for the first time during the nomination process. What a nice person he is and what a fabulous job he did of making Johnny Knoxville look like a 86 year old man. I thought he did a great job. But well at the end in my opinion, I think that I should win [laughs].

Elaborate the process and planning of transforming the characters of “Dallas Buyers Club”, esp. Matthew McConaughey's and Jared Leto's? Did you really shave Leto's head in the process?
Umm, with Matthew we did everything we could. I pulled research pictures for Ron’s character and bought it to the production office and I had everything with me that I needed to change Matthew’s hair, change the cut, the color, the texture and everything to make it look the way I wanted it to for that period and to make it look like the real life Ron’s character. With Jennifer, we tried on different wigs, different things and then came up with the look that we needed for her to be a doctor, not to take her over the top but to give her the look that director Jean-Marc wanted. And with Rayon we tried on several wigs and went through several things, because Rayon's character was most specific to the film and Jean-Marc wanted it in a specific way. And, I did not shave his head he just had his face waxed.
Director Steve McQueen talking to actors in 12 Years a Slave.
Can you talk a little bit about “12 Years a Slave”?
Yes. When I found out that I got the project I was so excited to meet the director (Steve McQueen). There were all these mannequins in different hair-styles I had done. I put them in a basket and took it to his office and said, “Okay! This is what I can do.” He just looked at me and said, “Well, okay.” Prepping for this film was really-really difficult because of the subject matter. When I went into the research facility to research that time period, there were not a lot of pictures. The costume designer and the production designer there helped me with the research and it was just something that I’ll never forget. It was a great experience! “12 Years a Slave” was a labor of love. It was shot unpretentiously in the summer; it was a project that I wanted to do for a very long time, a hard project though. But it was something that I really enjoyed doing and was thrilled to be working with Steve McQueen, and to be able to help him with his vision on this movie.

Whenever you get a project, what is your start-to-finish process? If some Indian cinema aspirants are keen to learn the art, what should they do?
The process generally starts with reading the script, and understanding each character. Then we get into research for the characters, the time period and their background post which are the trials in sync with the make-up, texturing the hair, coloring the hair and finally deciding on the right look for that film. Well, Oh my god! Research, Research, Research; if there is an idea you have, test it, try it out and practice. If there is a thing that you want to do, you just practice and try to figure it out on your own. It’s amazing, you know to discover the things that you think you cannot do, but if you just put your mind through it you can figure things out but just a lot of testing, a lot of practicing and a lot of research!

Have you been to India? What do you think about the work here?
I have actually worked in India. I did a film in India with Angelina Jolie called “A Mighty Heart!” I have seen some Bollywood films, I don’t remember the names. We worked with several actors and production people who showed us some films which I completely loved. We just saw a lot of stuff, and I loved them. And the work back in India, I love it, I think the make-up, the hair, the costumes are absolutely fantastic! I am Impressed.

You have done some really good movies, “Dallas Buyers Club”, “12 Years a Slave”, “The Artist”, “A Mighty Heart” and “Killing Them Softly”. What was the learning you had since your childhood and after entering into Hollywood that made you such a great hair stylist?
Ah, you know you have the time constraint, because you’ve got to finish your work in a certain amount of time. You have to please the director. You’ve got to see the live situation, make sure everything looks good in the lighting. And of course you have to please your actor. There are so many people that need to be happy with what you’ve done. You just have to do a good job. You’ve got to give it everything you’ve got. You’ve got to know how to be the best at what you can be, because there are so many things you need to be aware of. Yeah, it’s tough. Oh my god, learning how to accept things, things that can’t change. You’ve just got to accept them along the way. And then you know learning that you’ve got to aim high, and make sure you make it. Don’t be satisfied, don’t be complacent and be happy at what you’re at. Always try to achieve and be better.
Irfaan Khan and Anjelina Jolie in a still of A Mighty Heart.
You've done the hair of Angelina Jolie in both “Salt” and in “A Might Heart”. What challenge did you face when one was a Hollywood commercial and the other an Independent film (by Michael Winterbottom)?
Yes, I worked with Angie. She’s wonderful. She’s one of the nicest actresses I’ve worked with. I really adore her. She lets you do things. So beautiful anyway that it’s just a pleasure to get to do her hair. She likes to try different things, and just a really nice lady. She raises the bar for you as far as we do something on her and with her. She has her own ideas about things and you try to facilitate that and she’s easy to work with. Yes, like you said, Indie movies are so much different. They have their challenges, and “A Mighty Heart” certainly did. And when I came to work with her on “Salt”, it was a big production. What you have when you have big film like that is, you have more time. So therefore you don’t have to work that fast. Indie film has its challenges and big films have theirs, that’s the thing.

You do comedies like “Evan Almighty” and “Scary Movie-5” which are less serious in tone and theme. Then there are serious films like “Dallas Buyers Club”, “12 Years a Slave” and “The Artist” in their presentation and making. How do you choose and do you deal differently then?
I love comedies. After I had done “12 Years a Slave” I did “Scary Movie 5” cause it was really emotional and I needed something funny. And right after “Scary Movie 5” I picked “Dallas Buyers Club”, back to serious again. It’s better to have a funny movie in between two serious ones. Emotionally you don’t get wrapped up in a funny movie, and it doesn’t drain you at the end of the day. That’s how it’s different.

Jared Leto as transgender woman Rayon and Matthew as Ron Woodroof, in a still from Dallas Buyers Club.

एड्रयूइथा लीजानी-मानी अमेरिकी हेयरस्टाइलिस्ट हैं। इस बार 86वें ऑस्कर पुरस्कारों की बेस्ट मेकअप और हेयरस्टाइलिंग श्रेणी में फ़िल्म “डलास बायर्स क्लब” के लिए उन्हें और रॉबिन मैथ्यूज को नामांकित किया गया है। 3 मार्च को संभवतः वे जीतेंगी, हालांकि “किकएस प्रजेंट्सः बैड ग्रैंडपा” के जीतने की गुंजाइश ज्यादा है। वे न भी जीतें तो उनका काम अपनी कहानी कहता है (अंततः वे जीत गई हैं)। 2013 की बहुत सार्थक फिल्म “12 ईयर्स अ स्लेव” का भी वे हिस्सा रहीं। फिल्म 9 श्रेणियों में नामांकित हुई है। एड्रयूथा ने कई बेहतरीन फिल्मों के केश विभाग का जिम्मा संभाला है। “सॉल्ट”, “अ माइटी हार्ट”, “इवान ऑलमाइटी”, “किलिंग देम सॉफ्टली”, “स्प्रिंग ब्रेकर्स”, “फ्रेंड्स विद बैनिफिट्स”, “स्कैरी मूवी 5” और “द आर्टिस्ट” जैसी कई फिल्में इसी श्रंखला में आती हैं।
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मानो मत, जानोः “राम के नाम” ...साधो, देखो जग बौराना

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हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत व विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय, परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .In The Name Of God (1992), directed by Anand Patwardhan.

हरित भूमि तृण संकुल समुझि परहिं नहीं पंथ
जिमि पाखंड विवाद ते लुप्त होहिं सदग्रंथ...
"जब घोर बरसात होती है तो इतनी घास उग जाती है कि जो सही रास्ते हैं वो दिखाई नहीं पड़ते। उसी तरह से कि पाखंडियों की बात से सही बात छिप जाती है। जैसे किसी आदमी ने खा लिया कोई नशा। नशा जब तक उसके शरीर में रहेगा, तब तक कोई भी क्रिया वो कर सकता है। पागल भी हो सकता है, हमला भी कर सकता है, स्वयं की हत्या कर सकता है। ये सब उन्माद होते हैं। विचार, चिंतन, सब नष्ट हो जाते हैं। लेकिन ये वर्षा ऋतु थोड़ी ही देर के लिए होती है। बाद में लोगों की समझने की, सोचने की क्षमता लौटती है। आज जो लोगों में ये बातें हैं वो उन्माद है और जब असलियत सामने आ जाएगी, जब लोग जान जाएंगे कि हां ये बात गलत कही गई, हम लोगों को गुमराह किया गया, तो अपने ही लोग उनका बहिष्कार कर देंगे। मैं बहुत दुख महसूस करता हूं। तब भी अपना उतना ही संयम, उतना ही धैर्य बनाए रखा है। तूफान है, लेकिन उस तूफान से हमें विचलित नहीं होना चाहिए। ये भाटे (लहर) की तरह आया और गया।"
- लालदास जी, विवादास्पद रामजन्मभूमि मंदिर के तत्कालीन पुजारी, अरण्य कांड का दोहा उद्धरित करते हुए, डॉक्युमेंट्री बनने के एक साल बाद उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई...

देशके मौजूदा हाल में आनंद पटवर्धनकी 1991 में, बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से एक साल पहले बना ली गई ये डॉक्युमेंट्री बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। 2014 के आम चुनाव होने वाले हैं। ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि उसी दल की सरकार आएगी जिसने देश में हिंदुओं-मुस्लिमों के बीच वर्षों से कायम प्रेम को नष्ट किया, अयोध्या में राम मंदिर बनाने की धर्मांधता पूरे मुल्क में फैलाई, दंगों को जन्म दिया, हजारों-हजार निर्दोष नागरिकों की हत्या करवाई। संबंधित दल के भाषणों, निराश करने वाले रवैये और उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोर सांप्रदायिक छवि ने समाज के कई तबकों में डर भर दिया है। डरने की बात भी है। आनंद “राम के नाम” में उस भय का चेहरा करीब से दिखाते हैं। आश्चर्य की बात है, भारत में सीमित लोगों ने इस बेहद जरूरी फ़िल्म को देखा है। इसे बड़ी आसानी से अपने विषय, फुटेज और कालखंड के लिए सर्वकालिक महान दस्तावेज़ों में गिना जा सकता है।

Ram Ke Naam
इसकी शुरुआत नारों से होती है। “मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के मंदिर का निर्माण”, “इफ देयर इज नो राम… देयर इज नो सरवाइवल”, “सौगंध राम की खाते हैं... हम मंदिर वहीं बनाएंगे” और “बच्चा-बच्चा राम का... रामभूमि के काम का”। नारे, जो 1990 में एक सोचे-समझे राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए भारत की सड़कों पर उगा दिए गए। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता लालकृष्ण आडवाणी रथ के आकार में बनी आरामदायक टोयोटा में 10,000 किलोमीटर लंबी यात्रा पर निकले। इरादा अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनाना जो उनके मुताबिक भगवान राम का जन्मस्थल था। राम जो भारत में जन्मे मर्यादावान और आदर्श राजा थे। वे तत्कालीन या समकालीन वक्त में जिंदा होते तो इस पाखंड का विरोध करते। खैर, नारों के बीच सड़क के किनारे मोटरसाइकिल पर अंग्रेजी बोलता व्यक्ति रुकता है। फैशनेबल ऐनक लगाए वह पूरे यकीन के साथ कैमरे के आगे हिंदु होने के मायनों पर बोलता है। ऑयल बिजनेस करता है। पूरी फ़िल्म के दौरान आनंद लोगों से उनकी जाति और पेशा पूछते चलते हैं ताकि मतिभ्रष्ट और सद्बुद्धि वाले लोगों की पृष्ठभूमि का अंदाजा रह सके।

इस मसले का आधार जल्दी से रख दिया जाता है। बताया जाता है, “बाबरी मस्जिद का निर्माण अयोध्या में सन 1528 में हुआ। उसके तकरीबन 50 साल बाद तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ लिखकर रामकथा को आम लोगों तक पहुंचाया। 19वीं सदी तक अयोध्या नगरी राम मंदिरों से भर गई। इनमें से कई मंदिरों का ये दावा रहा कि राम यहीं जन्मे हैं। इस समय तक अंग्रेज़ों के पैर भारत में जम चुके थे पर वे हिंदु-मुस्लिम भाइचारे से अपना तख़्ता पलट जाने का ख़तरा महसूस करते थे। शायद इसीलिए अंग्रेज़ इस अफवाह को हवा देने लगे कि मुग़ल शहंशाह बाबर ने बाबरी मस्जिद का निर्माण रामजन्मभूमि मंदिर को तोड़कर किया था। आपसी तनाव के बावजूद हिंदु मस्जिद के प्रांगण में राम-चबूतरे पर पूजा करते रहे, जबकि मुसलमान मस्जिद के अंदर नमाज पढ़ते रहे। इस समझौते का अंत 1949 में हुआ जब कुछ हिंदुओं ने मस्जिद में घुसपैठ कर राम-मूर्तियां रख दीं। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के. के. नय्यर ने दंगा-फसाद की आशंका जाहिर करते हुए मूर्तियों को वहां से हटाने से इनकार कर दिया। बाद में वे जनसंघ में शामिल हो गए और संसद सदस्य भी बने। मस्जिद को सील बंद कर मामला कोर्ट में दर्ज कर दिया गया। कोर्ट ने पुजारी नियुक्त किए और हिंदु मस्जिद के बाहर पूजा करने लगे। आज हिंदु कट्टरपंथी कसम खा रहे हैं कि कोर्ट का फैसला जो भी हो, वे मस्जिद की जगह एक भव्य मंदिर का निर्माण करेंगे। दुनिया भर से राम शिलाएं और चंदा इकट्ठा हो रहा है...”

...आगे विश्व हिंदु परिषद् का वीडियो आता है जिसे लोग खड़े बकरियों की तरह देख रहे हैं। स्थानीय वीडियो में अभिनय और फ़िल्ममेकिंग के जरिए छद्म-प्रचार दिखता है। इसमें भक्त रूपी एक व्यक्ति कहता है, “23 दिसंबर की रात मैंने देखा कि बाबरी मस्जिद में यकायक चांदनी सी फूटी... और उस तेज रोशनी में मैंने देखा... कि एक 4-5 साल का बेहद खूबसूरत लड़का (कृष्ण/राम) खड़ा है। जब बेहोशी टूटी तो मैंने देखा कि सदर दरवाजे का ताला टूटकर जमीन पर पड़ा था। सिंहासन पर बुत (मूर्ति) रखा हुआ था और लोग आरती उतार रहे थे...” ये कैसेट चल रही है और भी दावे हो रहे हैं कि दरअसल भगवान कब और कैसे जन्मे थे, व सामने भीड़ में खड़ा एक 16-17 साल का लड़का भावुक होकर रो रहा है।

अयोध्या और आसपास के मुस्लिम निवासियों में भय व्याप्त है। अवाकपन है। बाबरी में नमाज पढ़ने जाने वाले मूर्ति रखने की घटना के पीछे की साजिश बताते हैं। एक बुजुर्ग कहते हैं, “आज यतनी नफरत पैदा कर दी गई है कि ज़नाब हमारी सूरत से लोग बेज़ार हैं”। दंगों में आगे 2500 से ज्यादा लोगों की जानें जाती हैं। वे बुजुर्ग फ़िल्म के आखिर में बेहद विकल होकर बोलते हैं, “कल क्या होगा? कल ये होगा कि हमारी मौत होगी!” साथ खड़े मुस्लिम सज्जन बोल पड़ते हैं, “देखिए जयपुर को फूंक दिया, सारा भारत हमरा जल रहा है इसी एक प्रॉब्लम पे। पहले कोई सोच नहीं सकता था कि हमारे-आपके ताल्लुकात में कोई फर्क आएगा। लेकिन आज माहौल ऐसा कर दिया गया है कि हम एक-दूसरे से भय कर रहे हैं, डर रहे हैं। बोलते हुए घबराता है आदमी, बात करते हुए घबराता है, मिलते हुए घबराता है। ऐसी भावना खराब कर दी गई है इस हिंदुस्तान की कि साहब कोई जवाब ही नहीं मिलता है। परिक्रमा करने तो तमाम मुसलमान जाते थे शौकिया। कुछ यारी दोस्ती में। कि भैया क्या फर्क पड़ता है! परिक्रमा करने वालों को पानी पिलाते थे। ...धार्मिक मामला ऐसा होता है कि हम-तुम एक थाली में बैठकर खाएं। लेकिन जहां मामला आया बाबरी मस्जिद-राम मंदिर का, तुनक कर आप उधर खड़ी हो गईं, मैं इधर खड़ा हो गया। न आप बहन रही न मैं भाई रहा (महिला साक्षात्कारकर्ता को संबोधित करते हुए)”। वहां बैठे एक अन्य व्यक्ति कहते हैं कि उनके गांव में हिंदु-मुसलमान जैसी कोई बात नहीं है। वे कहते हैं, “मेरे यहां शादी होती है हम परसते हैं वो खाते हैं, उनके यहां होती है वो परसते हैं हम खाते हैं। अयोध्या के 10-15 किलोमीटर के दायरे में जितने गांव हैं वहां कोई दिक्कत नहीं है। जब तक बाहरी सांप्रदायिक तत्व नहीं आते सब ठीक है, वो आ जाएंगे तो झगड़ा होना ही होना है”।

आगे हम लालदास जी से मिलते हैं जो विवादास्पद रामजन्मभूमि मंदिर के कोर्ट नियुक्त पुजारी हैं। विश्व हिंदु परिषद् के मंदिर बनाने के कार्य पर कहते हैं, “ये तो एक राजनीतिक मुद्दा है। विश्व हिंदु परिषद् ने कार्यक्रम चलाया है, ... पर मंदिर तो बनाने के लिए कोई रोक नहीं थी। हमारे यहां ऐसा कोई विधान नहीं है कि भगवान को किसी अलग जगह हटाकर रखा जाए क्योंकि भगवान जहां विराजमान होते हैं हम उसे मंदिर ही मानते हैं। चाहे वो किसी मकान में रख दिए जाएं तब भी हम उसको मंदिर ही कहते हैं। फिर अलग से मंदिर बनाने का कोई औचित्य नहीं होता है। अलग से बनाया भी जाता है तो उस इमारत में जहां भगवान विराजमान हैं। हम उसको तोड़ना भी नहीं चाहते हैं। और जो लोग तोड़ना चाहते हैं वो इसलिए कि पूरे हिंदुस्तान में तनाव की स्थिति पैदा हो, और हिंदु मत हमारे पक्ष में हो। उनको ये चिंता नहीं है कि कितना बड़ा जनसंहार होगा, कितने लोग मारे जाएंगे, कितने कटेंगे, कितनी बर्बादियां होंगी। या जो मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में हिंदु रहते हैं उनकी क्या परिस्थिति होगी। हमारे देश के सामने तमाम ऐसी समस्याएं हैं। 1949 से आज तक किसी मुसलमान ने वहां कोई अवरोध नहीं पैदा किया। लेकिन जब इन्होंने ये नारा दिया कि ‘बाबर की संतानों से खून का बदला लेना है...’ तब पूरा देश जो है वो दंगाग्रस्त हो गया और कम से कम हजारों लोग इसमें मारे गए ...मौत के घाट उतार दिए गए। लेकिन तब भी इन लोगों ने ये जरा भी महसूस नहीं किया कि ये तनाव जो फैल रहा है, हिंदु-मुस्लिम की एकता जो हमारे देश में बनी हुई थी... तमाम मुस्लिम शासकों ने मंदिरों को जो जागीरें दीं ... आज जानकी घाट में माफीनामा मिला, हनुमान गढ़ी के बहुत से भाग मुसलमानों के बनाए हुए हैं, फकीरी रामजी का मंदिर मुसलमानों का माफीनामा है। ये तमाम जागीरें जो हैं, मुसलमान शासकों द्वारा मंदिरों में दी गईं। और अमीर अली और बाबा रामचरण दास के जो समझौते थे कि हम हिंदु और मुसलमान दोनों एक मिलकर के रहेंगे, उसी जन्मभूमि के हिस्से के दो भाग किए गए कि एक तरफ मुसलमान नमाज पढ़ेंगे, दूसरी तरफ हिंदु पूजा करेंगे। ये सारी बातें जो थी उस पर इन लोगों ने पानी फेर दिया”।

आगे राम के नाम पर क़त्ल-ए-आम करने को जगाए जा रहे ख़ौफ़नाक चेहरे खड़े दिखते हैं, ख़ौफ़नाक सोच नजर आती है। एक व्यक्ति तलवार लेकर खड़ा है। इलैक्ट्रिशियन है। साथ में भगवा वस्त्र धरे कई अन्य खड़े हैं। सब इतने आश्वस्त हैं जैसे उन्हें इतिहास की पूरी जानकारी है। वे जानते हैं वे क्या करने जा रहे हैं। जबकि उन्हें कोई अंदाजा भी नहीं है कि ‘मैन्यूफैक्चरिंग कंसेंट’ क्या होता है। आज 2014 में भी नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी तक आते-आते इस मामले में तरक्की ज्यादा नहीं हुई है। खैर, फ़िल्मकार इन हथियार धारियों से पूछते हैं, रामजी का जन्म कब हुआ था? तो कोई जवाब नहीं दे पाता। वो तलवार लेकर खड़ा बिजली वाला भी नहीं। वो लॉ का फर्स्ट ईयर स्टूडेंट भी नहीं जिसके हाथ में भारतीय जनता पार्टी का झंडा है, और आंखों पर आधुनिकता की निशानी काला चश्मा है। कैमरा आगे बढ़ता है, एक बुजुर्ग से लगने वाले पुजारी से पूछते हैं, राम का जन्म कब हुआ था? उसे भी नहीं पता... बस इतना पता है कि हजारों साल पहले। कोई कहता है लाखों साल पहले तो उसकी बात काटकर कहता है, “नहीं-नहीं, हजारों साल पहले”। गाड़ी के अंदर से उतर रहे एक अन्य सीनियर पुजारी कहते हैं, “द्वापर युग में हुआ था”। सुनकर लगता है, क्या रक्तपात करने के लिए ये दो पंक्तियां काफी हैं? माहौल के अन्य दृश्य दिखते हैं। पेड़ों पर एक ही तरह के झंडे लगे हैं। देखकर लगता है, ये एक ही धर्म के लोगों का देश है।

इस दौरान जब ऊंची जातियों के लोग (सभी नहीं) मंडल आयोग के फैसलों से नाराज हैं, शोषित वर्गों में नई जागरूकता उभर रही है, ऐसा बताया जाता है। हम भवानीदेवी से मिलते हैं। वे गौमतीनगर में रहती हैं। सिलाई का काम करती हैं। उनकी कपड़े की दुकान है। पहली बार कैमरे के सामने बोलने की थोड़ी झिझक है, पर पवित्र भाव लिए कहती हैं, “मजूरी खेती-बाड़ी करते थे। खेती-बाड़ी करते थे उनकी जो मंदिर में बैठते हैं, पूजा करते हैं। काट-बीटकर करते थे तो वो खाते थे, लेकिन गल्ला आ जाता था तो कहते थे तुम अछूत हो, हमारे घर में कदम नहीं रखना है। उसके बाद हम लुटिया छूना चाहेंगे तो छूने नहीं देंगे। हमारे बुजुर्गों की भी यही हालत थी। इन्हीं लोगों ने, मंदिर के पुजारियों ने उन्हें सताया है”। आश्चर्य की बात ये होती है कि इस सामूहिक पागलपन के दौर में सिर्फ नीची जाति के, पिछड़े और वंचित तबके के लोग ही हैं जो भाइचारे की बात करते हैं। रथयात्रा जिस रास्ते से निकलने वाली है, उसके किनारे किसी गांव में कोई व्यक्ति खड़े हैं। पूछने पर कहते हैं, “न जाने मंदिर कब बना? जो 40 साल से है तो अब क्यों तोड़ दिया जाए! वो भी देवता है, वो भी देवता। मुस्लिम भाई नमाज पढ़े, वो पूजा करे। अब बिगाड़ने से कोई नहीं होने वाला है”। आनंद की आवाज पूछती है, आप कौन सी जाति से हैं? वह कहते हैं, “हम रैदास...” फिर रत्ती भर रूक कर कहते हैं, “चमार जिसको कहते हैं, वही हैं”। उन्हें सुनकर श्रद्धा पैदा होती है।

इसी तरह पटना में लोग इस सांप्रदायिकता के खिलाफ एकजुट हुए। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सम्मानित और समझदार नेता ए. बी. बर्धन मंच से बोल रहे हैं। सधी आवाज में, सही मुद्दों को उठाते हुए, रथयात्रा पर लगे कमल के राजनीतिक चिन्ह पर सवाल उठाते हुए। इस डॉक्युमेंट्री में सुनाई देने वाली एक और बेहद सुलझी हुई आवाज। वे रैली में आए अनेक लोगों को संबोधित करते हैं, जो आज भी कारगर है। लोग सुन रहे हैं, “अगले चुनाव में 88 से 188 कैसे हों, ये करने के लिए पूरे देश में बीजेपी का झंडा लहराते हुए वे घूम रहे हैं। मंदिर बनाएंगे और मस्जिद तोड़कर बनाएंगे! यही राम की मर्यादा है? माना कि ये उनकी अस्मिता का सवाल है। लेकिन कोई आडवाणी या कोई और कह दे कि अयोध्या का वो कौन सा कोना है जो राम की याद से पवित्र नहीं। बेशक अयोध्या में बनाएं, भव्य बनाएं मगर ये हठ न करें कि मस्जिद तोड़कर बनाएंगे। हम चाहे लाल झंडे वाले हैं या कोई और लेकिन एक धर्म की आस्था के लिए दूसरे धर्म की नहीं तोड़ सकते!”

यहां से हम दूसरे मंच की ओर बढ़ते हैं, जहां नारा लग रहा है “देशद्रोहियों सावधान, जाग उठा राम भगवान”। मंच पर प्रमोद महाजन, शत्रुघ्न सिन्हा, लालकृष्ण आडवाणी और गोपीनाथ मुंडे खड़े हैं। आज बेहद शांत, सौम्य, पाक़-साफ नजर आने वाले आडवाणी यहां गरजते हैं, “अदालत थोड़े ही तय करेगी कि रामलला का जन्म कहां हुआ था। आप तो बस रास्ते में मत आओ”। उन्हें सुनते हुए लगता है कि उन्होंने और उनके दल ने धर्म के नाम पर इतने वर्षों में लोगों को कितना बरगलाया है। इन गर्जनाओं का असर भी होता है। खबरों में देश में फैले तनाव की जानकारी मिलती है। एक अख़बार में शीर्षक होता है, “बंद के दौरान हिंसा में 30 मरे”। अलग-अलग बुलेटिन में सुनाई पड़ता है, “जयपुर में आर्मी बुलानी पड़ी। गुजरात में बीजेपी और वीएचपी के एक दिन के बंद में 8 लोग मारे गए। राजस्थान में 49 लोगों के मरने की ख़बर”।

एक दीवार पर नारा लिखा दिखता है, “30 अक्टूबर को अयोध्या चलो”। इससे उलट, कहीं, सड़क के किनारे खड़े तीन-चार ग्रामीण बातें कर रहे हैं। समाज के सबसे निचले तबके के हैं। अद्भुत बातें हैं। कह रहे हैं, “हम तो कहें कि फैसला हो। वो अपना मस्जिद बनाएं, हम अपना मंदिर बनाएं। कोई बिसेस बात नहीं। अब दोनों पक्षों में इतनी लड़ाई होगी, नुकसान ही होगा, फायदा कोई नहीं होगा। अब कहीं लड़ाई कोई हो तो पैसा लगे। इधर से पैसा, उधर से पैसा। किसी का कोई घाटा नहीं बस हम लोगों का घाटा है। चौराहे पर दुकान खोलें तो कोई एक पैसे का काम न हो। बस हमार लोगों का गल्ला सस्ता है और सब महंगाई है...”। फ़िल्मकार उन्हें टटोलता है कि क्या यहां भी दोनों संप्रदायों में झगड़ा होता है। वे कहते हैं, “हमरे यहां कोई ऐसी बात नहीं है। कभी झगड़ा नहीं हुआ। ये तो बाहर-बाहर का है सब...”। तभी फ्रेम में एक अन्य सज्जन आते हैं। आर्थिक रूप से थोड़े बेहतर लगते हैं। बोलते हैं, “ये सब बेकार की बातें हैं। अब मस्जिद तोड़ के मंदिर कैसे बने? अब बगल में बना लिया, ब कोई बात नहीं झगड़ा शांत करें। लेकिन अब एक उठाव (लड़ाई) वाली बात है”। आनंद पूछते हैं, आप हिंदु हैं कि कौन हैं? वे कहते हैं, “नहीं हम तो हिंदु हैं”। आनंद फिर पूछते हैं, तब भी आप सोचते हैं कि मस्जिद नहीं टूटनी चाहिए? वे कहते हैं, “बिलकुल। भई, अब हमारे मंदिर कोई तोड़े लागे तो कैसे बात जमे। अगर तुम्हें मस्जिद बनाना है तो अलग बना ल्यो। या जिसे भी लोगों को मंदिर बनाना है तो अलग बना ल्यें दूर, मस्जिद न तोड़ें। जिससे एक चीज बनी है तो तोड़ना नहीं चाहिए”। अन्य दो-तीन सज्जन पहले बात कर रहे थे वे विश्वकर्मा जाति से हैं। लौहार। आनंद पूछते हैं, तो आप लोगों में से ब्राह्मण-राजपूत तो कोई नहीं है? वे सज्जन कहते हैं, “नहीं ब्राह्मण कोई नहीं है। ब्राह्मण लोग तो चाहते हैं कि मस्जिद टूट के मंदिर बन जाए। सीधा मामला उनका यही है”।

एक और सुबह का सामना होता है। अयोध्या में। एक छत पर महंत भोलादास बैठे हैं। सरल, स्पष्ट, निष्कपट। बताते हैं कि 35 साल से एक मंदिर में पुजारी हैं। फ़िल्मकार पूछते हैं, ये जो हो रहा है उसके बारे में क्या सोचते हैं? भोलादास जी बताते हैं, “पहले तो बहुत बढ़िया अयोध्या था। कोई बवाल नहीं था, कोई प्रपंच नहीं था। भगवान की नगरी एकदम शांत स्वभाव था। अब तो बवाल ही बवाल, बवाल ही बवाल चलता है”। अगला सवाल होता है, यहां पे मंदिर बहुत सारे हैं न? वे कहते हैं, “बहुत सारे हैं। कोई 5000 थे पुराने जमाने में। अब घर-घर में लोगों ने बना लिए है”। फिर फ़िल्मकार पूछते हैं, मस्जिद भी बहुत हैं? वे बोलते हैं, “हां बहुत हैं। अंग्रेजों के जमाने में कई मुसलमान थे पर कोई बवाल नहीं था। एक जमींदार थे अच्छन मियां। ये अमावा कोठी है, ये सब मुसलमानों की ही थी। ये मणि पर्वत है जो कब्र ही कब्र है। वहां कोतवाली के पीछे मस्जिद भी हैं वहां। कब्र भी है। कोई बवाल नहीं था। कौनों प्रपंच नहीं था। ये तो रामजन्मभूमि के मुद्दे पे ही शुरू हुआ। वो नय्यर साहब रहे, तभी। पहले कहां बवाल रहे। ...अब भगवान जन्म लिया था, अभी ये नहीं मालूम कि ये घर में लिया था कि उस घर में लिया कि वहां पर लिया कि वहां पर लिया। भगवान अयोध्या में जनम लिया। अब ये कैसे कहो कि उस मस्जिद में ही जनम लिया?” उनकी बातें भी कुछ राहत देती हैं।

फिर लालदास जी पर लौटते हैं। वे कह रहे हैं, “आज तक जो पूरे हिंदुस्तान में दंगे फैलाए गए, कुर्सी और पैसे के लिए फैलाए गए, न कि रामजन्मभूमि के लिए। मैं रामजन्मभूमि मंदिर का पुजारी हूं और बिलकुल सत्य कह रहा हूं कि आज तक विश्व हिंदु परिषद् के लोगों ने वहां पर एक माला भी नहीं चढ़ाई है। भगवान की पूजा-अर्चना तक नहीं करवाई है। बल्कि उन्होंने व्यवधान डाला है। हमने हाईकोर्ट में रिट डाला और उससे भोग की व्यवस्था चालू करवाई। तो यहां के जनमानस ने इसको कभी स्वीकार नहीं किया। लेकिन कुछ किराए के साधु जिनको पैसा चाहिए, पैसे पर खरीदे गए। राम शिलाएं घुमाई गईं। उन रामशिलाओं को उन्होंने अपना कमरा अपना मकान बनाना शुरू कर दिया। काफी जनभावनाओं को उन्होंने दोहन करके और बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें तैयार कर लीं। करोड़ों-अरबों रुपया इन लोगों ने इकट्ठा किया। विभिन्न बैंकों में डाला। तो लोगों की हत्याएं हो जाएं, लोग नष्ट हो जाएं, इससे इनको कोई मतलब नहीं। इनको मतलब पैसा मिले, कुर्सी मिले। यहां जो लोग हिंदु राष्ट्र की बात करते हैं, राम के नाम पर तनाव फैलाते हैं, हिंसा करते हैं, ये सभी ऊंची जाति के लोग हैं और सब के सब सुविधाभोगी हैं। इनमें त्याग और तपस्या और जनमानस का हित लेशमात्र नहीं है। ये केवल धार्मिक भावनाओं को उभार करके और केवल स्वयं को सुख-सुविधा किए हुए हैं। ये जनहित की बात कर ही नहीं सकते हैं। लेकिन आज बड़े-बड़े मठ हैं, करोड़ों-अरबों की संपत्ति उसमें है। और हम पैदल छोड़कर के एयरमेल से चलते हैं। फर्स्ट क्लास की टिकट पर चलते हैं। एयर कंडीशन के कमरे में रहते हैं। तो जहां पर हम एक तरफ भौतिकवादी व्यवस्था से अलग होकर के त्याग, तपस्या और जनहित की बात सोचते थे, उस जगह हम उसको त्यागकर पूरी तरह भौतिकवादी व्यवस्था में लिप्त हो चुके हैं तो हम भौतिकवाद की ही बात सोचेंगे। उससे परे हट नहीं सकते हैं। ...ये आज के धर्माचार्यों को आप क्या कहेंगे? मैं तो भौतिकवादी व्यवस्था का पोषक मानता हूं इन्हें। ये जो पूंजीपति कहते हैं कि हिंदु धर्म की रक्षा, हिंदु धर्म की रक्षा। अशोक सिंघल जो आज ये बात कह रहे हैं कि हम बहुत बड़े राम के भक्त हैं। क्या राम का यही आदर्श है कि 90 परसेंट लोग भूखों मरें? अगर आप बड़े पूंजीपति हैं, आपके पास पैसा है, आपके (धर्माचार्यों के) कहने में एक पूंजीपति समुदाय देश का है तो उनसे पैसा लेकर के गरीबों में लगाइए आप। जैसे मदर टैरेसा कर रही है”।

विषय जब बाहर से आ रहे चंदे और धन की राह लेता है तो हम इनकम टैक्स के डिप्टी कमिश्नर विश्व बंधु गुप्ता से मिलते हैं जिन्होंने तब विश्व हिंदु परिषद् के अकाउंट टटोलकर समन जारी किए थे। अशोक सिंघल को भी। वे बताते हैं कि ऐसा करने के 24 घंटे में वीएचपी का बड़ा प्रदर्शन प्रधानमंत्री आवास के बाहर किया गया। उसी दिन उनका मद्रास तबादला कर दिया गया। तब जो सरकार थी उसने उस जांच को दबा दिया। फिर उन्हें सस्पेंड कर दिया गया। बताते हैं कि अशोक सिंघल ने कभी अपने इनकम टैक्स रिटर्न के काग़ज नहीं दिए। परिषद् के नेताओं का आपस में झगड़ा भी हुआ कि 1 करोड़ 66 लाख का जो पैसा आया वो बोगस था, उसमें लोग पैसा खा गए।

6 दिसंबर 1992 को आतंकियों ने बाबरी ढहा दी। दंगों ने पूरे देश को जकड़ लिया। हजारों मार दिए गए। वो स्टिंग ऑपरेशन तो हाल ही में आया है जिसमें बताया गया कि बाबरी विध्वंस पूर्व-नियोजित था। लेकिन इस डॉक्युमेंट्री को देखते हुए ये बात पहले ही साफ हो जाती है। सोमवार 7 अप्रैल, 2014 को यानी आज भारतीय जनता पार्टी ने फिर से अपने चुनावी घोषणापत्र में अयोध्या में इसी स्थान पर राम मंदिर बनाने का वायदा किया है। 23-24 साल पहले देश को कसाईबाड़ा बनाया गया था, वो ख़ौफ़ फिर लौट रहा है। अफसोस इस बात का है कि बहुत से लोगों ने पहले से कोई सबक नहीं लिया है। आज पहली बार वोट देने लायक हुए युवाओं में बहुत से ऐसे हैं जो उसी भाषा में बात कर रहे हैं जो नफरत भरी है। बहुत सोचने और बहुत विचारने का वक्त आ चुका है। एक गलत फैसला सभी पर बहुत भारी पड़ सकता है। सड़कें बनाने और कॉरपोरेट इमारतें खड़ी कर देने को विकास की संज्ञा नहीं दी जा सकती, ये बात समझने की जरूरत है। धार्मिक सौहार्द से समझौता किसी भी कीमत पर नहीं किया जा सकता। आज जब मीडिया 2002 के गुजरात पर बात करना बंद कर चुका है, 1992 के अयोध्या पर बात करना बंद कर चुका है, आनंद पटवर्धन व उनके साथियों की ये डॉक्युमेंट्री फ़िल्म हमारे बीच मौजूद है और अनेक वर्षों से इन बेहद गंभीर प्रश्नों को लेकर अटल खड़ी है। इसे देखने, बांटने और इससे अपनी नई समझ बनाने की जरूरत है।

आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी जहां कमजोर राजनीतिक दृष्टि के साथ चीजों को देख रही है, तो फ़िल्म से भवानी देवी याद आती हैं। उनका कहा हमारी बातों का समापन हो सकता है। वे कहती हैं, “मंदिर के अंदर हमें जाने ही नहीं दिया जाता है तो मंदिर से हमें क्या लाभ है? मंदिर की मूर्ति एक बार पिस जाए तो दोबारा मसाले से काढ़ करके बना सकते हैं लेकिन हमारी जनता कट जाए तो हम किसी प्रकार का मसाला उसमें नहीं लगा सकते। देखिए हमारी बस्ती बहुत से लोगों की जन्मभूमि हुई है उनको यहां से निकाला जा रहा है। अभी यही गांव में करीब-करीब 150 बस्ती है, उनका निकाला जा रहा है और ये केवल इसलिए कि राम है। उनकी भूमि के लिए लोग कितना परेशान हैं और संख्या भी उसके पीछे दौड़ रही है। अब देखिए, मैं क्यों दौड़ूं?”

“In The Name Of God” - Watch the documentary here:


This documentary focuses on the campaign waged by the militant Vishwa Hindu Parishad (VHP) to destroy a 16th century mosque in Ayodhya said to have been built by Babar, the first Mughal Emperor of India. The VHP claim the mosque was built at the birthsite of the Hindu god Ram after Babar razed an existing Ram temple. They are determined to build a new temple to Ram on the same site. This controversial issue, which successive governments have refused to resolve, has led to religious riots which have cost thousands their lives, culminating in the mosque's destruction by the Hindus in December of 1992. The resulting religious violence immediately spread throughout India and Pakistan leaving more than 5,000 dead, and causing thousands of Indian Muslims to flee their homes. Filmed prior to the mosque's demolition, “In The Name Of God” examines the motivations which would ultimately lead to the drastic actions of the Hindu militants, as well as the efforts of secular Indians - many of whom are Hindus - to combat the religious intolerance and hatred that has seized India in the name of God.

Users can contact Anand Patwardhan at anandpat@gmail.com for the DVDs. You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings and activities.

Talking to Andrew Garfield, Jamie Foxx and director Marc Webb for THE AMAZING SPIDER-MAN 2

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Still from "The Amazing Spider-Man 2"
I think much of what I have to say, I've conveyed here in my 2012 review of The Amazing Spider-Man, directed my Marc Webb, then of “(500) Days of Summer” fame. He was brought in by Marvel Studios and Columbia Pictures to reboot the franchise which he successfully did with his unique Indie freshness. Making Spider-Man superhuman rather than superhero was his wisest contribution to it. This movie was as real as it was fictional. Of course, Irrfan Khan was our connection to the movie. Now, part-2 has arrived. There is Andrew Garfield and Emma Stone from the first movie and Jamie Foxx, Dane DeHaan (Chronicle), Paul Giamatti as new entrants, all three as foes of Spider-Man. Now the reviews are all over but when I got to see 40 minutes footage a month back, I found a certain sense of experimentation by Marc. When directors, in sequels, bow down to the studio pressures and over-add all the old masala, Marc displayed work of a liberated hand. You see longer scenes, organic scenes, acting prowess gradually coming out of the actors, fresh wit, smartly choreographed casualness in presentation and many such qualities. I don't like the Hollywood superhero franchises though, watching TAS-2 I took some amount of my cynicism back.

I happened to meet Marc Webb, Andrew Garfield and Jamie Foxx recently in Singapore and ask some questions regarding TAS-2. All were nice. Marc was very understanding, Andy was eager and Jamie was lively-entertaining-wise. Here it is:-


Q. A good movie is that which helps us make wise or right decisions in life. Like, “The Amazing Spider-Man”, in parts, shows Peter parker/Spiderman being forgiving to all, even to his enemies. Can we expect the same from this sequel? Is it all violence or virtue as well?

Marc Webb: That’s a really important question. One of the things very special about Spider-Man is that he’s different than a lot of superheroes. There is a lot of fighting, there’s a lot of violence and that’s a part of what happens in these movies, but Spider-Man is a rescuer. He saves people. That’s what the webs are for. They create nets so that people can be saved and that doesn’t always require violence. Spider-Man is really special. He also empathizes – what you were saying – he empathizes with his enemies and he tries to appeal to the better part of their nature. And I think that’s a really important part of that character that I think we try to incubate and foster in these movies.

Andrew Garfield: If I could add to that, Spider-Man was one of my main heroes growing up and Mahatma Gandhi was another one of my main heroes growing up and still is; a beautifully symbolic human being. And I like the idea of Spider-Man being a pacifist. I really like the idea of him never throwing a punch and never throwing a kick and using his enemies’ weaknesses against themselves, like Charlie Chaplin might or like Buster Keaton might or how Bugs Bunny might. I really like the idea of this skinny little kid dodging and weaving and kind of ducking and diving and letting these big bad guys just beat the crap out of themselves. I think that’s a very powerful message and motif for Spider-Man.

Sally Field and Andrew Garfield in a still from the movie.
  ...to Andrew Garfield.

What is the feeling of putting on that costume? Is it very tight?
Symbolically it feels fantastic. You feel so honored on that symbolic platform. It's hard to complain about. But the practicality, the real life physical aggravation it causes is a bummer. But I guess it's kind of interesting to meet symbolic. Being in the world of opposites which we are, you get to be your own superhero, you get to wear the costume and play the character. Yeah, you’ve got to go through the very human physical problems of actually wearing the suit. It's really interesting about it which I'm thinking right now. Peter is both human and super human, and that's the exact struggle that he's in. It's the struggle between being of this earth and being of the heaven. He's a demigod. He's caught in the tension between living as human being with all his imperfection and transcending that into flight, being eagle, being this spiritual free-flying animal. It's an interesting thing. So yeah, the costume is not comfortable. You feel very human when you're in the costume.

Is there an amount of power to be Spider-Man and how do you handle the responsibility?
That's the question for Peter Parker. Obviously I'm holding the symbol of Spider-Man, of Peter, for the time being. The great thing about him is that he’s imperfect. Peter is all too human, instead of living up to some idealized symbol of a hero without any cowardice, without any blah-blah-blah. No, Peter can experience cowardice, peter can experience pain, Peter can experience suffering, Peter can fear not being enough, Peter can fear not matching up to the symbol of Spider-Man, and that's inherent for young people. We all go through self doubt and fateful moments where we get scared, we run away... that's Peter. And, it's reassuring, reassuring for me that as a kid, growing up, I didn't have to always be courageous. I could also be human and it's okay to accept my humanity. It's really empowering for young people.

Would you do any Indian superhero role? Have you been offered any such role so far?
No, I have never been. I'd love to work in India, love to be a part of Indian cinema. Superhero! Probably not. I think I'd be greedy if I play another superhero. But I'd love to work in India. I'm very interested in the culture and the spiritual history. Yeah, I've never been there but I'm excited to visit.

You've worked with Irrfan Khan in The Amazing Spider-Man. How was it?
Yes! Irrfan Khan. Fantastic actor. Brilliant actor. Kind of graceful, very poiseful and very-very cool guy. Very talented.

You were jokingly saying that you're getting older and you better get these movies made sooner.
I was saying that as an 18 year old.

So when you do get old what do you see yourself playing? What are you aiming at?
I don't really know. I hope it reveals to me. I hope that I'm open enough to be what I'm supposed to be and do what I'm supposed to do. I tend to surrender to not knowing the answers up here (mind), only answers are down there (heart). They are in there already, it's a matter of them revealing themselves or me being open enough to let them. I try not to think too much about the future. I try to let the images of my future needs and my deeper self come to me.

What do think of “The Amazing Spider-Man 2” associating with The Earth Hour Campaign?
There is no greater protection needed right now than the protection we need to get to the planet. We are an endangered species and it's because we somehow somewhat forgotten. I mean look at this, we're in this great, big man made thing (Marina Bay Sands Hotel, Singapore) with a boat on the top, and do we need it? Do we need this or do we just go and walk into the woods. You know what I mean? Like, do we get more out of this than we would in the ocean? We’ve somehow forgotten that we are of this earth and that this is not ours. We don't own the earth, we don't own the sky, we don't own the soil, we don't own the flowers, we don't own the trees and we've lost some respect, especially in western culture. There's been a brainwashing, with capitalism and with the male ego. And, I think what Spider-Man can represent and what earth hour represents is protection of feminine because the earth is female, mother earth. And, Spider-Man, Peter Parker is in touch with that feminine side inside him, that sensitivity, that passion and that nurturing energy. It's a very-very beautiful partnership in that way, because he is kind of a perfect ambassador for our need to nurture our mother earth, the thing that holds us, the thing that is holding us right now, this mysterious thing that is allowing us to live on it. It's awe inspiring. I think we all need to remember that how awesome it is that we get to be here. We don't own any of it. The whole idea of buying and selling pieces of the earth! Crazy!!!

Are you afraid of spiders?
No, I'm fine with spiders, I'm not afraid of them, Snakes freak me out. I struggle with snakes. I need to get out of there. Snake is a very big symbol of soul. You know, snake in the Garden of Eden brings Adam and Eve straight into the world of suffering, straight into the world of opposite. He is the earth bound creature sliding on his belly. So I need to figure out my relationship with snakes. I think it speaks to my wish to ascend as opposed to descend. In order to have a full life you have to be in detention between the ascending and descending because the soul wants to descend and the spirit wants to ascend. Like the eagle and the snake. And then when you combine the eagle with the snake then you have dragon and that's cool.

If you are Spider-Man for real and the world is in crisis, what problems would you solve?
Well, I think what's wonderful about Spider-Man for me is what Marc (Webb) said, that he is a rescuer. He is a negotiator. He doesn't like to fight. He likes to resolve things peacefully. So maybe I'd go to Middle East, have a chat, try and give some education, entertain people with some juggling and get the opposing forces to sit together. Then I'll mediate and we'll talk about the fact that we're fighting over the same land and it's neither of ours and neither of yours, neither of you get it, you get to share. Killing each other over a piece of land that doesn't belong to either of you is insane. And these two different religious ideologies that you're fighting for are the same ideologies. They are born of a same story. It's all just a story, a myth. It's just a metaphor. You take it literally but it's actually not. There is a misguided thing happening. The two books that they are coming from is the same book. They were born from the same book. They have the same story, the same symbol, same characters in the same struggle, just with different clothing in it. So I'd probably go and have a chat.

Do you write?
I actually write for myself, but I'd like to try that.

What film subjects are you most passionate about?
I love all stories. I'm interested in exploring all. There is a film I shot last year called '99 Homes' which is about housing crisis in Florida in 2008 and that's a really interesting and devastating story, cause it says a lot about where we are as a culture right now. And there is another film I'm going to be shooting at the end of the year called 'Silence' based on Shūsaku Endō’s book where I play a Portuguese priest struggling with the very meaning of existence which is just my life anyways. So I'm excited about those projects.
 
Jamie in a still from TAS-2

 ...to Jamie Foxx.

You had fun during the movie?
Yeah, a whole lot of. You know what, most of the time you see bullshitting around in Hollywood, but this was one of the sincerest moments. When I reached on the sets for the first time, I didn't see Andrew, I saw Spider-Man. I thought man this shit is real, crazy! When you think about growing up as a kid, you're not thinking about nothing, you're just watching Spider-Man on television and you go outside and start playing like it, crazy! And the next thing you know that you acted in one the biggest film franchises in the world. They've recreated Times Square. So I think the responsibility was to have fun but to make sure that Electro is a formidable opponent, to make sure that Electro is so bad, so evil that it allows Spider-Man to be very good.

How does music become part of your acting?
Whenever I do a character and work with somebody, I do a song for the mood. Whether you ever hear it or not, doesn't matter. When I worked with Quentin Tarantino (Django Unchained), I came up with a song called “The Tarantino Mix”. During TAS-2 when someone would text me, “Yo! man, where you at? And when I'd be Electro and on the set, then I'd say, “I can't talk right now, I'm chasing Spider”. So I did a song called “Chasing Spider”. It says, “I may be black but I ain't no widow, I've just been shadows in the dark - it means Electro the villain. He may be yours but he ain't my hero, I am great with malice in my heart. I've been patiently waiting but I'm angry now, you promised me the light and then the sky, I was told they will worship me yelling screaming my name, but they turned their back on me and lied, so now I'm chasing Spider...”. So every time I do a movie, there is always a theme song. I did a movie called “Any Given Sunday” and I did the theme song in my bedroom. If you interview Quentin Tarantino next time you ask him how music influences everything he does. He hears a piece of music and he writes to the song. Same is with me, I hear a piece of music or I make up the words. So write now I chasing spider, I'm getting rid of Peter Parker.

You mention Tarantino, was it necessary to show you hanging upside down in “Django Unchained”?
It was necessary for the film because people understand that in real life it is more graphic. You know in real life what they'd do? They'd snip the nuts of slaves and allow him to bleed out. The reason Quentin is so successful because he's able to give you real and rapid, something that you can understand. He did this movie with a flair of comedy. And I'd say to him, “Dude, you're the best director in the world. You were able to say the word Nigger ten times on Christmas, and black folks, white folks, Hispanic everybody enjoyed the film. People reacted in different ways, but you have got to trust your director. And because of the movie I'm in “The Amazing Spiderman-2”. Had I not had Quentin Tarantino, I wouldn't be here.

Have you ever been bullied like your character Electro in the movie?
Like, I don't like the internet, when you talk about bullying. In our times we had real bullies. A dude comes to your class and (enacts) ... you, you come out boy and I'll punch you in the face. Bullying of any kind is bad, but for me, it taught me how to dare in life. That, I'm going to deal with bullies and in intelligent ways and try to be funny at the same time. I always had bullies in my life. Even some 15 days ago a guy tried to bully me on phone. I said, what the hell is going on? So my point is bullies are going to exist, don't always run away, adjust them in a way you can, with intelligence. Say, I'll call the FBI. Like the dude on phone, I told him, I'm calling the authorities. Another aspect of this is you don't know what the other person is going through. In case of Electro, he was bullied by first. But he didn't know how to intelligently adjust them.

Do you think Electro is a villain? Because I don't think he is. He is what he is because of the situations around, the society and the bullying around.
Yeah, but even if somebody shits on your car plate, you have to abide by the rules. He may not have started as a villain but he's welcoming that anger. Electro has a choice but he chooses to embrace it. It's easier to embrace anger, easier to be angry but it's hard to be nice to those people who are not nice to you.

Marc on sets of TAS-2
 ...to Marc Webb.

Which was the hardest scene in the movie?
The Times Square one was the most difficult, technically too, because we had to shoot on the set that we’d built literally. It was not actually a lot of green, we built the first layer of Times Square. We built the whole northern section of Long Island and then we had to integrate the practical version of Times Square where the whole fight between Jamie and Andy takes place. Then we had to integrate the CG elements, music, light and many-many things. It took a year to do. Four weeks to shoot and a year to do. But it was also fun. What's important about those action sequences is that you have to have a clear intention of what's going on and Spider-Man is trying to help people out. We understand that he's trying to connect the first part of sequence with Electro. There are many scenes like that.

How Andrew and Emma were second time around? Were they more comfortable now?
Yeah, I think they knew each other in a much deeper way. Andrew had really embraced Spider-Man. He knew what Spider-Man was. He'd studied Spider-Man but also had lived in it, had lived in the suit. You know, part of Spider-Man's humanness is his wit. He uses his wit to undermine the villain. In the first movie he was discovering this all but in the second part he embraced it. Emma was really thoughtful this time around. Her character Stacy is an incredibly intelligent woman, very thoughtful woman, who's not just a girlfriend. She wants to have her own life. She's going to pursue heroism in her own way and I think in a very real way. Emma really understood this and had discovered this that she can be as heroic as Spider-Man can be. It’s just that her abilities are different.

For the kids who aspire to be Spider-Man what is the message that the movie gives?
That, With great power comes great responsibility. It’s the fundamental that we always talk about. For the movie, I think there’s an idea about time and valuing the time you have with the ones you love. That’s really important. We’ve made it a little sophisticated for the kids, but I think what the kids understand and appreciate is that being good isn’t easy, there’s a consequence to that. But it’s the right thing to do and it’s what you must do, even if you fail. It’s the effort that counts. I hope the kids pick up on that.

Yes, Kids are big fans but the same goes for adults. How do you work for both audiences?
Think about what moves you, and weirdly if you stay true to that it doesn't matter how old you are or what sex you are, or you're from Indonesia or you're from Rajasthan or you're from America, there is something fundamentally human about Peter Parker in particular as a kid. And there is something in it that you aspire to, like you want to do good, but you know it's hard. Sometime it's so complex that it makes impossible to go that lane, but there is no good way out, there is no easy answer and how you overcome this. All this stuff is underneath the surface of the movie. I don't know about you, you seem so mature and sure of yourself, but it's this global appeal that works. When I'm watching a movie or doing the big action sequences, the 12 year old kid in me says Oh! That’s cool! You know that just wakes up. Adults feel enormous empathy for different reasons, parents feel affection.

When we talk about Spider-Man movies we undermine the efforts of the CGI artists. It is amazingly toiling and hard working to create those visuals. So who were those artists and tell us something about them?
Wow! Right, a lot of our artists are in Mumbai. You know we have a whole staff of people that would do the early fundamental processes in the CG work. We’d be in connection with them in India which is a terrible time zone connection but there would be a lot of work and there are thousands of people that worked to give life to the character. Though it seems so simple but it is not. Funny, we go around as emissary to the movie and get undue credit for how nearly extra-ordinary artists there are. There are very important animators, lighters, rotomators, match move people who calibrate an enormous quantity of effort to make this thing real. It’s so ironic that we forget about them. These are the people from India, Canada, America, Germany and U.K.
 
Jamie, Andrew, Emma and Marc Webb in Singapore.

फिल्म "द अमेजिंग स्पाइडरमैन-2"के कलाकारों एंड्रयू गारफील्ड, जेमी फॉक्स और कुशल निर्देशक मार्क वेब से कुछ वक्त पहले सिंगापुर में मुलाकात हुई। प्रस्तुत थे उनसे बातचीत के कुछ अंश।

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Be a film producer: फ्रांस के कान फ़िल्म फेस्टिवल में चुने गए प्रोजेक्ट "छेनू"में भागीदार बनने का मौका

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Bafp is a series about important film projects in-progress
 and possibilities for independent producers...

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 कान फ़िल्म फेस्टिवल-2013 में सह-निर्माण को प्रोत्साहित करने वाले सिनेफाउंडेशन के कार्यक्रम ‘द लाटलिए’ में पूरी दुनिया से सिर्फ 15 फ़िल्म प्रोजेक्ट चुने ग़ए। उन्हीं में एक थी “छेनू”। इसे नांत, फ्रांस में ‘3 कॉन्टिनेंट्स फ़िल्म फेस्टिवल’ के ‘पोदुए ऑ स्यूद’ कार्यक्रम में भी चुना गया। ऐसे सिर्फ पांच और प्रोजेक्ट चुने गए। “छेनू” की स्क्रिप्ट मंजीत सिंह ने लिख़ी है। निर्देशन वे ही करेंगे। दो साल पहले “मुंबई चा राजा” जैसी बहुत अच्छी और विश्व में सराही फ़िल्म उन्होंने बनाई थी। “छेनू” की कहानी इसी नाम वाले एक दलित लड़के की है। वह उत्तर भारत में रहता है। ऊंची जाति का जमींदार अपने खेत से सरसों के पत्ते तोड़ने पर उसकी बहन की अंगुलियां काट देता है। ऐसी अमानवीय घटनाओं के बाद़ छेनू नक्सली बन जाता है। ये कहानी शेखर कपूर की क्लासिक “बैंडिट क्वीन” और यादगार ब्राज़ीली फ़िल्म “सिटी ऑफ गॉ़डकी याद दिलाती है। स्क्रिप्ट कई ड्राफ्ट से ग़ुज़र चुकी है और संभवत: दो आख़िरी ड्राफ्ट लिखे जाने हैं। मंजीत ‘द लाटलिए’ से कुछ निर्माताओं के संपर्क में हैं। 

एक कैनेडियन को-प्रोड्यूसर फ़िल्म से जुड़ चुके हैं। कुछ फ्रेंच को-प्रोड्यूसर रुचि ले रहे हैं। यानी मेज़ पर कुछ प्रभावी निर्माता आ चुके हैं। मुंबई और भारत के अन्य इलाकों के कुछ निर्माताओं से भी वे बातचीत के अगले दौर में हैं।भारतीय निर्माताओं से वे तकरीबन 3 करोड़ रुपए जुटाएंगे।क्राउड फंडिंग फिलहाल टाल रहे हैं और कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा 3-4 सह-निर्माता हों भारत से। शायद बाद में क्राउड फंडिंग करनी पड़े। एक विकल्प राष्ट्रीय फ़िल्म वित्त निगम यानी एनएफडीसी है। पर फिलहाल उनकी ओर से फंडिंग बंद है। नई अर्ज़़ियां लेनी इस साल में कभी भी शुरू की जा सकती हैं। बहुत कुछ केंद्र में बनने जा रही नई सरकार की नीतियों पर भी निर्भर करेगा। पिछली सरकार बेहद प्रोत्साहित करने वाली थी। उस दौरान एनएफडीसी ने कई फ़िल्मों की मदद की। कान, बर्लिन, टोरंटो जैसे नामी इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल्स में भारतीय फ़िल्मों और फ़िल्मकारों का उन्होंने प्रचार किया। फ़िल्म का बाकी 60-70 फीसदी बजट विदेशी निर्माताओं से आएगा। पर शुरुआत भारतीय निर्माताओं से होगी। चीज़ें तेजी से हो रही हैं। अगर कोई स्वतंत्र निर्माता फ़िल्म से जुड़ना चाहते हैं तो अभी वक्त है। ऐसे लोग जो इस प्रोजेक्ट में रुचि रखते हों, जिनकी सोच और मूल्य इस प्रोजेक्ट से मेल खाते हों। मंजीत से cinemanjeet@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है।

 “छेनू” का संगीत फ्रेंच कंपोजर मथायस डूपलेसी तैयार करेंगे। वे “मुंबई चा राजा”, “पीपली लाइव”, “फ़क़ीर ऑफ वेनिस”, “डेल्ही इन अ डे” और “अर्जुन” जैसी कई फीचर फ़िल्मों में संगीत दे चुके हैं। मुख़्य कलाकार बच्चे होंगे। जो बिहार-झारखंड मूल के होंगे। योजना है कि मगही बोलने वाले बच्चों को उन्हीं इलाक़ों से कास्ट किया जाए। अगर मुंबई में उपयुक्त कलाकार मिल गए तो मुंबई से लिए जाएंगे। 100 मिनट की सोशल-पॉलिटिकल गैंगस्टर जॉनर वाली इस फ़िल्म में एक मुख़्य भूमिका है नक्सल लीडर की। इस किरदार के लिए एक मजबूत स्क्रीन प्रेजेंस चाहिए, इसलिए अच्छे और जाने हुए अभिनेता तलाशे जा रहे हैं। फिर एक विलेन का किरदार है। उसके सीन कम हैं पर मौजूदगी बहुत प्रभावी होगी। इन दो भूमिकाओं में जाने-माने, स्थापित कलाकार लिए जा सकते हैं।

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मैंने आख़िरी बार किस दलित पात्र को किसी हिंदी फ़िल्म के केंद्र में देखा था, याद नहीं आता। शायद रहे भी होंगे, मगर अपवादस्वरूप। “छेनू” इसी लिहाज़ से उत्साहजनक परियोजना है। मुख़्यधारा के हमारे ए-लिस्ट फ़िल्म स्टार्स, डायरेक्टर्स और स्क्रीनराइटर्स से बहुत बार पूछने की इच्छा हुई कि उनके क़िस्सों में निम्नवर्ग या निम्न-मध्यमवर्ग कहा हैं? मगर एक-आध को छोड़ नहीं पूछा। मुझे याद है कोई तीन साल पहले “जिंदगी न मिलेगी दोबारा” के कलाकार फरहान अख़्तर, अभय देओल, कटरीना कैफ और कल्कि कोचलिन चंडीगढ़ के पीवीआर सेंट्रा मॉल में फ़िल्म का प्रचार करने पहुंचे थे। लोगों को तब तक ट्रेलर्स से फ़िल्म जितनी अच्छी लग रही थी, तत्कालीन छद्म-पॉजिटिविटी के बीच मैं उतना ही व्यग्र था। बातचीत से बड़ा पहलू छूट रहा था। ये कि एक और बड़ी फ़िल्म जिसमें निम्नवर्ग या निम्न-मध्यमवर्ग का कोई ज़िक्र नहीं है। जब ये भारत के सबसे बड़े तबके की प्रतिनिधि कहानी नहीं तो मैं क्यों पॉजिटिव महसूस करूं? ज़्यादा से ज़्यादा ये फ़िल्म क्या करना चाह रही थी? स्पेन टूरिज़्म को बढ़ावा देना चाह रही थी। इसके बीज “वाइल्ड हॉग्स”, “हैंगओवर”, “रोड ट्रिप” जैसे अनेकों अमेरिकी फ़िल्मों में छिपे थे। इसमें भारत कहीं न था। महानगरीय ऊब समस्या थी और वर्ल्ड टूअर समाधान। पैसे की कोई कमी नहीं थी। फ़िल्म के किरदारों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि क्या थी? फैशन डिजाइनिंग की स्टूडेंट, रईस परिवार की इंटीरियर डिजाइनर बेटी, लंदन स्थित फाइनेंशियल ट्रेडर, मुंबई के धनी ठेकेदार का धनी बेटा, स्पेन स्थित सफल-नामी पेंटर, दिल्ली की विज्ञापन कंपनी में कॉपी राइटर। क्या देश में ज़्यादा तादाद ऐसी पृष्ठभूमि वालों की है? क्या ये समाज के आख़िरी पंक्ति के लोगों में आते हैं? फ़िल्म बनी कितने में? 55 करोड़ रुपये से ज़्यादा में। कमाए कितने? कोई 155 करोड़। 2011 के सबसे अच्छे सिनेमा में इसे गिना गया। शीर्ष पांच निर्देशनकर्ताओं में ज़ोया अख़्तर शुमार हुईं। ये सारे मेरे सवाल थे, पर प्रेस वार्ता का माहौल बेहद खुशमिजाज और चूने पुते गालों वाला था, मैं व्यग्रता में धधकता चुप ही रहा। फिर इस दौरान बीच में कई फ़िल्में आईं जिन्होंने और ज़्यादा संताप दिया। कुछ आईं जिन्होंने संतोष दिया। कुछ आईं जिन्होंने उत्साहित किया। “छेनू” ऐसी ही थी, जब वो ‘द लाटलिए’ में चुनी गई तो मालूम चला कि मंजीत सिंह उसे बनाने वाले हैं। ऐसी कहानी दशकों के अंतराल में आती हैं। आक्रोश, बैंडिट क्वीन, पान सिंह तोमर और अब छेनू।

कहानी कुछ यूं है...
"उत्तर भारत में कहीं छेनू और उसकी बहन छन्नो परिवार के साथ
 रहते हैं। एक बार दोनों जमींदार तीर सिंह के खेत से सरसों की पत्तियां तोड़ते हुए पकड़े जाते हैं। सज़ा मिलती है। तीर सिंह छेनो की अंगुलियां काट लेता है। छेनो के परिवार को इसका न्याय नहीं मिलता। ऐसे में नक्सली नेता कोरबा के आदमी उनकी मदद को आते हैं। वे तीर सिंह का पीछा करते हैं और वह जाकर दूसरे जमींदार भगवान सिंह के गैंग के पास शरण लेता है जिसने अभी-अभी एक ट्रॉली भर अपने जाति के लोगों व रिश्तेदारों के शवों का दाह-संस्कार किया है। उन्हें नक्सलियों ने मार डाला। कोरबा छेनू को अपनी गतिविधियों में शामिल कर लेता है। धीरे-धीरे छेनू नक्सलियों के काम करने की प्रणाली सीख लेता है, उनके हथियार छुपाने के स्थान जान लेता है। इस दौरान उसके लिए कोरबा आदर्श बन जाता है। ऐसा नायक जो कमज़ोरों की रक्षा करता है। एक बार गांव के रईस और ऊंची जाति के लड़के छेनू को पीटते हैं क्योंकि वो उनके मैदान में खेल रहा होता है। गुस्से में वह पिस्तौल चलाना सीखता है। उधर भगवान सिंह बाकी जमींदारों के गैंग्स को मज़बूत करता है और एक निजी सेना बनाता है। रण सेना। उद्देश्य है नक्सलियों और उनके समर्थक दलितों से बदला लेना। ख़ूनी बदला। यहां से इस इलाके में रक्तरंजित हिंसा का कुचक्र शुरू होता है। इसी में छेनू की मासूमियत घिर जाती है और उसका रास्ता और कठिन हो जाता है।"

Manjeet Singh in a Q&A after the screening of Mumbai Cha Raja in Fribourg, Switzerland last year.


इस प्रोजेक्ट को लिख़ने वाले मंजीत सिंह की पृष्ठभूमि फ़िल्मी नहीं है। मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के बाद़ अमेरिका में आरामदायक नौकरी कर रहे मंजीत सब छोड़ 2006 में मुंबई लौट आए। फ़िल्में बनाने। अच्छी फ़िल्में बनाने। 2011 में उनकी पहली फीचर फ़िल्म “मुंबई चा राजा” को फ़िल्म बाजार गोवा के वर्क-इन-प्रोग्रेस सेक्शन में ‘प्रसाद अवॉर्ड’ मिला। अगले साल बेहद प्रतिष्ठित रॉटरडैम इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के सिनेमार्ट कार्यक्रम की प्रोड्यूसर्स लैब में इसे चुना गया। राष्ट्रीय फ़िल्म वित्त निगम ने 2012 में ही मंजीत को फ्रांस में हुए कान फ़िल्म फेस्टिवल में होनहार भारतीय फ़िल्मकार के तौर पर पेश किया। फ़िल्म जब तैयार हुई तो विश्व के ज़्यादातर शीर्ष फ़िल्म महोत्सवों में ससम्मान आमंत्रित की गई, दिखाई गई। इसी दौरान मैंने उनसे लंबी बातचीत की थी जिसे यहां पढ़ सकते हैं। 2012-13 की शीर्ष पांच भारतीय स्वतंत्र फ़िल्मों में “मुंबई चा राजा” थी। फ़िल्म पर दिग्गज भारतीय फ़िल्मकार सत्यजीत रे का असर साफ था, ऐसा असर जिसे लंबे समय से उडीका जा रहा था। एक विदेशी फ़िल्म ब्लॉगर ने तो इसे फ्रांसुआ त्रूफो की “द 400 ब्लोज़” का भारतीय जवाब तक बताया। इससे बड़ी तारीफ क्या हो सकती है? एक समीक्षक ने लिखा कि इसे देखकर सिटी ऑफ गॉडकी याद आ गई। उसने फ़िल्म को भारत से निकली शीर्ष इंडिपेंडेंट फ़िल्मों में शुमार किया। “मुंबई चा राजा” मुंबई के आख़िरी पंक्ति के बच्चों की कहानी थी। फ़िल्म-मीडिया के चंद समृद्ध लेखकों द्वारा आमतौर पर ऐसी कहानियों को पूवर्टी-पोर्न शब्द की आड़ में किनारे कर दिया जाता है। पर यहां ऐसा नहीं हो पाया। इस महानगर के दो बच्चों की आपबीती को फ़िल्म जिस मुहब्बत, खुशी, समझदारी, सिनेमाई व्याकरण, सच्चाई और सार्थकता से दिखाती है वो इसे “स्लमडॉग मिलियनेयर” जैसी फ़िल्मों के बहुत कदम आगे खड़ा करती है। यानी ये ऐसे विषय पर थी जिसे आमतौर पर फ़िल्मकार हाथ नहीं लगाते। गर लगाते हैं तो दो नतीजे निकलते हैं। पहला, एक गंभीर, निराशा भरी, प्रयोगधर्मी, कलात्मक फ़िल्म बनती है। दूसरा, गरीबी और निम्न-वर्ग का होने पर तरस खाती कमर्शियल फ़िल्म बनती है। “मुंबई चा राजा” तीसरा नतीजा लाई। ये किरदारों की कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि की जिम्मेदारी हमारे कांधों पर डालती है और उन्हें पानी में छपकने देती है, खेलने देती है, खिलने देती है। सिनेमा के ऐसे कथ्य की आलोचना नहीं की जा सकती। यही सही है। हम “मुबंई चा राजा” पर इतनी बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस फ़िल्म के ट्रीटमेंट में ही “छेनू” का ट्रीटमेंट छुपा है।

नक्सलवाद जैसे गंभीर विषय पर एक और फ़िल्म की संभावना के साथ ही कुछ चिंताएं सीधी उभर आती हैं। उसका ट्रीटमेंट क्या होने वाला है? वो ही उसे क्लीशे से बचा सकता है। “मुंबई चा राजा” देखने के बाद़ ये तो स्पष्ट हो जाता है कि उपरोक्त कहानी में जो लिखा है वो परदे पर बहुत ही समझ-बूझ के साथ आने वाला है। लेकिन फिर भी मैंने ये सवाल मंजीत के समक्ष रखा। ये कि समाज में कमज़ोर पर अत्याचार हुआ और कोई विकल्प न देख उसने हथियार उठा लिया, ख़ून कर दिया और अपराधी बन गया। ये तो बहुत क्लीशे है। सही विकल्प भी है क्या? इस पर वे कहते हैं, “फ़िल्म से कोई सॉल्युशन नहीं निकलता, न ही कोई प्रॉब्लम सॉल्व होती है। ये एक काल को डॉक्युमेंट कर रही है, जो कुछ हो रहा है उसे दर्शकों के सामने रखेगी।हिंसा से कुछ हासिल होता नहीं है। जो भी समूह हिंसा को अपनाते हैं, उन्हें मिलता कुछ नहीं है। जो कमजोर, ग़रीब है वो ही कुचला जाता है। जो लोग दुरुपयोग कर रहे हैं, उनका नुकसान नहीं होता। जैसे, दंगे होते हैं या कांड होते हैं तो उसमें कोई राजनेता तो मरता नहीं है, वही मरते हैं जो रस्ते पर रह रहे हैं या झुग्गी में रह रहे हैं या जिनके घर में घुसना आसान है। छेनू का जो जीवन-चक्र है, जो सफर है, उसमें क्रमिक ढंग से परिस्थितयां दिखाई गई हैं। ऐसा नहीं है कि उसकी बहन की अंगुलियां काट दी, वो चला गया, बंदूक उठा ली कि मैं बदला लूंगा। इसमें दिखेगा कि फिर उसकी सोच कैसे बदलती है। वह तो मासूम, अज्ञानी लड़का है। उसमें धीरे-धीरे हिम्मत आती है। सब चीज़ों का असर उसकी निजी जिंदगी पर भी होता है। इस कहानी में हम हिंसा को सेलिब्रेट नहीं कर रहे हैं। जो दहशत है, किस क़दर असर डालती है लोगों पर, मुख़्य उद्देश्य यही है दिखाने का। और ये दिखाने का है कि हमारी सोच पिछड़ी है। उसी पर अटके हैं और फिज़ूल में ख़ूनख़राबा हो रहा है। इस फ़िल्म में उपदेश नहीं होंगे, बस घटनाक्रम होगा। लोग समझते हैं और वे अपने निष्कर्ष ख़ुद निकालेंगे। हम ज़बरदस्ती संदेश देते हैं तो सब एक ही संदेश लेते हैं। मैंने देखा है कि आप दिखाओ क्या-क्या परिस्थितियां हैं तो उसमें से काफी सब-टैक्स्ट निकलते हैं। मुंबई चा राजा के वक़्त भी मैंने यही ऑब्जर्व किया, कि लोग काफी चीज़ें ऐसी पकड़ रहे हैं जो मैंने सोची भी नहीं थी। पर चूंकि मैं ऐसी कहानी सुना रहा हूं जो वाक़ये बता रही, उस पर मेरी टिप्पणी नहीं है, और लोगों को खुद का निष्कर्ष निकालने पड़ रहे हैं। इससे एक के बजाय कई निष्कर्ष निकल रहे हैं। छेनू में भी ऐसे ही होगा। लोग अपने तर्क खुद निकालेंगे कि ये बात ग़लत लग रही है मुझे। हो सकता है बनाने के दौरान मैं भी बहुत सीखूंगा”।

इस विषय पर बतौर लेखक-निर्देशक उनकी व्यापक सोच क्या है? क्या नक्सलवाद को हथियारबंद लोगों और सरकार के परिपेक्ष्य से ही देखा जा सकता है? क्या हमें या हमारे शासकों को यही सोचना चाहिए कि वे एक महामारी हैं जिन्हें हवाई हमले से ख़त्म कर देना चाहिए? क्या वे देश के विकास को रोक कर बैठे हैं? क्या प्राकृतिक संसाधन दूसरे राज्यों में बैठे हम लोगों के हैं कि उन्हीं स्थानीय लोगों के? ये समस्या कितने पक्षीय है? इन सब सवालों के प्रत्युत्तर में मंजीत कहते हैं, “स्टेट पहले निगलेक्ट करता है। लोग रोते हैं तो सुनता नहीं है। लोग सत्याग्रह भी करते हैं पर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। जब चीज़ें हाथ से बाहर हो जाती हैं तो लोग हथियार उठाते हैं। जब प्रॉब्लम आती है, फ़रियादी आते हैं, उन्हें तभी सुनकर सॉल्व कर लें तो चीज़ें आगे ही न बढ़ें। लोग भी तो उन संबंधित नेताओं को तभी फॉलो करते हैं जब तक प्रॉब्लम है। नेता भी इसीलिए हालात सुलझाते नहीं, ताकि लोग लाइनों में खड़े रहें और वोट देते रहें। फिर विचारधारा वाला पक्ष है। अगर हजार लोगों का ग्रुप है और कुछ साथ छोड़ेंगे तो ये चार ग्रुपों में बंट जाएगा, उनमें भी लीडर उग आएंगे। उनका भी विभाजन होगा तो उनमें भी लीडर निकल आएगा कि हमारी ये विचारधारा है। पर प्रॉब्लम उससे सॉल्व नहीं होती। अब कॉरपोरेट्स की बात आती है। कुछ उद्योगपति हैं। उनका तो किसी भी चीज़ को लेकर कोई नज़रिया ही नहीं है। उनको आसान पैसा चाहिए। नेता से साठ-गांठ की है, क़ब्ज़ा किया, खुदाई की और फ़ायदा लिया। कोई कॉरपोरेट सार्थक में नहीं लगाता। कोई ऐसा धांसू ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं बनाता जिससे सबका भला हो। हमारे पास सबसे इंटेलिजेंट लोग हैं। पर उस ह्यूमन रिसोर्स को गाइड करने वाला कोई नहीं है। वही कॉरपोरेट उनका शोषण कर रहे हैं। वो अमेरिकी सैलरी भी लेंगे और इंडिया से भी। जबकि हमारा देश ह्यूमन रिसोर्स में भी मजबूत है और नेचुरल रिसोर्स में भी। ये लोग विश्व के टॉप बिलियनेयर्स की सूची में शामिल होने के सपनों के अलावा लोगों के भले के लिए या देश के लिए सोचें तो सब ठीक हो सकता है। एजुकेशन सिस्टम भी ख़राबी वाला है। किसी की इनोवेटिव सोच है तो उसके लिए कोई जगह ही नहीं है। उसे भी रट्टा मारना पड़ेगा। आपकी आईआईटी प्रवेश परीक्षा है। उसमें पढ़-पढ़ कर छात्र पागल हो जाता है। वो भी दो-दो साल हर दिन 20-20 घंटे। इसमें इनोवेटिव सोच क्या है? हिंदुस्तान में ये समस्याएं हैं और राज्य अज्ञानी बना बैठा है”।

मंजीत के अब तक के दो प्रोजेक्ट सार्थक विषय वाले रहे हैं। जैसे महात्मा गांधी कहते थे, समाज के आख़िरी आदमी के हिसाब से सोचो, चुनो, नीति बनाओ... उनकी सोच भी वैसी ही है। तीसरी कहानी जो उनके ज़ेहन में है वो पंजाब के सिख दलित गायक बंत सिंह की है। उनका तीसरा चयन भी दिल को ख़ुश करता है। हालांकि इस पर काम “छैनू” के बाद ही शुरू हो पाएगा पर वे अपना रिसर्च काफी वक्त पहले ही शुरू कर चुके हैं। फिलहाल अपनी सारी ऊर्जा वे “छैनू” पर लगा रहे हैं। 2015 के आख़िर तक हम उनसे इस फ़िल्म की उम्मीद कर सकते हैं। निश्चित तौर पर इस प्रोजेक्ट के जो भी निर्मातागण और टेक्नीशियन होंगे, उनके लिए ये फ़क्र का मौका होगा। कोई संदेह नहीं कि ये 2015-16 की शीर्ष पांच फिल्मों में एक होगी।

“फ़िल्म निर्माता बनें...” नई एवं महत्वपूर्ण फ़िल्म परियोजनाओं की जानकारी देती श्रंखला है, स्वतंत्र निर्माताओं के लिए सार्थक कहानियों से जुड़ने का अच्छा मौका  है।

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Mumbai Cha Raja director Manjeet Singh is busy with his new and exciting project Chenu. This 100 min. social-political gangster drama was picked by L’Atelier of the Cinefoundation at Cannes film fest in March 2013. It was one of the fifteen projects selected across the globe for this prestigious co-production market event. It was one out of six projects selected for 3 Continents film festival’s ‘Produire au Sud’, Nantes (France) 2012 program. Now in May, 2014 the script of Chenu is in advanced stage. Canadian and French co-producers have joined in. Manjeet is in talks with some Indian co-producers. He’s also opened the gates for new independent or professional co-producers. Whoever interested can contact him at cinemanjeet@gmail.com.
 
Poster of project CHENU

This story is about the ongoing caste war between the extreme violent leftist forces the 'Naxals' and a private army of Landlords which engulfs a low caste 'dalit' teenager Chenu, when his younger sister Chano's fingers are chopped for plucking mustard leaves from a landlord's farm. Chenu loses his innocence, taking up the arms for the honor of his family and his community. All the child actors will most probably be taken from Bihar-Jharkhand or in some specific case from Mumbai. There are two very important characters, Naxal leader Korba and another strong negative character. For both characters, two powerful actors will be needed. We can expect to see two strong or established actors at the center. Music for the film will be composed by Mathias Duplessy who has done films like Peepli Live, Mumbai Cha Raja, Fakir of Venice and Arjun.

Talking about Manjeet, he’s a qualified engineer (MS, Mechanical Engineering, USA). He left his career in the USA and moved back to his hometown Mumbai to make films in 2006. NFDC selected him as a promising Indian film-maker to be promoted at Cannes, 2012. His debut film Mumbai Cha Raja, premiered at Toronto International Film festival (TIFF) 2012 and he was part of TIFF's talent lab as well. The film officially selected in Abu Dhabi, Mumbai, Palm Springs, Santa Barbara, Cinequest, Fribourg, Shanghai and many other film festivals. The film had earlier won the 'Prasad award' in 'Work in Progress' section of 'Film Bazaar' 2011,Goa, India and was selected for the 'Producer's Lab', Cinemart, International Film Festival Rotterdam, 2012.
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मैं बहुत घूमता हूं, घूमना आपकी दृष्टि (vision) खोल देता है, इससे आपकी सूचना को सोखने की क्षमता बढ़ जाती है, आप दूसरों से ज्यादा देख पाते होः सिद्धार्थ दीवान

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 Q & A..Siddharth Diwan, Cinematographer Titli, Haramkhor, Peddlers, Queen.

Siddharth Diwan
‘तितली’इस साल की सबसे प्रभावपूर्ण फ़िल्मों में से है। इसका निर्देशन कनु बहल और छायांकन सिद्धार्थ दीवान ने किया है। दोनों ही सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीविजन संस्थान से पढ़े हैं। फ़िल्म का पहला ट्रेलर इनके साथ पूरी टीम की नई दृष्टि से कहानी कहने की कोशिश दर्शाता है। इस विस्तृत बातचीत में सिद्धार्थ ने बताया है कि कैमरे के लिहाज से फ़िल्म को लेकर उनके विचार क्या थे। अपनी दिल्ली को उन्होंने अभूतपूर्व तरीके से क़ैद किया है। फ़िल्म मौजूदा कान फ़िल्म महोत्सव में गई हुई है। आने वाले महीनों में रिलीज होगी। सिद्धार्थ इसके अलावा श्लोक शर्माकी पहली फीचर फ़िल्म ‘हरामख़ोर’ का छायांकन भी कर चुके हैं, जो बहुत ही संभावनाओं भरी फ़िल्म है। ये कुछ वक्त से तैयार है लेकिन दर्शकों के बीच पहुंचने में वक्त लग रहा है। 2012 में आई वासन वाला की उम्दा फ़िल्म ‘पैडलर्स’का छायांकन सिद्धार्थ ने किया था और उनकी अगली फ़िल्म ‘साइड हीरो’ का भी संभवतः वे ही करेंगे। हाल ही में विकास बहल की ‘क्वीन’ के एक बड़े हिस्से की सिनेमैटोग्राफी सिद्धार्थ ने ही की थी। इसके अलावा वे ‘द लंचबॉक्स’, ‘कहानी’ और माइकल विंटरबॉटम की ‘तृष्णा’ जैसी फ़िल्मों के छायांकनकर्ताओं में रह चुके हैं। उन्होंने ‘द लंचबॉक्स’ फेम रितेश बत्रा की लघु फ़िल्म ‘मास्टरशेफ’ (2014) भी शूट की है।

चार बरस की उम्र से फ़िल्मों की दीवानगी पाल लेने वाले सिद्धार्थ दिल्ली से स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई के बाद कुछ साल मुंबई में अलग-अलग स्तरों पर वीडियोग्राफी और कैमरा वर्क से जुड़े रहे। काम की अधिकता के बीच उन्होंने कोलकाता के सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान से पढ़ने का मन बनाया। यहां से उनका रास्ता और केंद्रित हो गया। धीरे-धीरे वे उस मुकाम पर पहुंचे जहां देश के कुशल और भावी फ़िल्मकारों के साथ वे काम कर रहे हैं। न सिर्फ वे निर्देशकों के विचारों को शक्ल दे रहे हैं, बल्कि अपने अभिनव प्रयोग और सिनेमाई समझ भी उसमें जोड़ रहे हैं। उनके आगे के प्रोजेक्ट भी उत्साहजनक होने वाले हैं। प्रस्तुत है उनसे हुई ये बातचीतः

आपके छायांकन वाली ‘क्वीन’ को काफी सराहा गया है और ‘तितली’ को लेकर भी शुरुआती प्रतिक्रियाएं काफी अच्छी हैं। आपके पास क्या फीडबैक आ रहा है?
 रिएक्शन अच्छे आ रहे हैं। अभी तो ‘तितली’ सलेक्ट (कान फ़िल्म फेस्ट-2014 की ‘अं सर्ते रिगा’ श्रेणी में) हुई ही है। जब पहला प्रदर्शन होगा, आलोचक देखेंगे, लोग देखेंगे, तब पता चलेगा कि वे कैसे रिएक्ट करते हैं। पिछले से पिछले साल जब मेरी फ़िल्म ‘पैडलर्स’ चुनी गई थी तब भी उत्साह हुआ था। होता है क्योंकि पहला कदम था। लेकिन थोड़ा वक्त गुजरने के बाद जब पहली स्क्रीनिंग का मौका आता है तो वो तय करता है कि लोगों को कैसी लग रही है। अंतत: जनता ही मायने रखती है। तो देखते हैं। पर हां, ‘तितली’ के लिए एक अच्छी शुरुआत है। एक छोटी फ़िल्म है। बहुत मुश्किलों में, कम बजट में बनाई है। कनु के लिए भी अच्छा है, उसकी पहली फ़िल्म है।

पहली स्क्रीनिंग तो मायने रखती है लेकिन आपने भी इतनी फ़िल्में देखी हैं और ‘तितली’ को बनाते वक्त इतना अंदाजा तो होगा ही कि जो फ़िल्म बना रहे हैं उसमें ये खास बात है। ‘कान’ में चुने जाने से भी एक संकेत तो मिलता ही है। जब आप शूट कर रहे थे तो ऐसे क्या तत्व आपने इसमें पाए जो इसे 2014 के सबसे अच्छे सिनेमाई अनुभवों में से एक बना सकते हैं?
वो तो मैंने शुरू में स्क्रिप्ट पढ़ी तभी पता था। फ़िल्म की ही इसलिए कि स्क्रिप्ट बहुत अच्छी थी। नहीं तो शायद करता भी नहीं। जब मुझे कनु मिला तो शुरू में जो एक नर्वसनेस होती है पहली बार कि क्या फ़िल्म होगी? क्या है? लेकिन मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी तो मुझे कनु का विश्व दर्शन (world view) पता चला। ये फ़िल्म एक पितृसत्ता के बारे में है। समाज के दबाए गए तबके के बारे में है। ये पूरी तरह आदमी की दुनिया है। आपको बड़ी मुश्किल से फ़िल्म में औरतें नजर आएंगी। जब मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी तभी फ़िल्म की दुनिया से काफी प्रभावित हुआ। कुछ ऐसा जो हमारे बीच विद्यमान है और बहुत अंधेरे भरा है।

In a scene from Titli; Ranvir Shorey, Shashank Arora and Amit Sial
लेंस की नजर से आपने फ़िल्म को कैसे कैप्चर किया है? उसमें क्या कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो आश्चर्यचकित करेंगे?
कैमरा के लिहाज से बहुत छुपी हुई है ‘तितली’। आपको कैमरा के होने का अहसास होगा ही नहीं। कैमरा का क्राफ्ट नहीं दिखेगा। हमने बहुत अलग तरह के या अंतरंगी शॉट लेने या एंगल बनाने की कोशिश नहीं की है। पूरा विचार ही कैमरा के पीछे ये था कि पता ही न चले, काफी छुपा रहे। ठीक उसी वक्त, जो हमने फॉर्मेट चुना, कैमरा चुने, लेंस चुने, वो उस दुनिया को बड़ा करने (enhance) के लिए। क्योंकि हम ऐसे इलाकों में शूट कर रहे थे... मतलब मैं दिल्ली में पला-बढ़ा हूं और हमने जिस तरह की जगहों पर शूट किया वो मैंने खुद कभी नहीं देखी थीं। जैसे हमने बहुत सारी फ़िल्म संगम विहार में शूट की है। हमने दिल्ली की किसी भी उस जगह को नहीं लिया जो हर दिल्ली वाली फ़िल्म में दिखाई जाती है। मतलब ये दिल्ली-6 वाली दिल्ली नहीं है जहां पर किसी भी वक्त रोड पर 5000 लोग हैं, रिक्शा है, नियॉन लाइट्स हैं। ऐसा कुछ नहीं है। बहुत खाली स्पेसेज़ हैं और ये शून्य भरी जगहें विद्यमान हैं। दिल्ली की सबसे पॉश जगह के पीछे ही संगम विहार है जो अवैध कॉलोनी है। ऐसे घर हैं जो झोंपड़ियों और शहरी मकानों के बीच का संक्रमण लगते हैं। यही वो जगह है जहां से हमारे सिक्योरिटी गार्ड्स, पेट्रोल भरने वाले लोग और हाउस हेल्प आते हैं। वो यहीं पर रहते हैं। मतलब ये वो लोग हैं जो हमारे लिए दरवाजे खोलते हैं। तो ‘तितली’ में जो दुनिया दिखाई गई है वो काफी अलग है। विज़ुअली, कैमरा के लिहाज से हमने पहले न देखी गई दिल्ली दिखाने की कोशिश की है। हमारा विचार ही यही था कि वो दिल्ली दिखाएं जो सिनेमाई तौर पर एक्सप्लोर नहीं हुई है। इसलिए मैंने शूटिंग के लिए ‘सुपर 16’ (Super 16mm camera) को चुना। हमने उसके लिए बहुत सारे टेस्ट किए थे। हर ओर से बहुत दबाव है कि डिजिटल होना चाहिए, डिजिटल होना चाहिए, जबकि मैं हमेशा से बहुत मजबूती से इसके उलट सोचता रहा हूं। मैंने पहले ‘पैडलर्स’ डिजिटल पर की थी, पर ‘तितली’ के लिए ‘सुपर 16’ को चुना क्योंकि इस कहानी में हम सबसे ठोस टैक्सचर वाले लोगों को दिखा रहे हैं और मैं आश्वस्त था कि 16एमएम इस टैक्सचर को और बढ़ा देगा। इसे लेकर शुरू में हम लोग बहुत दुविधा में थे। ऐसे में मुंबई में हम ठीक वैसे इलाकों में गए जो संगम विहार जैसे थे। वहां मैंने डिजिटल और 16एमएम का तुलनात्मक टेस्ट किया। फिर इसे डायरेक्टर को दिखाया और उसके बाद हर कोई ये बात मान गया कि 16एमएम इस फ़िल्म का फॉर्मेट होगा। बाकी फ़िल्म में कैमरा दृश्यों को अति-नाटकीय बनाने की कोशिश नहीं करता बल्कि सहज रूप से कैप्चर करता है।

‘16एमएम’ के अलावा कैमरा और लेंस कौन से इस्तेमाल किए?
इसमें हमें पहले से पता था कि पूरी फ़िल्म हैंड हैल्ड होने वाली है। तो 16एमएम था। उसके भी पीछे कारण था कि छोटा कैमरा है, हल्का है। हमने ऐरी 416 (Arriflex 416) भी इस्तेमाल किया। वो कैमरा डिजाइन ही हैंड हेल्ड के लिए किया गया है। इसका आकार ही ऐसा है कि आपके कंधे पर फिट हो जाता है और शरीर का हिस्सा बन जाता है। उसके साथ हमने अल्ट्रा 16 (Ultra 16mm) लेंस इस्तेमाल किए।

श्लोक शर्मा की फ़िल्म ‘हरामख़ोर’ का भी काफी वक्त से इंतजार हो रहा है जिसमें सिनेमैटोग्राफी आपने ही की है। उसे बने हुए ही संभवत: एक साल हो चुका है। उसके निर्माण के दौरान के अनुभव क्या रहे?
उसका शूट गुजरात में किया था हमने, अहमदाबाद में। वो काफी अच्छी फ़िल्म है। मुझे पता नहीं अभी तक क्यों फ़िल्म रिलीज नहीं हो रही है, बहुत ही अच्छी फ़िल्म है। नवाज भाई (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) इसके मुख्य कलाकारों में से हैं। मुझे लगता है कि ये ऐसी फ़िल्म है जिसका हक बनता है फ़िल्म महोत्सवों की यात्रा करना। इसे भी लोग देखेंगे तभी जान पाएंगे। ये कोई आम नाच-गाने वाली फ़िल्म नहीं है। उसमें कमर्शियल एलिमेंट्स नहीं हैं। बावजूद इसके काफी एंगेजिंग फ़िल्म है। मुझे लगता है लोग इसे जरूर देखेंगे, एंटरटेनिंग भी है। वो भी विज़ुअली हमने जैसे एक्सप्लोर की है, बहुत रोचक है।

और इसके छायांकन के साथ आप कैसे आगे बढ़े?
‘हरामख़ोर’ में थोड़ी अलग अप्रोच थी। ये पूरी तरह इम्प्रोवाइज्ड फ़िल्म थी। हम लोगों ने 15 दिन में शूट की थी। इसमें दो मुख्य किरदार, जिनके जरिए फ़िल्म चल रही है, बच्चे हैं। ज्यादा से ज्यादा 12 साल के हैं। हमारा बहुत ही इम्प्रोवाइज्ड अप्रोच था जिसमें हमने एक्टर्स को कभी कुछ बोला नहीं क्योंकि हमें पता था कि ये लोग कुछ भी स्वतः स्फूर्त कर सकते हैं। कोई रिहर्सल नहीं होती थी। कुछ ऐसा नहीं होता था कि उनको बोला जाए, तुम यहां से यहां से यहां जाना, यहां से ये करना। हम उनको सीन समझाते थे और छोड़ देते थे। फिर मैं कंधे पर कैमरा लेता, उनका पीछा करता और जो भी हो रहा होता था उसे कैप्चर करता था। ये चीजों का करने का तकरीबन-तकरीबन सेमी-ड्रॉक्युमेंट्री नुमा अंदाज था। बहुत अलग तरह का फिल्मांकन रहा ये। इसमें मेरा काम काफी स्वाभाविक (instinctive) था। मैं लाइट्स वगैरह भी ऐसे जमा रहा था कि बच्चे यहां-वहां जा सकें, उपकरणों की वजह से उनकी एनर्जी कम नहीं करना चाहता था। और श्लोक भी ऐसा है। वो भी काफी ऊर्जा भरा है और अपनी एनर्जी स्क्रीन पर लाना चाहता था। मेरी लाइटिंग और लेंस इसीलिए ऐसे होते हैं कि उस एनर्जी को कैप्चर करते हैं। ‘हरामख़ोर’ में यही हमारी अप्रोच थी।

आपने अपनी शैली का जिक्र किया तो मुझे कुछ ऐसी फ़िल्में याद आती हैं जिनमें काफी लंबे दृश्य रहे। उनमें कैमरा पुरुषों को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जैसे, टोनी जा की फ़िल्म ‘टॉम-यम-गूंग’ (Tom-Yum-Goong, 2005) है जिसमें एक काफी लंबा दृश्य है जिसमें वो पांच-छह मंजिला ईमारत की सीढ़ियों पर घूम-घूम पर स्टंट करते हैं, शत्रुओं को पीटते हैं। उसके लिए फ़िल्म के जो पहले सिनेमैटोग्राफर थे वो टोनी के स्टैमिना की बराबरी नहीं कर पा रहे थे तो उनके स्थान पर किसी और को लाया गया और उसने ये पूरा सीन उतनी ही तत्परता किया। यानी चुनौती का ये स्तर आप लोगों को रहता है?
जी, रहता है। उस वक्त आपको बहुत ही तत्पर और जागरूक रहना होता है। जो अभी आप उदाहरण दे रहे हो, वो बहुत ही कोरियोग्राफ्ड सीन है जिसमें उन्होंने शायद दस दिन तो इसके बारे में सोचा होगा कि यहां से वहां कैरेक्टर जाएगा, कैमरा यहां होगा, वो उसे ऐसे फेंकेगा। लेकिन ‘हरामख़ोर’ में फर्क ये था कि इसमें हमने कोई कोरियोग्राफी डिजाइन नहीं की थी। हम नहीं चाहते थे कि कोई डिजाइन अतिक्रमण करे। क्योंकि हमारी हमेशा कोशिश रहती है कि कुछ भी डिजाइन किया हुआ न लगे। दर्शक को महसूस होना चाहिए कि जो बस सीधा कैप्चर किया गया है। तो हमारा भी तरीका मुश्किल भरा था ही, क्योंकि पता नहीं था वे लोग कहां जाएंगे? कब तक जाएंगे? कई बार टेक्स 10-10 मिनट तक चलते रहते थे। लेकिन ठीक उसी वक्त वो बहुत स्वाभाविक था क्योंकि आपको नहीं पता वो कब क्या करेंगे? इस तरह मेरा काम ज्यादा स्वाभाविक (instinctive) और सहज (intuitive) हो गया। लेंस भी जो मैंने चुने, उस हिसाब से कि कैरेक्टर कितना दूर खड़ा होगा? कहां से लाइट आएगी? ये सब ऐसी चीजें थीं जो मैंने अपने अनुभव और इनट्यूशन से कैलक्युलेट की।

अब तक आपने जितनी भी फ़िल्में की हैं, उनमें कौन सी ऐसी है जिसकी पूरी कोरियोग्राफी आपने की?
‘पैडलर्स’, ‘हरामख़ोर’ और ‘तितली’ मैंने पूरी शूट की। उसके बाद ‘क्वीन’ मैंने आधी शूट की। ‘द लंचबॉक्स’ के काफी हिस्से मैंने शूट किए। ‘कहानी’ में थोड़े से हिस्से किए। एक माइकल विंटरबॉटम की फ़िल्म है ‘तृष्णा’ (2011), उसके कुछ हिस्से किए।

एक सिनेमैटोग्राफर के तौर पर क्या ‘क्वीन’ आपको एक नया अनुभव देने वाली फ़िल्म रही? कि बॉबी बेदी ने काफी फ़िल्म शूट कर ली थी फिर उनका देहांत हो गया। उसके बाद अब उसे कहां से शुरू करना है? कैसे पढ़ना है? जो पहले के विजुअल्स हैं उन्हें कैसे जारी रखना है? दृश्यों का रंग क्या होगा? किसी अन्य छायांकनकार के सामने ऐसी चुनौतियां आती हैं तो उसे अपनी योजना के चरण क्या रखने चाहिए?
मुझे इतनी अलग परिस्थितियों का पता नहीं लेकिन ‘क्वीन’ के हालात मेरे लिए थोड़े आसान रहे। इतना लगा नहीं कि जटिल है टेक ओवर करना। एक चीज थी कि बॉबी ने जो पार्ट शूट किए थे, वो बिलकुल अलग थे। ‘क्वीन’ ऐसी फ़िल्म है कि जब शुरू होती है तो टोन, टैक्सचर और इमोशन के मामले में बिलकुल अलग फ़िल्म है। पर जैसे ही वो (कंगना) हनीमून के लिए निकलती है तो फ़िल्म का स्टाइल बिलुकल ही अलग हो जाता है। वो मेरे लिए एक फायदा हो गया। मैं जब फ़िल्म से जुड़ा तो मुझे बॉबी के किसी काम की नकल नहीं करनी पड़ी। मेरे को विकास ने बोला कि वो वैसे भी बॉबी को बोलने वाले थे कि इससे ठीक पहले उन्होंने एमस्टर्डम-पैरिस के हिस्से शूट किए थे, उन्हें भूल जाएं, ताकि दिल्ली वाले भाग को नई तरह से देख सके। जब मैं आया तो मैंने पहले क्या शूट हुआ है ये नहीं देखा था। मुझे विकास ने विकल्प दिया था कि “क्या तुम देखना चाहते हो बॉबी ने अब तक क्या फिल्माया है?” साथ ही उसने ये भी कहा कि “मैं राय दूंगा कि तू वो सब न देख। अंतिम मर्जी तेरी है। पर तू नहीं देखेगा तो ज्यादा बेहतर है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि स्टाइल वैसा ही हो”। तो मैंने इसलिए वो हिस्से देखे ही नहीं। मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी और अपना खुद का विज़न बनाया, अपना खुद का स्टाइल बनाया। जो फ़िल्म के लिए अच्छा साबित हुआ। जैसे कंगना पहले दिल्ली में रहती है और जब वो बाहर निकलती है, उसके लिए दुनिया खुलने लगती है और उसका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है और फिर स्टाइल भी बदलती है। तो उस लिहाज से मेरे लिए अच्छा था। शायद रचनात्मक तौर पर मेरे लिए उतना संतुष्टिदायक नहीं होता अगर मैं पहले के फिल्मांकन के तरीके को कॉपी कर लेता। यूं ‘क्वीन’ मेरे लिए बहुत फुलफिलिंग अनुभव बन गई।

आपने बाकी कैमरा के साथ एपिक रेड (EPIC Red) भी इस्तेमाल किया है जिसका पीटर जैक्सन के निर्देशन में बनी ‘द हॉबिट’ जैसी विशाल फ़िल्मों में इस्तेमाल हुआ है। पंजाबी फ़िल्मों में भी इस्तेमाल हुआ है। ये कैमरा कैसा है? इसका भविष्य कैसा है? बाकी कैमरा के मुकाबले आप इसे कैसे देखते हैं? कितना ताकतवर है?
काफी अच्छा कैमरा है। मैं ये नहीं कहूंगा कि किसी दूसरे कैमरा से बेहतर है या बुरा है। इसके खुद के अपने गुण हैं। अभी जो दो-तीन कैमरा हैं, जैसे सोनी एच65 (Sony XVM-H65) है या एलिक्सा (ALEXA) हो गया, उन सबमें ये कैमरा छोटा है आकार में, और हल्का है। इसकी ऐसी शारीरिक बनावट के बहुत सारे फायदे हो जाते हैं। जब आप छोटे स्पेस में काम कर रहे हो या हैंड हैल्ड कर रहे हो या स्टैडीकैम कर रहे हो, आपको छुपकर काम करना है, नजर में नहीं आना है, तो उन सब परिस्थितियों में आपको बहुत फायदा हो जाता है। पर कई बार मैं रेड को एलिक्सा पर तवज्जो देता हूं। रेड में ज्यादा फ़िल्म जैसा टैक्सचर और क्वालिटी है, ज्यादा फ़िल्मीपन है। उनमें नुकीली बारीकियां (edges) ज्यादा हैं, जिस तरह से वो स्किन टोन (skin tone) देता है। मुझे पहले बहुत से डिजिटल कैमरा से दिक्कत होती थी कि वो बहुत सपाट चित्र देते थे, उनमें कोई टैक्सचर नहीं होते थे। रेड ऐसा नहीं है, उसमें इमेज ज्यादा टैक्सचर्ड है और उसमें गहराई है। फ्लैट इमेज नहीं है। अब इसमें ही नया ड्रैगन (EPIC DRAGON) आ गया है जो चीजें काफी बदल देगा। बहुत स्टेप ऊपर चला गया है।

आपने एक बार जिक्र किया था कि “Man of Steel is a big disappointment!”, वो आपने किस लिहाज से कहा था? फ़िल्म की कहानी के या सिनेमैटोग्राफी के?
कहानी के लिहाज से। जब ट्रेलर देखा था मैंने तो मुझे बहुत प्रॉमिसिंग लगी थी। जो क्रिस नोलन (डायरेक्टर) ने ‘द डार्क नाइट’ (2008) के साथ किया था कि वो सिर्फ हीरो ही नहीं उसमें एक मानवीय तत्व भी था। तो ‘मैन ऑफ स्टील’ के ट्रेलर ने ये दिखाया लेकिन फ़िल्म देखी तो उसमें ऐसा कुछ न था। अमेरिकन फ़िल्में!

हॉलीवुड में जितनी भी विशाल और सुपरहीरो जैसी फ़िल्में आती हैं उनमें क्या डायरेक्टर से ज्यादा जिम्मेदारी सिनेमैटोग्राफर्स की हो जाती है? क्योंकि उसे अप्रत्यक्ष चीजों में से प्रत्यक्ष चीजें निकालनी पड़ती हैं। जो है नहीं उसे वैसे ही अवतरित करवाना होता है। क्या आपको लगता है कि उनमें छायांकनकार की भूमिका ज्यादा होती है और डायरेक्टर की थोड़ी सी कम होती है?
मुझे अभी ऐसा लगता नहीं। जब मैं करूंगा सुपरहीरो फ़िल्में तो हो सकता है कुछ और मानना हो जाए। लेकिन मुझे लगता नहीं कि डायरेक्टर का रोल कभी भी कम हो सकता है। अमेरिकन सिस्टम इतना मुझे पता नहीं कि वहां काम कैसे होता है लेकिन कुछेक विदेशी प्रोजेक्ट्स पर मैंने असिस्टेंट के तौर पर काम किया है, और डायरेक्टर का रोल तो हमेशा रहेगा ही। हां, सिनेमैटोग्राफर का रोल बदल जाता है, बढ़ भी जाता है, क्योंकि बहुत सारे एलीमेंट काम कर रहे होते हैं। मतलब तकनीकी तौर पर। सौंदर्य (aesthetics) और रचनात्मकता (creatively) के लिहाज से तो हमेशा ही काफी कुछ जोडऩा होता है। वो तो आप किसी भी टेक्नीशियन या किसी भी क्रिएटिव आदमी से छीन नहीं सकते। टेक्नीकली ऐसी फ़िल्मों में सिनेमैटोग्राफर का कद काफी बढ़ जाता है क्योंकि बाद में जैसा पोस्ट-प्रोडक्शन होना है उसकी पूर्व-कल्पना करते हुए शूट करना होता है। आपको ये ध्यान में रखते हुए शूट करना होता है कि बाद में क्या विज़ुअल इफेक्ट्स होंगे, क्या सीजी (कंप्यूटर जनरेटेड) वर्क होगा। ट्रिक्स, कैमरा, नई टेक्नॉलजी जो इस्तेमाल होती है, कैमरा मूवमेंट्स करने के लिए, लाइटिंग के लिए... वो सब बहुत ज्यादा जटिल, उलझाने वाला हो जाता है। इन सबको विज़ुअल इफेक्ट्स और सीजी के सामंजस्य में लेकर चलना पड़ता है। मुझे नहीं लगता डायरेक्टर का काम कम होता है, पर सिनेमैटोग्राफर का काम बढ़ जाता है। ऐसी टेक्नॉलजी भी होती है जहां आपके बेसिक्स भर से काम नहीं चलता।

कैमरा हमारे आसपास की उन आवाजों को भी सुनता है जो हमने सुननी तकरीबन बंद कर दी हैं, जो सारा कोलाहल (chaos) है उसके बीच में। और कैमरा उन चीजों को भी देखता है जो हम बेहतरीन लेंस वाली आंखें होते हुए भी नहीं देखते। एक फ्रेम में अगर हम एक चीज देख रहे हैं तो कैमरा सारी चीजें देख रहा है। ये जो परिदृश्य (phenomenon) है ये किसी फ़िल्म को बहुत ध्यान से देखते हुए नजर में आता है, आपके और उन चीजों के बीच किसी तीसरी उपस्थिति के तौर पर जो द्वितीय उपस्थिति यानी ऑब्जेक्ट्स को ज्यादा बेहतरी से स्वीकार कर रहा है। आपने इस बारे में पढ़ाई करते हुए और सिनेमैटोग्राफी करते हुए सोचा है? अब भी इसकी अनुभूति कैसे करते हैं?
मैं बहुत ट्रैवल करता हूं। मैं निजी तौर पर बहुत महसूस करता हूं कि जब हम एक ही जगह पर, उसी घर में, काम पर जाना, बाजार जाना, उस दुनिया में लंबे वक्त तक रहना, ये सब लगातार, रोज़-रोज़ करते हैं तो आपका देखना बंद हो जाता है। मतलब आप घर से निकल रहे हो, सीढ़ियों से नीचे जा रहे हो, सब कर रहे हो लेकिन चीजों को नोटिस करना बंद कर देते हो। आपके लिए सब एक ही हो गया है। आप रोज़ वो देखते हो। मैं निजी तौर पर इसलिए बहुत घूमता हूं। ये घूमना आपकी दृष्टि (vision) खोल देता है। जब नई जगहों पर जाते हो, नए कल्चर को देखते हो, नए स्थापत्य (architecture), नए चेहरे, नए लोग देखते हो, तो आपकी आंखें खुल जाती हैं और सूचना को सोखने की जो क्षमता होती है वो बढ़ जाती है। इससे आप दूसरों से ज्यादा देख पाते हो। यही वजह है कि बाहर से जब बहुत सारे लोग आते हैं और भारत को शूट करते हैं, या इंडिया से बाहर जाकर लोग शूट करते हैं तो इससे दिखता है कि दुनिया को देखने का नजरिया कितना अलग है। क्योंकि हम लोग एक बिंदु के बाद देखना बंद कर देते हैं। हम लोग फिर चल रहे हैं, कर रहे हैं, पर देख नहीं रहे, समझ नहीं रहे। इसलिए मैं हमेशा इस कोशिश में रहता हूं कि किसी न किसी बहाने बाहर चला जाऊं। ज्यादा देखने लगूं। इससे आपकी देखने और सोखने की प्रैक्टिस बढ़ जाती है।

सेट पर जाने के बाद सबसे पहले आप क्या करते हैं? आपका सबसे पहला संस्कार क्या होता है? जैसे अगर लाइटिंग की बात करूं तो बहुत से सिनेमैटोग्राफर्स का होता है कि वो एक लाइट जलाते हैं और देखते हैं फ्रेम के अंदर रोशनी का क्या हिसाब-किताब है, तो ऐसे आपने कोई अपने रिचुअल कायम किए हैं?
अभी जिस तरह की फ़िल्में मैंने की हैं उनमें मैंने लाइटिंग को चेहरों के बजाय स्पेसेज के लिए अप्रोच किया है। क्योंकि ज्यादातर फ़िल्मों में क्या होता है कि - खासतौर पर वो ग्लॉसी फ़िल्में जिनमें पूरी लाइटिंग का ध्यान चेहरों को सुंदर बनाने में होता है - मुख्य किरदार सुंदर दिखें, बाकी बस यूं ही। अभी मैं जिस तरह की फ़िल्में कर रहा था उनमें ये महत्वपूर्ण नहीं था कि कौन स्टार है, उनमें कहानी ज्यादा जरूरी थी, जिस दुनिया में, जिन स्पेसेज में हैं, वो ज्यादा जरूरी थी। तो मैं सबसे पहले ये देखता हूं कि मेरी लाइट कहां से आ रही है, स्त्रोत क्या है, वो लोगों पर कैसे पड़ेगी, परछाई कहां होगी। एक बार वो लाइट हो जाए तो फिर अगर बहुत जरूरत है तो मैं बाकी लाइट्स तय करता हूं। कुछ पतली लाइट्स बरतता हूं ताकि फ्रेम का कॉन्ट्रास्ट बदल सकूं। आपने जो सवाल किया उसके संदर्भ में एक बात ये भी है कि जितनी भी फ़िल्म मैंने की हैं उनमें दिन में हम छह-छह सात-सात और कई बार दस-दस सीन कर रहे होते हैं। बजट होते नहीं हैं। तो मैं वो रिचुअल नहीं करता हूं। तब मुझे दिमाग में ज्यादा योजनाबद्ध और सीमित होना पड़ता है। वहां जाकर आप चुन नहीं सकते कि हां भई लाओ क्या है, कैसा दिख रहा है?

आपने परछाइयों का भी जिक्र किया, कि शैडोज कहां रह रही हैं वो भी बहुत जरूरी है। तो बहुत महत्वपूर्ण कारक सिनेमैटोग्राफी में ये भी होता है। ये भी कहा जाता है कि इसमें रोशनी से ज्यादा जरूरी परछाइयां होती हैं। तो शैडोज क्या बाकी चीजों का विश्लेषण करने में जरूरी होती हैं कि उनका फ्रेम में होना भी उतना ही जरूरी होता है? या किसी और वजह से ऐसा कहा जाता है?
शैडो बहुत जरूरी है, इन द सेंस, कि फ्रेम में कितना शैडो है इससे पता चलता कि तुम फ्रेम में कितना दिखा रहे हो और कितना छुपा रहे हो। अगर लाइट तुम फेस के सामने रख रहे हो तो चेहरा पूरा दिख रहा है, सबकुछ दिख रहा है, मतलब वो कुछ कह रहा है, स्ट्राइक कर रहा है। लाइट सब्जेक्ट के दाएं या बाएं लगा दो तो चेहरे का आधा हिस्सा दिखता है और आधा नहीं दिखता, इससे नाटकीयता पैदा होती है। यही लाइट अगर ऊपर लगा दो तो आपको चेहरा तो दिख रहा है लेकिन हिस्सों में। आंखें नहीं दिखती। आपको चेहरे का आकार दिखता है, बाल वगैरह, पर आंखें नहीं दिखती। जैसे कि उन्होंने (Gordon Willis) ‘द गॉडफादर’ (1972) में किया। उससे एक नाटकीय असर पैदा होता है। तो कहां से शैडो आ रही है, क्या छुप रहा है, क्या दिख रहा है और कितना उसका घनत्व है... ये ऐसे बहुत तरह के कॉम्बिनेशन होते हैं। ऐसे एक हजार से ज्यादा कॉम्बिनेशन होते हैं जिनसे हम अलग-अलग मूड और भाव पैदा कर सकते हैं। शैडो की अहमियत बहुत मजबूत होती है।


Above - 'Dreams' artwork by Akira Kurosawa; Here - screenshot from his film 'Dreams' (1990)
दो-तीन ऐसे निर्देशक रहे हैं, ज्यादा भी होंगे, जो स्कैच और पेंटिंग्स का काफी सहारा लेते हैं। फ़िल्मों में आने से पहले वे पूरी कहानी और फ़िल्म को स्कैच के जरिए बना लेते थे। बाद में भी इसे आजमाते रहे। जैसे मार्टिन स्कॉरसेजी (Martin Scorsese) सबसे शुरुआत में अपनी फ़िल्म सीन-दर-सीन एक स्कैचबुक में हाथ से उकेर देते थे। संभवतः वे बाद में भी ऐसा करते रहे। जापान के महान फ़िल्मकार कुरोसावा (Akira Kurosawa) हैं तो वो पेंटिंग्स बहुत अच्छी बनाते थे और पेंटिंग्स में बने दृश्य को फ़िल्मों में जिंदा करते थे। मुझे ये जानने में दिलचस्पी है कि सिनेमैटोग्राफी का कोर्स करते हुए या ऐसे भी, आपने क्लासिक पेंटिंग्स का अध्ययन किया है? करने की कोशिश की है? जानने की कोशिश की है कि कैसे कोरियोग्राफ किया है उन्होंने संबंधित चित्र को? और फ़िल्मों में इन्हें पढ़ने की प्रेरणा कितनी मदद करती है? दूसरा, ये अभ्यास कितना महत्वपूर्ण है आज भी सिनेमा के छात्रों के लिए? कि देखिए एक छोटी सी पेंटिंग है जो चलायमान नहीं है, मृत है और आपके सिनेमा के चलायमान जीवित दृश्य को बनाने के लिए प्रेरित कर देती है। ये सोचते हुए ही बड़ा अचंभित करता है।
मैंने बहुत ज्यादा किया है ऐसा। इंस्टिट्यूट के टाइम पे, उससे पहले भी, अभी भी। मैं हमेशा सुनिश्चित करता हूं कि मैं ट्रैवल करूं, म्यूजियम जाऊं। और असल में मैं गया भी हूं। पिछले साल में एम्सटर्डम में वैन गॉग (Vincent van Gogh) म्यूजियम गया था। कई अन्य म्यूजियम और एक मशहूर पेंटर के घर भी गया। इसके अलावा जब हम संस्थान (Satyajit Ray Film & Television Institute: SRFTI) में थे तो इसे बहुत स्टडी करते थे। अलग-अलग पेंटर्स के वर्क को। उनसे सीखने को बहुत मिलता है। और फ़िल्मी लोगों के लिए तो अलग-अलग कारणों से। काफी ज्यादा। जैसे हमने कई आर्टिस्ट का काम देखा। मसलन, रेम्ब्रांट (Rembrandt van Rijn, 1606–1669, Dutch) और एल ग्रेको (El Greco, 1541–1614, Spanish-Greek) का, कि वे सोर्स कैसे यूज कर रहे हैं? लाइटिंग कैसे कर रहे हैं? Faces और spaces पर लाइटिंग कैसे कर रहे हैं? शैडोज कैसे हो रहे हैं? हमने डेगस (Edgar Degas, 1834–1917, French) और एडवर्ड हॉपर (Edward Hopper, 1882–1967, American) जैसे कलाकारों का काम देखा। कि कैसे वे फ्रेम में लोगों के स्थान तय कर रहे हैं? उन्हें स्थित कर रहे हैं? मुझे लगता है एडवर्ड हॉपर काफी सिनेमैटिक हैं। उनका हर फ्रेम ऐसा लगता है जैसे किसी फ़िल्म से निकाला गया दृश्य है। जो बहुत नाटकीय और सिनेमाई हैं। उसी वक्त में डेगस बैलेरीना डांसर्स को पेंट किया करते थे। कैसे वे उन डांसर्स की पोजिशनिंग करते थे? उनकी शारीरिक भाव-भंगिमा (posture) बनाते थे? उन लोगों से सीखने को बहुत कुछ है। मैं जिस संस्थान में था वहां पर तो ऐसे लोगों को बहुत ज्यादा रेफर किया जाता था। हम लोग पेंटिंग्स को देखते थे, उनके आर्टिस्टिक काम को देखते थे। काफी बार हमारा काम भी वहां से प्रेरित होता था। रंगों के लिहाज से, पोजिशन के हिसाब से, लाइटिंग के लिहाज से। कई बार हमें रेम्ब्रांट जैसे आर्टिस्टों के काम को देखने के लिए कहा जाता था। वो लोग अपने वक्त और कला के मास्टर्स थे। इन एलीमेंट्स में दिग्गज थे। साथ ही जाहिर है आपको अपना खुद का स्टाइल विकसित करना भी बहुत जरूरी होता है।

जैसे बहुत से इंडिपेंडेंट फ़िल्मकार हैं जिनके पास बजट नहीं है और बिलकुल बेसिक कैमरा हैं, वे प्रकाश के स्त्रोत के तौर पर किन-किन चीजों का इस्तेमाल कर सकते हैं? कौन से नेचुरल एलिमेंट्स, कौन सी छोटी हल्की लाइट्स, लैंप, टॉर्च... क्या-क्या?
आजकल तो कैमरा ही बहुत इवॉल्ड और बहुत आधुनिक हैं, कम रोशनी में भी बहुत संवेदनशील हैं। आप तो आइपैड की रोशनी तक बरत सकते हैं। एक पूरी फीचर फ़िल्म बनी है जिसमें उन्होंने रोशनी आइपैड से की। मैंने खुद कितनी बार टॉर्च या फोन की लाइट, या कैंडल्स या कहीं से बल्ब उठा लाए, इनकी रोशनी से काम किया है। अब तो मोटी बात इतनी ही है कि हमें बस तय करना होता है कि स्टाइल क्या है फ़िल्म की। अगर उसमें फिट बैठता है तो कोई भी ऐसी चीज यूज़ कर सकते हैं जो रोशनी का निर्माण करती है। कैमरा बहुत ही सेंसेटिव हो गए हैं। असल में मैंने एक शॉर्ट फ़िल्म की है जिसमें मैंने इस फोन की लाइट इस्तेमाल की है। जरूरी नहीं है कि बड़े एचएमआई, 1के, 2के, 5के, 18के से लाइटिंग करो। जाहिर है कुछ जगह पर जरूरी होता है। पर आज के टाइम तो बल्ब मिल जाएगा 40 वॉट का तो उससे भी लाइटिंग हो जाएगी। और हमने ‘पैडलर्स’ में वो किया है। हमने पूरी फ़िल्म में ट्यूबलाइट और बल्ब के अलावा शायद ही कुछ यूज़ किया है।

आपकी फेवरेट फॉर्म ऑफ लाइटिंग क्या है? मसलन, कुछ दिग्गज सिनेमैटोग्राफर्स को ट्यूबलाइट की रोशनी बहुत ही निर्मल लगती है और वो उन्हें अपनी फ़िल्मों के फ्रेम उतने ही निर्मल रखने पसंद होते हैं।
क्या जरूरत है, उसके हिसाब से होता है। पर मुझे प्राकृतिक रखना ही पसंद हैं। मुझे अच्छा नहीं लगता कि सोर्स ऑफ लाइट पता चले। जब दर्शकों को पता चलता कि यहां एक लाइट मार रहा है, यहां से बैकलाइट आ रही है तो मुझे निजी तौर पर ये पसंद नहीं आता। मेरे लिए रोशनी का स्त्रोत उसी हिसाब से तय होता है कि बिलुकल नेचुरल लगे। पर मैं सब यूज़ करता हूं। ट्यूबलाइट, मोमबत्ती की रोशनी, आग... कुछ भी। सत्यजीत रे की फ़िल्मों की बात करें तो उनकी फ़िल्मों के व्याकरण में रोशनी के लिए सबसे ज्यादा किन तत्वों का इस्तेमाल हुआ है? धूप का? जैसे ‘पाथेर पांचाली’ (1955) में दोनों बहन-भाई खेत में से रेलगाड़ी देखने जा रहे हैं और सामने से चिलचिलाती धूप की रोशनी खेत में खड़ी फसल के बीच से छन-छन कर आ रही है। इसका जिक्र संभवत: मार्टिन स्कॉरसेजी ने एक बार किया है कि उन्हें ये दृश्य बेहद पसंद है और रोशनी के ऐसे इस्तेमाल की वजह से ही। - शुभ्रतो मित्रो जो सत्यजीत रे के डीओपी (director of photography) थे उन्होंने तो सॉफ्टबॉक्स और बाउंसलाइटिंग का पूरा परिदृश्य - जो आज इतना फेमस है, हर कोई उसे यूज़ करता है - शुरू किया था। इसी ने उन फ़िल्मों को बेहतर बनाया। ब्लैक एंड वाइट एरा में कठोर लाइट्स, कठोर परछाइयों और कठोर बैकलाइट्स का बोलबाला था। ये शुभ्रतो मित्रो और सत्यजीत रे ही थे जिन्होंने रोशनी के इस प्राकृतिक (naturalistic) तरीके का भारतीय फ़िल्मों से परिचय करवाया था। क्योंकि प्रकृति में कई सारी नर्म रोशनियां (soft lights) होती हैं। जैसे सूरज की रोशनी बहुत कठोर होती है लेकिन वो बहुत सी सतहों पर पड़ती है और जमीन, कपड़ों व अनेक चीजों से टकराकर उछलती है जो कई नर्म रोशनियों का निर्माण करती है। तो ये फिनोमेनन ही इन दो लोगों ने शुरू किया था। वो लाइट को बाउंस करते थे। जैसे घर के अंदर बैठे हैं, शाम है, तो सूरज सीधे अंदर नहीं आएगा। उसकी किरण जमीन से टकराएंगी और वहां से उछलकर अंदर आएगी। नहीं तो अगर आप पुरानी ब्लैक एंड वाइट फ़िल्में देखें तो हर वक्त चाहे रात हो या दिन हो, एक्टर के चेहरे पर मोटी लाइट रहती थी या बैकलाइट होती थी। ऐसा लगता था सूरज सीधा अंदर आ रहा है, चाहे दिन का कोई भी वक्त हो। लेकिन मित्रो ने इसे बदला। उन्होंने नेचुरलिस्टिक अंदाज अपनाया। शाम का वक्त है तो सूरज की साफ्ट लाइट अंदर आएगी। पश्चिम की तरफ मुंह किया है तो अंदर आएगा। दोपहर में सूरज अंदर नहीं आएगा, सिर्फ बाऊंस लाइट आएगी।

इन दिनों ये बहस भी जारी है कि ‘2के’ (2K - resolution) पर्याप्त है और ‘4के’ (4K - resolution) जरूरी नहीं है। वो इंडि फ़िल्मकारों के लिए सुविधाजनक होने के बजाय चुनौतियां रच देता है। अनचाहे ढंग से जगह ज्यादा घेरता है। जबकि ‘2के’ और ‘4के’ के लुक में ज्यादा फर्क भी नहीं है। एक तो इस बारे में आपका क्या मानना है? दूसरा, फ़िल्म स्टॉक की गहनता और सघनता का मुकाबला डिजिटल का ‘2के’ या ‘4के’ कर सकता है क्या?
मुझे नहीं लगता कि अभी तक फ़िल्म स्टॉक वाली गुणवत्ता हासिल हो पाई है डिजिटल में। लेकिन उसी वक्त मैं ये भी नहीं कहूंगा कि वो उससे कम है। डिजिटल की अपनी खुद की एक क्वालिटी है और टैक्सचर है। तो 35 एमएम से उसकी तुलना करने का कोई कारण और बिंदु नहीं है। और मुझे नहीं लगता कि डिजिटल को कभी भी फ़िल्म स्टॉक का विकल्प माना जाना चाहिए। हमें ये कतई नहीं कहना चाहिए कि अब हमें फ़िल्म की जरूरत नहीं है। डिजिटल का अपना लुक है, फ़िल्म का अपना लुक है। ये तो वही बात हो गई कि पोस्टर कलर से कर रहे हो या वॉटर कलर से कर रहे हो या किससे कर रहे हो? अलग-अलग टैक्सचर है। यहां तक कि डिजिटल में भी सब कैमरों के अलग भाव हैं। एलिक्सा का अलग है, रेड का अलग है, सोनी का अलग है, 35एमएम का अलग है, 16एमएम का अलग है। हकीकत यह है कि ये पूरी तुलना केवल उन्हीं लोगों द्वारा की जाती है जो पैसे में लीन हैं। जो इस तकनीक के अर्थशास्त्र में शामिल हैं। मुझे लगता है हमारे लिए कोई तुलना नहीं है। डिजिटल भी अच्छा है और फ़िल्म भी। अगर आप सुपर16 को सैद्धांतिक रूप से देखें तो संभवत: ये कमतर माध्यम माना जाएगा। इसका नेगेटिव छोटा है, इसके साथ कई मसले हैं। इन लिहाज से ये 35एमएम और कुछ हद तक रेड से कमतर है। पर मैंने इसका उपयोग किया इसके टैक्सचर के लिए, इसके सौंदर्य के लिए, इसकी भाषा के लिए। तुलना ठीक नहीं है। सब कैमरा अच्छे हैं और सबके अपने-अपने गुण हैं।

पोस्ट-प्रोडक्शन प्रक्रिया में आप कितनी भागीदारी करते हैं, या करना चाहते हैं, या करना चाहिए? क्योंकि जब शूट करते हैं तो आपने एक अलग नजरिया रखा है और ऐसा न हो कि एडिटिंग जो कर रहा है और आप संदर्भ समझाने के लिए मौजूद न हों तो आपके पूरे काम को खराब कर दे?
इसके लिए डायरेक्टर होता है। ये एक ऐसा भरोसा होता है जो आपको डायरेक्टर में होता है। असल में पोस्ट-प्रोडक्शन में एडिटर और डायरेक्टर ही रहते हैं। ये डायरेक्टर का काम है, फ़िल्म उसका विज़न है। मैं लकी रहा हूं कि ऐसे निर्देशकों संग काम किया है जो ये सब बहुत पकड़ के साथ समझते हैं। साथ-साथ मुझे बुलाते भी हैं। ऐसा नहीं है कि पोस्ट-प्रोडक्शन का मुझे पता ही नहीं होता। मैं जाता हूं, देखता हूं एडिट्स, पर हम लोग सिर्फ संकल्पना के स्तर (conceptual) पर चर्चा करते हैं। कि काम किरदारों के विकास और कहानी के विकास के लिहाज से कैसा चल रहा है? ज्यादातर तो ये फीडबैक लेवल पर होता है। वो सब मैं करता हूं, पर एडिटिंग में यूं शामिल नहीं होता। मैं एडिटर को कभी नहीं कह सकता है क्योंकि वो उसके दायरे में दख़ल देना होगा। अगर मुझे भी शूट पर डायरेक्टर के अलावा दस लोग आकर बोलेंगे, इसका ऐसा करो, वैसा करो तुम, तो मुझे भी अच्छा नहीं लगता। तो मैं वो स्पेस देता हूं। हां, मैं फीडबैक दे सकता हूं क्योंकि मैं भी फ़िल्म का हिस्सा हूं। जितने भी लोगों के साथ मैंने काम किया है वो यही समझते हैं कि ये मिल-जुल कर करने की प्रक्रिया है। हम सब एक-दूसरे को प्रतिक्रिया देते है।

मुझे आप ये बताइए कि अगर कोई फ़िल्म स्कूल न जाए तो अच्छा सिनेमैटोग्राफर बन सकता है क्या? और फ़िल्म स्कूल के छात्रों की भी क्या सीमाएं होती हैं? आमतौर पर ये समझा जाता है कि एफटीआईआई (Film and Television Institute of India) से कोई आया है या ऐसे अन्य प्रतिष्ठित फ़िल्म संस्थानों से आया है तो उसकी सीमाएं अपार हैं, कि उनको सब समझ है। और जो बाहर से अन्य रास्तों से होता हुआ पहुंचा है उसके लिए बड़ा मुश्किल है। वो कितना भी संघर्ष कर ले, कभी उन छात्रों के स्तर तक पहुंच ही नहीं सकता क्योंकि उनके संदर्भ ही बड़े आसमानी हैं। आपको क्या लगता है फ़िल्म स्कूल बहुत जरूरी है? जिसके पास फीस नहीं है देने के लिए और जो प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुआ वो अपने सपने लेकर कहां जाए? उसके लिए आगे का रास्ता क्या है? वो कुछ भी कर सकता है?
अब वक्त बहुत अलग हो गया है। शायद आज से 15 साल पहले बोल सकता था कि फ़िल्म स्कूल वालों को जो मिलता था वो बाहर किसी को नहीं मिल सकता था। आज समय बदल गया है। पहले क्या होता था कि किसी को कुछ पढ़ना है तो किताबें ढूंढ़ने में ही महीनों लग जाते थे, या ऐसे लोग ढूंढ़ने में बड़ी मुश्किल होती थी जिनसे कुछ सीखना हो। आज इतने सारे लोग हैं अपने आस-पास जिनको इतना कुछ आता है। इंटरनेट है, किताबें है, लोग हैं, अब तो हर इक चीज पहुंच के दायरे में है। एक फ़िल्म स्कूल में आप क्या पाते हैं? बड़ी लाइब्रेरी? वो आप यहां पा सकते हो। फ़िल्मों तक पहुंच? अब आप किसी भी फ़िल्म को किसी भी कोने में हासिल कर सकते हो। ऐसे लोग जो उस फील्ड के जानकार होते हैं, उन तक पहुंचने के मामले में फ़िल्म स्कूल आगे रहते हैं। लेकिन आज के टाइम में आप जाकर उन्हें असिस्ट कर सकते हैं। आप उनके साथ काम करके अपने मुकाम तक पहुंच सकते हो। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें मैं जानता हूं जो कभी फ़िल्म स्कूल नहीं गए हैं और सिनेमैटोग्राफी सीखने में तो किसी फ़िल्म स्कूल जाने से ज्यादा जरूरी है ‘आपके सोचने का तरीका’, ‘आपके जीने का तरीका’। ऐसे खूब सारे लोग हैं जो किसी फ़िल्म स्कूल से नहीं हैं और जिन्होंने किसी को असिस्ट तक नहीं किया है, फिर भी वो बहुत बड़े नाम हैं। इसके अलावा आप हमेशा असिस्ट कर सकते हो, घर पर पढ़ सकते हो। आप फ़िल्में देख सकते हो और सीख सकते हो, आपको फ़िल्म स्कूल की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर फ़िल्म स्कूल जा सकें तो जाएं। क्योंकि मैं गया था। क्योंकि मुझे एक स्पेस चाहिए था। मैं मुंबई में था और बस काम ही काम किए जा रहा था। क्योंकि इस शहर में रहने, सीखने और पढ़ने की लागत बहुत ऊंची है। ऐसे में आपको लगातार काम करना होता है। तो मुझे वो वक्त नहीं मिल रहा था, वो स्पेस नहीं मिल रहा था। पढ़ने का, फ़िल्में देखने का, लोगों से बात करने का। इसलिए मैं फ़िल्म स्कूल गया। नहीं तो आप बिना जाए भी सब सीख सकते हैं। लेकिन अगर फ़िल्म स्कूल जा सकें और अच्छा करें तो तकनीकी तौर पर आप वो सब कर सकते हो जो कोई और नहीं कर सकता। मैं नहीं कह रहा कि गैर-फ़िल्म स्कूलों वाले लोग नहीं कर सकते, वो कर सकते हैं पर संस्थानों के लोग कुछ अतिरिक्त ला सकते हैं। उन्हें लाना भी चाहिए क्योंकि जो 3-4 साल की पढ़ाई वो करते हैं उसके बाद उन्हें वो अतिरिक्त लाना ही चाहिए। ताकि लोग उन्हें बाकियों के मामले तवज्जो दें।

अपने सर्वकालिक पसंदीदा फ़िल्म निर्देशकों के नाम बताएं?
मेरे सबसे पसंदीदा डायरेक्टर्स में से एक हैं हू साओ-सें (Hou Hsiao-Hsien)। वे ताइवान मूल के हैं। उन्होंने एक फ़िल्म बनाई थी ‘द वॉयेज ऑफ द रेड बलून’ (Flight of the Red Balloon, 2008)। एक और फ़िल्म बनाई थी ‘थ्री टाइम्स’ (Three Times, 2005)। ऐसी कई फ़िल्में हैं। ये आपको मैं समकालीनों में से बता रहा हूं। एक नूरी बिल्जी (Nuri Bilge Ceylan) हैं, तुर्की के हैं। विज़ुअली मैंने तारकोवस्की (Andrei Tarkovsky) का काम हमेशा पसंद किया है। बहुत। और डेविड लिंच (David Lynch)। कई सारे नाम हैं। बहुत-बहुत काबिल लोग रहे हैं ये। इनारितु (Alejandro González Iñárritu) हैं।

स्टैनली कुबरिक (Stanley Kubrick) और किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) के काम में भी आप कुछ प्रेरणादायक पाते हैं?
कुछ नहीं बहुत कुछ। अरे, कुबरिक तो मेरे सबसे पुराने ऑलटाइम फेवरेट्स में से हैं! और मैंने उनके बॉडी ऑफ वर्क को वाकई में पसंद किया है। निजी तौर पर भी मैं खुद कुछ उन जैसा ही करना चाहता हूं। उन्होंने अपनी हर फ़िल्म कुछ अलग एक्सप्लोर की है। उनकी एक फ़िल्म साइंस फिक्शन है, दूसरी फ़िल्म ब्लैक कॉमेडी है, तीसरी फ़िल्म हॉरर है, चौथी फ़िल्म थ्रिलर है। कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने एक ही जॉनर की फ़िल्म दोबारा की हो। उन्होंने हर जॉनर एक्सप्लोर किया है। तो मैं उन जैसा होना चाहता हूं, ये आकांक्षा रखता हूं। हमारे यहां क्या होता है कि बहुत बार लोग कहते हैं, “कॉमेडी फ़िल्म है तो फलाने डीओपी को बुलाते हैं”। “हॉरर फ़िल्म है तो उस वाले को बुलाते हैं”। “एक्शन है तो किसी और को...”। मैं वो नहीं करना चाहता कि एक तरह का काम हो। अलग-अलग तरह का काम करना चाहता हूं।

आपकी पसंदीदा फ़िल्में कौन सी हैं? ऐसी जिन्हें बार-बार देखा जाए तो सिनेमैटोग्राफी के लिहाज से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है?
एक तो ‘वॉयेज ऑफ द रेड बलून’ है, हू साओ-सें की। एक फ़िल्म मुझे बहुत पसंद है, ‘गुड बाय लेनिन’ (Good Bye, Lenin!, 2003)। फिर कुबरिक की ही फ़िल्म है... ‘अ क्लॉकवर्क ऑरेंज’ (A Clockwork Orange, 1971), मुझे बहुत पसंद है। बहुत। फिर लिंच की फ़िल्म ‘ब्लू वेलवेट’ (Blue Velvet, 1986) है। गोदार (Jean-Luc Godard) की ‘ब्रेथलेस’ (Breathless, 1960) मेरी सबसे पसंदीदा में से है।

सिनेमैटोग्राफी में कौन आपको सबसे गज़ब लगते हैं, पूरी दुनिया में? बड़े खेद की बात है कि बेहद विनम्रता और जज्बे से पूरी जिंदगी लेंस के पीछे गुजार देने वाले ऐसे कुशल लोगों को बहुत कम याद रखा जाता है। वो डायरेक्टर्स के बराबर और बहुत बार ज्यादा जानते हैं।
जी। ऐसे लोग जिनके काम को मैंने बहुत देखा है, लगातार, बहुत पसंद किया है, उनमें एक हैं मार्क ली पिंग बिन (Mark Lee Ping Bin)। भारत में शुब्रतो मित्रो। फिर गॉर्डन विलिस मेरे सबसे पसंदीदा में से एक हैं। फिर डॉरियस खोंडजी (Darius Khondji) हैं। इन्होंने ‘सेवन’ (Seven, 1995) और ‘अमूर’ (Amour, 2012) शूट कीं। बहुत सी वूडी एलन की फ़िल्में शूट की हैं।

आप डॉक्युमेंट्री फ़िल्में भी देखते हैं? बहुत ऐसी होती हैं जिनके विज़ुअल बेहद शानदार होते हैं।
हां मैं देखता हूं। जब भी मौका मिलता है या सुनने में आता है कि कोई अच्छी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म आई है। ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ फिक्शन फ़िल्म देखता हूं। हर तरह की फ़िल्म देखता हूं।

अगर कोई 8 मेगापिक्सल या 12 मेगापिक्सल वाले मोबाइल कैमरा से फीचर फ़िल्म बनाना चाहे तो क्या संभावनाएं हैं? क्या उसकी प्रोसेसिंग या पोस्ट-प्रोडक्शन में दिक्कत आती है?
नहीं, आप कर सकते हैं। लोगों ने किया भी है। बनाई है आईफोन से। उसे बड़े परदे पर दिखाया भी जा सकता है। पर वही है कि पहले उसे टेस्ट करना पड़ेगा। कि कैसा दिख रहा है, कितना ब्राइट रखने या नॉइज रखने से बड़े परदे पर विज़ुअल होल्ड कर पा रहा है? ये सब टेस्ट करना पड़ेगा। इसमें इतना आसान नहीं है कि शूट करके वहां चले गए। अपनी सेटिंग्स पर टेस्ट करने के बाद ही आपको इसमें शूट करना होगा।

क्या पूरी फ़िल्म, कैमरा की एक ही सेटिंग पर शूट होनी जरूरी है? या रैंडम सेटिंग्स पर शूट करके उसे बाद में आसानी से एडिट किया जा सकता है? तकनीकी तौर पर यह संभव है?
अगर उस फ़िल्म को एक ही सेटिंग की जरूरत है, एक ही लुक चाहिए फिर तो रैंडम करने का अर्थ ही नहीं है। उसे तो फिर एक ही सेटिंग पर करना चाहिए। अगर फ़िल्म की जरूरत है कि उसे अलग-अलग दिखना चाहिए ही तो फिर ठीक है। अन्यथा न करें। रैंडम सेटिंग का मतलब होता है कि गलती हो गई उसे मालूम नहीं कि क्या कैसे करना था। सेटिंग और रीसेटिंग होती है, कभी भी रैंडम नहीं करते।

आप अपने परिवार के बारे में बताएं। माता-पिता के बारे में। उनका योगदान क्या रहा? अपने मन का काम करने के लिए उन्होंने आपको कितनी छूट दी? या छोडऩे के लिए दबाव डाला?
मेरे माता-पिता का या परिवार में दूर-दूर तक किसी का फ़िल्मों से कोई लेना-देना नहीं है। मेरे डैड का बिजनेस है। मेरी मदर टीचर हैं। भाई सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर है। उन्हें तो कभी अंदाजा ही नहीं था कि मैं इस लाइन में घुसूंगा। यहां तक कि मुझे भी आइडिया नहीं था कि इस क्षेत्र में आऊंगा। जब घुसा और करने लगा तब हुआ। मुझे आज तक एक भी पल या दिन याद नहीं जब मेरे पेरेंट्स ने इस चीज को लेकर कभी सवाल किए या संदेह किया या बोला कि ये क्या कर रहे हो? या क्या करोगे? कैसे करोगे? कभी कुछ नहीं पूछा। उन्हें मुझमें एक किस्म का भरोसा भी था। क्योंकि मैं कभी भी कुछ भी करता था तो बहुत घुसकर करता था। गंभीरता से करता था। उन्हें यकीन था कि मैं अपना रस्ता खुद बना लूंगा, पा लूंगा। इस लिहाज से उनका सबसे बड़ा सपोर्ट यही था कि कभी जज नहीं किया मुझे, सवाल नहीं किए।

बचपन में फ़िल्में देखने जाते थे? साहित्य पढ़ते थे? कोई न कोई ऐसी चीज जरूर बचपन में होती है जो अंतत: जवानी में जाकर जुड़ती है।
हां मैं फ़िल्में बहुत देखता था। घर के पास वीडियो लाइब्रेरी होती थी। मुझे याद है वहां पर हर गुरुवार को नई वीएचएस आती थी। वो फिक्स होता था। जैसे ही लाइब्रेरी में आती थी सीधे मेरे घर आती थी। मैं हमेशा बहुत बेचैन और जिज्ञासु होता था। ऐसा नहीं होता था कि मैं एक-एक दिन में देखता था, मैं सारी उसी दिन एक साथ देख लेता था। मेरा ये रुटीन होता था। सब रैंडम चलता था। पता नहीं होता था कि कब क्या आएगी? कभी कोई कॉमेडी फ़िल्म आती थी, कभी क्लासिक आती थी, कभी हॉरर आती थी। दिल्ली में आपका घर कहां है? लाजपत नगर में।

अब तक जितनी फ़िल्में बनाई हैं उनमें सबसे ज्यादा किएटिव संतुष्टि किसे बनाकर मिली है? जो भी फ़िल्म स्कूल में सीखा था उसकी कसर किस फ़िल्म में निकाली?
फ़िल्म स्कूल में जो सीखा उसे तो सब भुलाकर ही शुरू किया। जो वहां सीखा वो कभी किया ही नहीं। मैंने अपनी हर फ़िल्म में अपने हिसाब से ही शूट किया है। बहुत ज्यादा स्ट्रगल किया। ‘पैडलर्स’ से लेकर ‘हरामख़ोर’ तक। बहुत संघर्ष था, बहुत सी रुकावटें थीं। बावजूद इसके मैंने हमेशा अपने और डायरेक्टर के हिसाब से शूट कया। ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रोड्यूसर लोगों ने कभी टोका हो, बोला हो कि ऐसे नहीं वैसे करो। हम जिस हिसाब से काम करना चाहते हैं, करते हैं। पर हां बहुत बार उपकरण नहीं होते, पैसा नहीं होता... ऐसी वित्तीय रुकावटें रही हैं।

वासन की अगली फ़िल्म (Side Hero) भी आप ही शूट करेंगे?
अभी कुछ तय नहीं है लेकिन हम लोगों को तो काम साथ में ही करना है। उसको भी मेरे साथ करना है और मेरे को भी उसके साथ करना है। क्योंकि हम लोगों की बहुत अच्छी बनती है। पर अभी पता नहीं है। मेरी और भी फ़िल्मों की बात चल रही है। अब अगर डेट्स टकराने लगीं तो पता नहीं मैं अपनी तारीखें छोड़ पाऊंगा कि नहीं। या वो अपनी फ़िल्म आगे-पीछे कर पाएगा कि नहीं। पर आशा है कि मैं उसकी फ़िल्म कर पाऊंगा।

Siddharth Diwan is a cinematographer. Director Vikas Bahl’s ‘Queen’ has been his latest release which’s garnered money and much acclaim. His upcoming ‘Titli’ is slated for its world premiere in the 'Un Certain Regard' category at the 67th Cannes Film Festival, happening right now. It has been directed by Kanu Behl. Siddharth has done cinematography for Shlok Sharma’s much awaited ‘Haraamkhor’ which is still to release. Other projects he has worked on in the past are Vasan Bala’s ‘Peddlers’, Sujoy Ghosh’s Kahaani, Michael Winterbottom’s ‘Trishna’ and Ritesh Batra’s ‘The Lunchbox.’ He hails from Delhi and lives in Mumbai.
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गॉर्डन विलिस - Godfather of cinematography!

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"I spent a lot of time on films taking things out.
Art directors would get very cross with me. If something's not
going well, my impulse is to minimalize. The impulse of most people when something's not going well is to add — too many colors, too many items on a screen, too many lights. If you're not careful, you're lighting the lighting. American films are overlit compared to European ones. I like close-ups shadowy, in profile — which they never do these days... What's needed is 
simple symmetry, but everyone wants massive coverage these 
days because they don't have enough confidence in their work 
and there are way too many cooks in the kitchen."
- Gordon Willis (1931 – 2014), cinematographer
End of the Road [1970], Klute [1971], The Godfather [1972], The Godfather Part II [1974], The Parallax View [1974], All the President's Men [1976], Annie Hall [1977], Interiors [1978], Manhattan [1979], Stardust Memories [1980], Pennies from Heaven [1981], Zelig [1983], Broadway Danny Rose [1984], The Purple Rose of Cairo [1985], The Godfather Part III [1990], The Devil's Own [1997]

पिछले इंटरव्यू में सिनेमैटोग्राफी को लेकर हुई बातों में गॉर्डन विलिस का जिक्र आया ही था। रविवार को फेलमाउथ, मैसाच्युसेट्स में उनकी मृत्यु हो गई। वे 82 बरस के थे। बेहद सीधे-सादे। जैसे सिनेमैटोग्राफर्स होते हैं। फ़िल्मों, दृश्यों और जिंदगी को लेकर उनका नजरिया बेहद सरल था। वे कहते थे कि ‘द गॉडफादर’ या ‘ऑल द प्रेजिडेंट्स मेन’ या ‘मैनहैटन’ जैसी क्लासिक्स बनाने के दौरान उन्होंने सैद्धांतिक होने की कोशिश नहीं की बल्कि सरलतापूर्वक ये सोचा कि परदे पर चीजों को दिखाना कैसे है? उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि आम धारणा को उन्होंने कभी नहीं माना। छायांकन के बारे में लोकप्रिय सोच है कि रोशनी जितनी होगी, तस्वीर उतनी ही अच्छी आएगी, या एक्सपोज़र ठीक होना चाहिए। मुख्यधारा की हिंदी फ़िल्मों में तो ऐसा हमेशा ही रहा है। गॉर्डन हमेशा अंधेरों में जाते थे। चाहे निर्देशक ख़फा हो, आलोचक या कोई और... वे करते वही थे जो उन्हें सही लगता था। वे कहते भी थे कि “कभी-कभी तो मैंने हद ही पार कर दी”। उनका इशारा दृश्यों में एक्सपोज़र को कम से कम करने और पात्रों के चेहरे पर और फ्रेम के अलग-अलग कोनों में परछाई के अत्यधिक इस्तेमाल से था। लेकिन ये सब वे बहुत दुर्लभ दूरदर्शिता के साथ करते थे। इसकी वजह से फ़िल्मों में अभूतपूर्व भाव जुड़ते थे। दृश्यों का मूड जाग उठता था। सम्मोहन पैदा होता था। कोई संदेह नहीं कि फ्रांसिस फोर्ड कोपोला की ‘द गॉडफादर’ अगर चाक्षुक लगती है, आंखों और दिमाग की इंद्रियों के बीच कुछ गर्म अहसास पैदा करती है तो गॉर्डन की वजह से। वे नहीं होते तो कोपोला की ‘द गॉडफादर सीरीज’ और वूडी एलन की फ़िल्मों को कभी भी क्लासिक्स का दर्जा नहीं मिलता।

इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े निर्देशक दृश्यों के फ़िल्मांकन की योजना बनाते वक्त सिनेमैटोग्राफर के सुझावों और उसकी कैमरा-शैली से जीवनकाल में बहुत फायदा पाते हैं। मणिरत्नम को पहली फ़िल्म ‘पल्लवी अनु पल्लवी’ में बालु महेंद्रा के सिनेमैटोग्राफर होने का व्यापक फायदा हुआ। रामगोपाल वर्मा के पहली फ़िल्म ‘शिवा’ में हाथ-पैर फूले हुए थे और एस. गोपाल रेड्डी के होने का फायदा उन्हें मिला। श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में जितना योगदान उनका है, उतना ही गोविंद निहलाणी का। वी.के. मूर्ति न होते तो क्या गुरु दत्त की ‘काग़ज के फूल’ उतनी अनुपम होती? सत्यजीत रे को शुभ्रतो मित्रो का विरला साथ मिला। गॉर्डन ने भी अपने निर्देशकों के लिए ऐसा ही किया। उन्होंने सिनेमैटोग्राफी के नियमों का पालन करने से ज्यादा नए नियम बनाए। उन्होंने किसी फ़िल्म स्कूल से नहीं सीखा, पर जो वे कर गए उसे फ़िल्म स्कूलों में सिखाया जाता है। 70 के दशक के अमेरिकी सिनेमा को उन्होंने नए सिरे से परिभाषित किया था। वैसे ये जिक्र न भी किया जाए तो चलेगा पर 2010 में उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट का ऑस्कर पुरस्कार प्रदान किया गया था। गॉर्डन के बारे में जानने को बहुत कुछ है। कुछ निम्नलिखित है, कुछ ख़ुद ढूंढ़े, पढ़े, जानें।

“वो एक प्रतिभावान, गुस्सैल आदमी था। अपनी तरह का ही। अनोखा। सटीक सौंदर्यबोध वाला सिनेमाई विद्वान। मुझे उसके बारे में दिया जाने वाला ये परिचय सबसे पसंद है कि, ‘वो फ़िल्म इमल्ज़न (रील की चिकनी परत) पर आइस-स्केटिंग करता था’। मैंने उससे बहुत कुछ सीखा”।
- फ्रांसिस फोर्ड कोपोला, निर्देशक
द गॉडफादर सीरीज, अपोकलिप्स नाओ

“गोर्डी महाकाय टैलेंट था। वो चंद उन लोगों में से था
 जिन्होंने अपने इर्द-गिर्द पसरी अति-प्रशंसा (हाइप) को वाकई में 
सच साबित रखा। मैंने उससे बहुत कुछ सीखा”।
- वूडी एलन, लेखक-निर्देशक
मैनहैटन, एनी हॉल, द पर्पल रोज़ ऑफ कायरो, ज़ेलिग

“ये कहना पर्याप्त होगा कि अगर सिनेमैटोग्राफर्स का कोई रशमोर 
पर्वत होता तो गॉर्डन का चेहरा उसके मस्तक पर गढ़ दिया जाता। ... मैं हर रोज़, हर स्तर पर काम करने वाले सिनेमैटोग्राफर्स से बात करता हूं, और सर्वकालिक महान सिनेमैटोग्राफर्स के बारे में होने वाली बातचीत में उनका जिक्र हमेशा होता है। उनकी सिग्नेचर स्टाइल थी... दृश्यों का कंपोजीशन और दृश्य के मूड वाले भाव जगाती लाइटिंग जो अकसर एक्सपोज़र के अंधेरे वाले छोर पर पहुंची होती थी। गोर्डी के शिखर दिनों में ये स्टाइल बेहद विवादास्पद थी। लेकिन बाद में कई शीर्ष सिनेमैटोग्राफर्स पर इस स्टाइल का गहरा प्रभाव रहा और आज भी है। उनके साथी उन्हें अवाक होकर देखते थे। हॉलीवुड के महानतम कैमरा पुरुषों में से एक के तौर पर उनकी विरासत सुरक्षित है”।
- स्टीफन पिज़ेलो, एडिटर-इन-चीफ, अमेरिकन सिनेमैटोग्राफर्स मैग़जीन
गॉर्डन पर लिखी जाने वाले एक किताब पर उनके साथ काम किया

“गॉर्डन विलिस मुझ पर और मेरी पीढ़ी के कई सिनेमैटोग्राफर्स पर
 एक प्रमुख प्रभाव थे। लेकिन सिनेमैटोग्राफर्स की आने वाली पीढ़ी पर भी उनके काम की समकालीनता/नूतनता उतना ही असर डालेगी”।
- डॉरियस खोंडजी, ईरानी-फ्रेंच सिनेमैटोग्राफर
माइकल हैनेके, वॉन्ग कार-वाई, वूडी एलन, रोमन पोलांस्की, जॉन पियेर जॉनेत, डेविड फिंचर और सिडनी पोलाक की फ़िल्मों में छायांकन किया

“मैं विजुअली क्या करता हूं, ये तकरीबन वैसा ही जो सिंफनी
करती है। म्यूजिक जैसा... बस इसमें अलग-अलग मूवमेंट होते हैं। आप एक ऐसी विजुअल स्टाइल बनाते हैं जो कहानी कहती है। आप
कुछ एलिमेंट दोहरा सकते हो, और फिर कुछ ऐसा नया लाते हो जो अप्रत्याशित होता है। इसका सटीक उदाहरण मेरे गुरु गॉर्डन विलिस की फ़िल्म में है। ‘द गॉडफादर’ में हर दृश्य आंख से स्तर पर शूट किया गया है। और फिर वो पल आता है जहां मार्लन ब्रैंडो बाजार में खड़े हैं और उन्हें गोली मार दी जानी है... और आप तुरंत एक ऊंचे एंगल पर पहुंच जाते हो जो आपने फ़िल्म में पहले नहीं देखा है। फिर आपको तुरंत भय का अहसास होता है... कि कुछ होने वाला है। ये इसलिए क्योंकि आपने ऐसी विजुअल स्टाइल स्थापित कर दी है जो इतनी मजबूत है कि जब भी कुछ नया या अलग घटता है तो आप सोचते हैं, अरे... ये तो अलग है - ये तो टर्निंग पॉइंट है। अगर सबकुछ, बहुत सारे, अलग-अलग एंगल से शूट होगा तो कोई संभावना नहीं कि आप ऐसी स्टाइल रच पाओगे जो कहानी कहने के तरीके के तौर पर इस्तेमाल की जा सकेगी”।
-केलब डेशनेल, अमेरिकी सिनेमैटोग्राफर,
द पेट्रियट, द पैशन ऑफ द क्राइस्ट, द नेचुरल, द राइट स्टफ, फ्लाई अवे होम, विंटर्स टेल, माई सिस्टर्स कीपर

क्राफ्ट ट्रकवेबसाइट से बातचीत में गॉर्डन विलिस
भाग-1
भाग-2

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कोई भी मुश्किल ऐसी नहीं है जिसका हल न हो और मेरा एक बड़ा उसूल है कि बड़ा फोकस नहीं रखतीः समृद्धि पोरे

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 Q & A..Samruddhi Porey, DirectorHemalkasa / Dr. Prakash Baba Amte-The Real Hero.



मला आई व्हायचय!समृद्धि पोरे की पहली फिल्म थी। इसे 2011 में सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। बॉम्बे हाईकोर्ट में सरोगेट मदर्स के मामलों से उनका सामना हुआ और उन्होंने इसी कहानी पर ये फिल्म बनाई। एक विदेशी औरत एक महाराष्ट्रियन औरत की कोख किराए पर लेती है। उसे गोरा बच्चा होता है लेकिन बाद में मां पैसे लेने से इनकार कर देती है और बच्चा नहीं देती। फिर वही बच्चा मराठी परिवेश में पलता है। आगे भावुक मोड़ आते हैं। समृद्धि कानूनी सलाहकार के तौर पर मराठी फिल्म ‘श्वास’ से जुड़ी थीं और इसी दौरान उन्होंने फिल्म निर्देशन में आने का मन बना लिया। कहां वे कानूनी प्रैक्टिस कर रही थीं और कहां फिल्ममेकिंग सीखने लगीं। फिर उनकी पहली फिल्म ये रही। अब वे एक और सार्थक फिल्म ‘हेमलकसा’ लेकर आ रही हैं। इसका हिंदी शीर्षक ये है और मराठी शीर्षक ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे – द रियल हीरो’ है। रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित समाजसेवी प्रकाश आमटे और उनकी पत्नी मंदाकिनी के जीवन पर ये फिल्म आधारित है। इसमें इन दो प्रमुख भूमिकाओं को नाना पाटेकर और सोनाली कुलकर्णी ने निभाया है। फिल्म 10 अक्टूबर को हिंदी, मराठी व अंग्रेजी भाषा में रिलीज हो रही है। विश्व के कई फिल्म महोत्सवों में इसका प्रदर्शन हो चुका है। इसे लेकर प्रतिक्रियाएं श्रद्धा, हैरत और प्रशंसा भरी आई हैं।

प्रकाश आमटे, प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा आमटे के पुत्र हैं। बाबा आमटे सभ्रांत परिवार से थे। उनके बारे में ये सुखद आश्चर्य वाली बात है कि वे फिल्म समीक्षाएं किया करते थे, ‘पिक्चरगोअर’ मैगजीन के लिए। वर्धा में वे वकील के तौर पर प्रैक्टिस करते थे। ये आजादी से पहले की बात है। वे स्वतंत्रता संग्राम में भी शामिल हुए। गांधी जी के आदर्शों से प्रभावित बाबा आमटे गांधीवादी बन गए और ताउम्र ऐसे ही रहे। उन्होंने कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा करनी शुरू की। तब समाज में कुष्ठ को कलंक से जोड़ कर देखा जाता था और इसे लेकर अस्पर्श्यता थी। आजादी के तुरंत बाद उस दौर में बाबा आमटे ने ऐसे रोगियों और कष्ट में पड़े लोगों के लिए महाराष्ट्र में तीन आश्रम खोले। उन्हें गांधी शांति पुरस्कार, पद्म विभूषण और रमन मैग्सेसे से सम्मानित किया गया। डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद अपना शहरी करियर छोड़ बेटे प्रकाश आमटे भी गढ़चिरौली जिले के जंगली इलाके में आ गए और 1973 में लोक बिरादरी प्रकल्प आश्रम खोला और आदिवासियों, पिछड़े तबकों और कमजोरों की चिकित्सा करने लगे। बच्चों को शिक्षा देने लगे। उनका केंद्र महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमाओं से लगता था और वहां के जंगली इलाकों में मूलभूत रूप में रह रहे लोगों के जीवन को सहारा मिला। उनकी एम.बी.बी.एस. कर चुकीं पत्नी मंदाकिनी भी इससे जुड़ गईं। बाबा आमटे के दूसरे पुत्र विकास और उनकी पत्नी भारती भी डॉक्टर हैं और वे भी सेवा कार्यों से जुड़ गए। आज इनके बच्चे भी गांधीवादी मूल्यों पर चल रहे हैं और अपने-अपने करियर छोड़ समाज सेवा के कार्यों को समर्पित हैं।

Cover of Ran Mitra
प्रकाश और मंदाकिनी आमटे को 2008 में उनके सामाजिक कार्यों के लिए फिलीपींस का सार्थक पुरस्कार रमन मैग्सेसे दिया गया। उनके अनुभवों के बारे में प्रकाश की लिखी आत्मकथा ‘प्रकाशवाटा’ और जंगली जानवरों से उनकी दोस्ती पर ‘रान मित्र’ जैसी किताब से काफी कुछ जान सकते हैं। जब उन्होंने गढ़चिरौली में अपने कार्य शुरू किए, उसी दौरान उन्होंने वन्य जीवों के संरक्षण का काम भी शुरू किया। आदिवासी पेट भरने के लिए दुर्लभ जीवों, बंदरों, चीतों, भालुओं का शिकार करके खा जाते थे। प्रकाश ने देखा कि उनके बच्चे पीछे भूखे बिलखते थे तो उन्होंने भोजन के बदले मारे गए जानवरों के बच्चे आदिवासियों से लेकर अपने जंतुआलय की शुरुआत की। लोक बिरादरी प्रकल्प, इस जंतुआलय और करीबी इलाके को हेमलकसा के नाम से जाना जाता है। इसी पर फिल्म का हिंदी शीर्षक रखा गया है। यहां शेर, चीते, भालू, सांप, मगरमच्छ, लकड़बग्गे और अन्य जानवर रहते हैं। प्रकाश उन्हें अपने हाथ से खाना खिलाते हैं, उनके साथ खेलते हैं और उनके बीच एक प्रेम का रिश्ता दिखता है। समृद्धि ने अपनी फिल्म में ये रिश्ता बयां किया है। महानगरीय संस्कृति के फैलाव और प्रकृति से हमारे छिटकाव के बाद जब हेमलकसा जैसी फिल्में आती हैं तो सोचने को मजबूर होते हैं कि हमारी यात्रा किस ओर होनी थी। सफलता, करियर, समृद्धि, आधुनिकता, निजी हितों के जो शब्द हमने चुन लिए हैं, उनके उलट कुछ इंसान हैं जो मानवता के रास्ते से हटे नहीं हैं। उनकी महत्वाकांक्षा प्रेम बांटने और दूसरों की सहायता करने की है। और इससे वे खुश हैं। ‘हेमलकसा/डॉ. प्रकाश बाबा आमटे – द रियल हीरो’ ऐसी फिल्म है जिसे वरीयता देकर देखना चाहिए। इसलिए नहीं कि फिल्म को या फिल्म के विषय को इससे कुछ मिलेगा, इसलिए कि हमारी जिंदगियों में बहुत सारी प्रेरणा, ऊर्जा और दिशा आएगी। खुश होने और एक बेहतर समाज बनाने की कुंजी मिल पाएगी।

इस फिल्म को लेकर समृद्धि पोरे से बातचीत हुई। प्रस्तुत हैः

फिल्म को लेकर अब तक सबसे यादगार फीडबैक या कॉम्प्लीमेंट आपको क्या मिला है?
बहुत सारे मिले। …मुझसे पहले आमिर खान प्रोडक्शंस प्रकाश आमटे जी के पास पहुंच गया था। उन्हें ये अंदाजा हो गया था कि कहीं न कहीं ये कहानी विश्व को प्रेरणा दे सकती है। मैं वहां प्रकाश आमटे जी के साथ रही 15-20 दिन। मैंने कहा, मुझे आपकी जिंदगी पर फिल्म बनानी है। उन्होंने इसके अधिकार आमिर खान जी को दिए नहीं थे, लेकिन वो सारे काग़जात वहां पड़े हुए थे। मैं सोच रही थी कि नतीजा जो भी होगा, कोई बात नहीं, क्योंकि कोई बना तो रहा है। तब मुझे अपनी पहली फिल्म के लिए दो नेशनल अवॉर्ड मिल चुके थे। ऐसे में दर्शकों को ज्यादा उम्मीदें थीं। मेरी भी इच्छा थी कि इस बार फिर किसी सामाजिक विषय पर काम करूं। दूसरी फिल्म में भी मैं समाज को कुछ लौटाऊं। इसी उधेड़-बुन में मैंने कहा, “भाऊ (प्रकाश जी को मैं इसी नाम से बुलाती हूं), कोई बात नहीं, कोई तो बना रहा है”। वे ऐसे इंसान हैं जो ज्यादा बोलते नहीं हैं, बस कोने में चुपचाप काम करते रहते हैं। लेकिन अगर सही मायनों में देखें तो इतना विशाल काम है। शेर, चीते यूं पालना कोई खाने का काम नहीं है। पर वे करते हैं। उसमें भी उन्हें सरकार की मदद नहीं है। तो मन में था कि मैं कुछ करूं। मैं सोच रही थी कि आमिर खान बैनर के लोग करेंगे तो भी ठीक। बड़े स्तर पर ही करेंगे।

Dr. Mandakini, Samruddhi & Prakash Amte
भाऊ पर 11 किताबें लिखी जा चुकी हैं, मैं सब पढ़कर गई थी। मैं जब वहां रही तो उनसे पूछती रहती थी कि ये क्या है? वो क्या है? ये कब हुआ? वो कब हुआ? इन सारे सवालों के जवाब वे देते चले जाते थे। सुबह 5 बजे हम घूमने जाते थे। साथ में शेर होता था, मंदाकिनी भाभी होती थीं। जो-जो वे करते थे, मैं करती थी। कुछ दिन बाद मैं मुंबई आ गई। सात दिन बाद में उन्होंने ई-मेल पर अपनी बायोपिक के पूरे एक्सक्लूसिव राइट्स मुझे मेल कर दिए। सारी भाषाओं के। उन्होंने कहा कि “जब समृद्धि हमारे साथ 15-20 दिन रही तो हमें लगा कि 40 साल से जो काम हम कर रहे हैं, उसे वो जी रही थी। हमें लगा कि वो बहुत योग्य लड़की है और हमारे काम को सही से जाहिर कर सकती है”। तो भगवान के इस आशीर्वाद के साथ मेरी जो शुरुआत हुई वो अच्छा कॉम्प्लीमेंट लगा।

फिल्म बनने के बाद भी कई लोगों ने सराहा। अभी मैं स्क्रीनिंग के लिए कैनेडा के मॉन्ट्रियल फिल्म फेस्टिवल गई थी जहां फोकस ऑन वर्ल्ड सिनेमा सेक्शनमें पूरे विश्व की 60 फिल्में दिखाई गईं। उनमें अपनी फिल्म ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ चुनी गई थी। भारत से ये सिर्फ एक ही फिल्म थी। और जिन-जिन की फिल्में वहां थीं, उन मुल्कों के झंडे लगाए गए थे। तिरंगा मेरे कारण वहां लहरा पाया, ये आंखों में पानी लाने वाला पल था। लंदन में थे तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने नानाजी और मुझे खास न्यौता दिया कि एक प्रेरणादायक व्यक्ति पर फिल्म बनाई है। ये सब यादगार पल हैं लेकिन जो मुझे सबसे ज्यादा बढ़िया लगा वो ये कि फिल्म बनने के बाद सिंगापुर में मैंने प्रकाश आमटे जी को पहली बार दिखाई। फिल्म शुरू होने के पांच मिनट बाद ही उनकी एक आंख रो रही थी और होठ हंस रहे थे। मैं पीछे बैठी थी, मोहन अगाशे मेरे साथ थे। उनका हाथ कस कर पकड़ रखा था क्योंकि मैं बहुत नर्वस थी। जिन पर मैंने फिल्म बनाई उन्हें ही अपने साथ बैठाकर फिल्म दिखा रही हूं, ये मेरी लाइफ का बड़ा अद्भुत पल था। फिल्म पूरी होने के बाद वे बहुत रो रहे थे क्योंकि उन्हें बाबा आमटे, अपना बचपन और बिछड़े हुए लोग जो चले गए हैं, वो सब दिख रहा था। उनकी खासियत ये है कि वे सब पर विश्वास करते हैं। चाहे सांप हो या अजगर। तो फिल्म बनाने के प्रोसेस में उन्होंने मुझे कभी नहीं टोका। उन्होंने मुझ पर जो विश्वास किया था मुझे लग रहा था कि क्या मैं उसे पूरा कर पाई हूं।

स्क्रीनिंग खत्म होने के बाद जैसे ही मैं उनके सामने पहुंची, उन्होंने मुझे एक ही वाक्य कहा, “तुमने क्या मेरे बचपन से कैमरा ऑन रखा था क्या? इतनी सारी चीजें तुम्हें कैसे पता चली? क्योंकि मैंने किसी को बताई नहीं”। मुझे ये सबसे बड़ा और उच्च कॉम्प्लीमेंट लगा। उसके बाद मुझे कोई भी अवॉर्ड उससे छोटा ही लगता है।

फिल्म के आपने नाम दो रखे, मराठी और हिंदी संस्करणों के लिए, उसकी वजह क्या थी? जैसे ‘हेमलकसा’ है, मुझे लगता है ये दोनों वर्जन के लिए पर्याप्त हो सकता था। ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ भी दोनों में चल सकता था।
बहुत ही बढ़िया क्वेश्चन पूछा आपने। कारण है। दरअसल प्रकाश आमटे जी का साहित्य मराठी में बहुत प्रसिद्ध है। देश के बाहर भी, लेकिन बाकी महाराष्ट्र और भारत में उनके बारे में ज्यादा नहीं पता है। लोग मेरे मुंह के सामने उन्हें बाबा आमटे कहते हैं। कहते हैं कि ये फिल्म बाबा आमटे पर बनाई है। बाबा आमटे ने कुष्ठ रोग से पीड़ितों के लिए बहुत व्यापक काम किया। प्रकाश जी उन्हीं के असर में पले-बढ़े और उसके बाद उन्होंने वहां एक माडिया गोंड आदिवासी समुदाय है जिसके लोग कपड़े पहनना भी नहीं जानते, उनके बीच काम किया। उनकी वाइफ मंदाकिनी सिर्फ अपने पति का सपना पूरा करने के लिए इस काम में उनके साथ लगीं, जबकि इसमें उनका खुद का कुछ नहीं था। दोनों के बीच एक अनूठी लव स्टोरी भी रही। जिस इलाके में उन्होंने काम किया वो नक्सलवाद से भरा है। वहां काम करना ही बड़ी चुनौती है। मैं भी बंदूक की नोक पर वहां रही। अब तो वे हमें जानने लगे हैं। ऐसे इलाके में जान की परवाह न करते हुए प्रकाश जी काम करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि वहां के लोगों के बच्चे बंदूक थाम लेते हैं तो पीछे लौटने का रास्ता नहीं बचता। लेकिन प्रकाश जी ने इसे भी झुठलाया है। उन्होंने इन बच्चों को इंजीनियर-डॉक्टर बना दिया है। आज कोई न्यू यॉर्क में काम कर रहा है, कोई जापान में काम कर रहा है, कोई जर्मनी में। ये ऐसे बच्चे थे जिन्हें कोई भाषा ही नहीं आती थी। उन बच्चों को लेकर पेड़ के नीचे उन्होंने स्कूल शुरू किया था, आज वो जापान जैसे मुल्कों में बड़े पदों पर हैं।

तो ये इतनी विशाल कहानी थी। पहले तो मुझे हिंदी में ये कहानी समझानी थी। मराठी में प्रकाश जी को चाहने वाले लोग हैं, तो वहां पर मुझे डॉ. प्रकाश बाबा आमटे के सिवा कोई और नाम नहीं रखना था। लोग इंटरनेशनली गूगल करते हैं और प्रकाश जी का नाम डालते हैं तो जानकारी आ जाती है। पूना, कोल्हापुर, शोलापुर में उन्हें सब नाम से जानते हैं। वहां लोग अपने बच्चों को उन पर लिखी कहानियों की किताब लाकर देते हैं। मुझे पता था मराठी में उनके नाम में ही वैल्यू है। लेकिन हिंदी के लिए मुझे लगा कि एक सामाजिक पिक्चर है वो कहीं बह न जाए। हेमलकसा क्या है? लोगों को पता ही नहीं है। उसका अर्थ क्या है? वहीं से जिज्ञासा पैदा हो जाती है। कि नाना पाटेकर इस फिल्म में काम कर रहे हैं, पोस्टर में शेर के साथ दिख रहे हैं लेकिन ये हेमलकसा क्या है? इसका अर्थ क्या है? ये जानने के लिए लोग खुद ढूंढ़ेंगे।

हेमलकसा ऐसी जगह है जो बहुत साल तक भारत के नक्शे पर ही नहीं थी। नक्सलवाद के बड़े केंद्रों में से एक था। कई स्टेट पहले मना करते थे कि ये हमें हमारे दायरे में नहीं चाहिए। आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बिलकुल किनारे पर हेमलकसा है। वहां जाने के लिए 27 नदियां पार करनी पड़ती हैं। वहां तीन नदियों का संगम है। भारत में नदियों के संगम पर ऐसी कोई जगह नहीं जहां मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा नहीं हो, लेकिन वहां पर प्रकाश आमटे जी ने होने ही नहीं दिया। वो ईश्वर सृष्टि को मानते हैं। तो मैं हेमलकसा से कहानी को जोड़ना चाहती थी। प्रकाश आमटे बोलो तो लोग सिर्फ सामाजिक कार्यों का सोचकर भूल जाते हैं। लेकिन मुझे ज्यादा से ज्यादा लोगों से हेमलकसा का परिचय करवाना था। कि इसका मतलब क्या है, ये कहां है।

ये सवाल मुझे बहुत महत्वपूर्ण तो नहीं लगता है लेकिन हर बार पूछना चाहता हूं कि सार्थक और छोटे बजट की फिल्में जब रिलीज होती हैं तो उनका सामना बॉलीवुड की करोड़ों की लागत वाली फिल्मों से होता है। क्या ऐसी फिल्मों से आपको कोई चुनौती महसूस होती है? आपका ध्यान किस बात पर होता है?
बराबर है कि लोग करोड़ों की फिल्में बनाते हैं और उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना होता है। लेकिन मुझे वैसी नहीं बनानी, पहले से ही स्पष्ट है। मेरा इस फिल्म को बनाने का पहला कारण ये था कि मुझे प्रकाश आमटे जी की कहानी में एक फिल्म की कहानी नजर आई। उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया है। हर आदमी कहता कि जो आप दिखा रहे हो वो सच में है क्या। विदेशों में स्क्रीनिंग के दौरान मुझसे बार-बार लोगों ने पूछा है। कि क्या ऐसा आदमी सच में है। मैं कहती हूं वे अभी भी जिंदा हैं। आप जाइए हेमलकसा और देखिए कैसे शेरों और भालुओं के साथ प्रकाश आमटे जी खेल रहे हैं। हम लोग जब उन जानवरों के पास जाते हैं तो वो नाखुन निकालते हैं, लेकिन उनको कुछ नहीं कहते है। क्योंकि कहीं न कहीं बॉन्डिंग है आपस में। तो ये अद्भुत कहानी है। आज भी घट रही है और लोगों को पता नहीं है। अब आपका सवाल, तो मुझे दुख नहीं होता बड़ी फिल्मों से मुकाबला करके। मेरी पहली फिल्म ने 37 अवॉर्ड जीते थे। दुनिया घूम ली। ये फिल्म भी अब तक 17 इंटरनेशनल अवॉर्ड जीत चुकी है। मॉन्ट्रियल जैसे बड़े फिल्म महोत्सवों में इसका प्रीमियर हुआ है। शिकागो फिल्म फेस्टिवल से बुलावा आया। यंग जेनरेशन के लोग ये फिल्म देखते हैं तो सुन्न हो जाते हैं, थोड़ी देर मुझसे बात नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि वे बेकार जीवन जी रहे हैं। जैसे, सिंगापुर।

वहां हमारा शो होना था। चूंकि फिल्म का नाम ऐसा था और उसमें कोई इंटरनेशनल स्टार नहीं था तो टिकट बिक नहीं रही थी। सब इंग्लिश फिल्म देखने वाले बच्चे हैं। स्क्रीनिंग से पहले कुछ सीटें खाली पड़ी थीं तो हमारे आयोजक ने कुछ अनिच्छुक युवाओं को भी बुला लिया। वो बैठ गए। फिल्म पूरी होने के बाद सेशन के दौरान वो लड़के कोने में खड़े रहे। उनके बदन में टैटू वगैरह थे और वेस्टर्न फैशन वाले अजीब कपड़े पहन रखे थे। वे खड़े रहे ताकि समय मिलने पर बात कर सकें। जब मिले तो एकदम गिल्टी फील के साथ जैसे कोई गुनाह कर दिया हो, “हम आना नहीं चाहते थे पहले तो। जबरदस्ती ही आए थे। अब लग रहा है कि हम बहुत फालतू जिए हैं आज तक। हम इंडिया से यहां आकर बस गए हैं। बहुत पैसे कमा रहे हैं। डॉलर घर भी भेज रहे हैं। हमें लगता था कि हम सक्सेसफुल हैं, पर अब लगता है जीरो हैं। ये आदमी (प्रकाश आम्टे) तो जांघिया-बनियान पहनकर भी सबसे बड़ा विनर है दुनिया का। हम तो बड़ी गाड़ियों, चमक-धमक और दुनिया घूमने को ही अपनी उपलब्धि मान रहे थे”। वे लड़के पूरी तरह सुन्न हो गए थे। उनका कहना था कि “हमें कुछ तो अब करना है”। वे आदिवासियों के बीच आकर रुकना वगैरह तो कर नहीं सकते थे तो बोले कि “एक मेहरबानी करें, हम साल में एक बार कॉन्सर्ट करते हैं, ये उसके पैसे हैं, ये प्रकाश जी को दे दें। ये हमारा एक छोटा सा योगदान हो जाएगा। आप काम कर रहे हैं, करते रहें, हमसे सिर्फ पैसे ले लें”।

लोगों की जिदंगी में ऐसे-ऐसे छोटे बदलाव भी आ जाएं तो मुझे लगता है वो मेरा सबसे बड़ा अवॉर्ड होगा। शाहरुख खान की फिल्म करोड़ों कमा रही है तो मुझे वो नहीं चाहिए। मेरी सिर्फ एक चाह है कि मेरा मैसेज लोगों तक पहुंचे। पूरी दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचे। समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो ऐसे काम कर रहे हैं। उनका संदेश लोगों तक पहुंचा सकूं तो मेरा जीवन भी सार्थक होगा।

प्रकाश जी का जीवन इस फिल्म में है, वैसे ही क्या बाबा आमटे और विकास आमटे की कहानी भी इसमें है?
Baba Amte & Prakash
पूरा आमटे परिवार ही सामाजिक कार्यों में जुटा है। हम लोग एक महीने की तनख्वाह भी किसी को नहीं दे सकते, किसी की सेवा नहीं कर सकते। मैं भी अगर जीवन के इस मुकाम पर सोचूं कि रास्ते के रोगी का घर लाकर इलाज करूं तो नहीं कर सकती। लेकिन बाबा आमटे ने वो काम किया है। वो भी अलग-अलग इतनी बड़ी कहानियां हैं कि एक फिल्म में सबको नहीं कहा जा सकता है। उनमें से मैंने प्रकाश जी की ही बायोपिक बनाई है अभी। उनके जीवन में पिता का जितना रोल होना चाहिए, भाई का जितना रोल होना चाहिए, मां का जितना रोल होना चाहिए, और बच्चों का, अभी उतना ही लिया है मैंने।

आपने नाना पाटेकर को प्रकाश जी के मैनरिज्म या अंदाज को लेकर ब्रीफ किया या सब उन्हीं पर छोड़ दिया? जैसे फिल्म में एक दृश्य है जहां वे प्रकाश आमटे जी के किरदार में आगंतुकों के सामने अपने प्रिय तेंदुओं व जंतुओं के साथ खेल रहे होते हैं।
नहीं, नहीं, नाना जी को एक्टिंग सिखाने वाला कोई पैदा नहीं हुआ है। प्रकाश आमटे और नाना बहुत सालों से एक-दूसरे को जानते हैं। बाबा आमटे के तीसरे बेटे के तौर पर नाना बड़े हुए हैं। वे तब से उस परिवार का हिस्सा हैं जब वे बतौर एक्टर कुछ भी नहीं थे। उसका फायदा मुझे फिल्म में मिला। इसके अलावा उनके जंतुआलय में जो प्राणि हैं वो अब नए हैं, तो उनके साथ काम करना था। हम लोग शूट से एक महीना पहले ही वहां चले गए थे। नाना जी ने बहुत मेहनत की। मैंने जो-जो स्क्रिप्ट में उनके किरदार के बारे में लिखा था, उन्होंने किया। जैसे, मैंने एक जगह लिखा था कि जब वे शेर के साथ नदी में नहाते हैं तो लौटते हुए उनके बदन पर टैनिंग का दाग दिखता है। तो वो टैनिंग का दाग मुझे चाहिए थे। उसके लिए भी नाना जी ने धूप में जल-जल के टैनिंग की। ऐसे बहुत सारे दृश्य और जरूरतें थीं। मेरे मन में थी। जब-जब मैंने उसे शेयर की, उन्होंने वो किया। जब तक मेरा मन संतुष्ट नहीं होता था, वे उतनी बार रीटेक्स करवाते थे। प्राणियों के साथ भी उन्होंने काफी वक्त बिताया, उन्हें खाना खिलाया, उनके साथ खेले। थोड़े बहुत शेर के नाखुन भी उन्हें लगे। पेट पर लगे, पीठ पर लगे। उनसे रिकवर होने के बाद उन्होंने फिर प्राणियों से दोस्ती बनाई। फिल्म में अगर वो शेर और तेंदुए के साथ इतने सहज दिख रहे हैं वो इसलिए कि उनकी दोस्ती पहले से ही हो चुकी है।

फिल्ममेकर क्यों बनीं? इतना जज़्बा इस पेशे को लेकर क्यों था?
मैं ये कहना चाहूंगी कि फिल्ममेकर बना नहीं जाता, फिल्ममेकर के तौर पर ही पैदा होते हैं। क्योंकि मैं वैसे पेशे से तो, आपको पता होगा, हाई कोर्ट (बॉम्बे हाई कोर्ट) में वकील हूं। मैं सरोगेट मदर विषय पर केस भी लड़ रही थी। कि कितना बड़ा कारोबार चल रहा है भारत में इस पर। जो पूरा स्कैंडल था। एक वकील के तौर पर मैं कुछ भी नहीं कर पा रही थी क्योंकि एग्रीमेंट हो चुका था दोनों मांओं में। मैंने देखा कि जो सरोगेट मदर्स यहां से भाड़े पर लेती हैं यूरोपियन लेडीज़ वो इसलिए क्योंकि अपना वजन खराब नहीं करना चाहतीं। 2002 में हमारे यहां कायदा बना। उससे सरोगेट मदर्स गैर-कानूनी नहीं है पर उनके लिए फायदेमंद भी नहीं है। पता चला कि ब्रोकर्स बहुत बीच में आ गए हैं। जितनी भी भारतीय महिलाएं अपनी कोख भाड़े पर देती थीं उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था। उनसे कहीं भी अंगूठा लगवा लिया जाता था। वो पैसे की मजबूरी में या बच्चे पालने के लिए इस ट्रेड में शामिल हो जाती थीं। कहीं भी अंगूठा लगा रही हैं, पता नहीं कितना जीरो लगता है, कितना लाख मिलता है? अभी एक प्रेगनेंसी के पीछे 10 से 12 लाख भाव चल रहा है भाड़े की कोख का। मैंने ब्रोकर्स को देखा है कि 9 लाख प्लस रखकर एक लाख उस लेडी को प्रेगनेंसी के नौ महीनों के बाद देते हैं। ये सब बहुत इमोशनल था। औरतें नौ महीने के बाद बच्चा हाथ में आता तो दूध पिलाती थीं और फिर कहती कि पैसा नहीं चाहिए बच्चा मेरा है। होता है न। गोरा बच्चा लेकर भाग गई। ये सारा कुछ इमोशनली इतना अजीब था कि मुझे लगा कहीं न कही फिल्म बनानी चाहिए। उस कहानी के साथ आगे बढ़ने के लिए मैंने खुद को फिल्ममेकिंग क्लास में डाला। फिल्ममेकिंग सीखी मुंबई यूनिवर्सिटी से। वहां मैंने एक छोटी फिल्म बनाई जो पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आई थी। मुझे भरोसा हुआ कि मैं फिल्म बना सकती हूं। ये सबसे प्रभावी माध्यम है कहानियां कहने का तो इनके जरिए समाज के लिए कुछ कर सकूं तो सबसे बढ़िया रहेगा। क्योंकि सारे लोग सिर्फ बोलते हैं। मुझे लगा चित्र के साथ बोलो तो लोग सुनते हैं।

आपके बचपन के फिल्मी इनफ्लूएंस क्या-क्या रहे? कहानियों के लिहाज से असर क्या-क्या रहे?
रोचक बात है कि मुझे खुद को भी नहीं पता। अभी मैं सोचूं कि कब से आया होगा ये सब? एक तो मेरी मम्मी बहुत पढ़ती थी। ऐतिहासिक पात्र व अन्य। वो पढ़ने के बाद रोज दोपहर को या सोते समय मुझे व मेरे छोटे भाई को कहानी बताती थी। उनके बताने का स्टाइल ऐसा था कि आंखों के सामने चित्र बन जाते थे। उन्हें मैं विजुअलाइज कर पाती थी। दूसरा, फिल्में बहुत कम देखने को मिलती थी। तुकाराम महाराज वाली या बच्चों वाली ही देखने को मिलती थी। धीरे-धीरे मम्मी-पापा के पीछे लगकर फिल्म देखना शुरू कर दिया। फिर मेरी जो चार-पांच दोस्त थीं, उन्हें बोलती थी कि तुम्हे फिल्म बताऊं कि कहानी बताऊं? अगर फिल्म बतानी है तो मैं सीनवाइज़ बताती थी कि वो ब्लैक कलर की ऊंची ऐड़ी की सैंडल पहनकर आती है और हाथ में कप होता है जिसमें पर्पल कलर के फूल होते हैं.. वही कप पिक्चर में भी होता था। मतलब पूरी की पूरी फिल्म इतनी बारीकी से ऑब्जर्व होती थी फिर दो-चार लड़कियों से आठ लड़कियां मेरी कहानी सुनने आती, फिर दस, फिर बारह, फिर सारा मुहल्ला। फिर धीरे-धीरे ये होने लग गया कि डायेक्टर का सीन कुछ और होता था और मुझे लगता था कि ये सीन ऐसा होता तो ठीक होता, ऐसी कहानी होती तो और अच्छी लगती। तो उन कहानियों में मैंने अपने इनपुट डालने शुरू कर दिए। अगर गलती से किसी ने देख ली होती फिल्म, तो कहती कि अरे ये तो कुछ और ही बता रही है। अगर 8-10 लड़कियों को कहानी में इंट्रेस्ट आने लग जाता था तो उस बेचारी को बाहर निकाल देती थी कि तेरे को नहीं सुनना तो तू जा, हमें सुनने दे। मुझे लगा कि तब से ये आ गया।

लेकिन शुरू में इस तरह आने का इरादा इसलिए नहीं बना क्योंकि हमारे यहां माहौल ऐसा था कि जो लड़के फिल्म देखने जाते हैं वो बिगड़े हुए हैं। फिल्म क्षेत्र शिक्षा का हिस्सा नहीं माना जाता था। कोई प्रोत्साहन नहीं था। तो मैंने बीएससी माइक्रो किया, लॉ की पढ़ाई की, कुछ दिन गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में काम भी किया, 15 साल प्रैक्टिस की। इन सबके बीच में लिखती रही। लिख-लिख के रख दिया। आज मेरे पास दस फिल्मों की कहानियां और तैयार हैं। इस बीच सरोगेसी वाला केस आया। इसी दौरान मैंने मराठी फिल्म ‘श्वास’ की टीम के साथ लीगल एडवाजर के तौर पर काम किया। तो एक-दो महीना उनकी मीटिंग्स में जाकर मैंने और मन पक्का कर लिया। घंटों निकल जाते थे लेकिन मैं बोर नहीं होती थी। तब मन इस तरफ पूरी तरह झुक गया।

'श्वास'का आपने जिक्र किया। अभी अगर क्षेत्रीय सिनेमा की बात करें तो मराठी में बेहद प्रासंगिक फिल्में बन रही हैं। यहां के समाज में ऐसा क्या है कि सार्थक सिनेमा नियमित रूप से आता रहता है?
यहां साहित्य बहुत है। घर में बच्चों में पढ़ने का संस्कार डाला जाता है। जैसे बंगाल में रविंद्रनाथ टैगोर का है। मुझे लगता है कि आपके बचपन से ही ये मूल रूप से आ जाता है। रानी लक्ष्मीबाई हैं, शिवाजी महाराज हैं, विनोबा भावे हैं, गांधी जी हैं, इन सबकी कहानियां स्कूली किताबों में भी होती हैं। परवरिश में वही आ जाता है। इन कहानियों से मन में भाव रहता है कि समाज के प्रति आपका कोई ऋण है और वो आपको चुकाना है।

आपने कहा कुछ कहानियां आपकी तैयार हैं। कैसे विषय हैं जिनमें आपकी रुचि जागती है? जिन पर भविष्य में फिल्में बना सकती हैं?
जैसे सात रंग में इंद्रधनुष बनता है, वैसे ही मुझे सातों रंगों की फिल्में बनानी हैं। मुझे कॉमेडी बनानी है, हॉरर बनानी है, लव स्टोरी बनानी है... लेकिन सब में कुछ ऐसा होगा कि तुम्हारी-मेरी कहानी लगेगी। ऐसा नहीं लगेगा कि तीसरी दुनिया की कोई चीज है। फिल्में ऐसी बनाऊं जो बोरियत भरी भी न हों। पर उनमें सार्थकता होती है। असल जिंदगी में लोग मुझसे रोज मदद मांगते हैं तो लगता है कहीं न कहीं मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि लोगों के काम आ पा रही हूं। वो आते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये पूरा कर सकती है। कोई आपको मानता है ये बहुत बड़ा सम्मान है। मुझे लगता है सामाजिक फिल्में बनाने के कारण लोगों का मेरी ओर देखने का नजरिया ऐसा हो गया है। तो मैं उसे भी कम नहीं होने देना चाहती। एंटरटेनमेंट के क्षेत्र में हूं तो मनोरंजन तो करना ही चाहिए लेकिन इसके साथ आपको कुछ (संदेश) दे भी सकूं तो वो मेरी उपलब्धि है।

दुनिया में आपके पसंदीदा फिल्ममेकर कौन हैं?
मैं ईरानियन फिल्मों की बहुत मुरीद हूं। माजिद मजीदी की कोई भी फिल्म मैंने छोड़ी नहीं है। उनकी फिल्में सबसे ज्यादा अच्छी लगती हैं मुझे।

भारत में कौन हैं? सत्यजीत रे, बिमल रॉय, वी. शांताराम?
जी। मैंने सभी फिल्में तो इनकी नहीं देखी हैं लेकिन वी. शांताराम जी की ‘दो आंखें बारह हाथ’ बहुत अच्छी है। इतने साल पहले, ब्लैक एंड वाइट के दौर में, ऐसा सब्जेक्ट लेकर बनाना, हैट्स ऑफ है। बारह कैदियों को लेकर, एक लड़की, मतलब सारी चीजें हैं। कैसे वो आदमी सोच सकता है। उस जमाने में। जब सिर्फ रामलीला और ये सारी चीजें चलती थीं।

आप इतने फिल्म फेस्टिवल्स में गई हैं। वहां दुनिया भर से आप जैसे ही युवा व कुशल फिल्मकार आते हैं। उनकी फिल्मों, विषयों और स्टाइल को लेकर अनुभव कैसा रहा? उनका रिएक्शन कैसा रहा?
सबसे पहले तो बहुत गर्व महसूस होता है कि मराठी फिल्ममेकर बोलते ही लोगों के देखने का नजरिया बदल जाता है। क्योंकि देश से बाहर क्या है, बॉलीवुड, बस बॉलीवुड और बॉलीवुड मतलब सपने ही सपने। फिल्म फेस्टिवल्स में जाकर कहती हूं कि मराठी फिल्ममेकर हूं तो उनके जेहन में आता है कि तब कुछ तो अलग सब्जेक्ट लेकर आई होगी। अन्य देशों के फिल्ममेकर्स की फिल्में देखकर लगता है कि टेक्नीकली वे बहुत मजबूत हैं। बाहरी मुल्कों में यंगस्टर्स इतनी नई सोच लेकर आते हैं, समझौता जैसे शब्द वे नहीं जानते कि भई काम चला लो। नहीं। वे बहुत प्रिपेयर्ड होते हैं, उनका टीम वर्क दिखता है। यही लगता है कि हमारे पास इतने ज्यादा आइडिया और कहानी होती हैं लेकिन हम टेक्नीक में कम पड़ जाते हैं। बजट की दिक्कत होती है। ये सब हल हो जाएगा तो न जाने हिंदुस्तानी फिल्में क्या करेंगी।

और एक बहुत जरूरी बात मुझे कहनी है कि जब हम भारत से बाहर जाते हैं तो एक होता है कि फिल्मों से आपके देश का चित्र तैयार हो जाता है लोगों के मन में। तब बाहर ‘डेल्ही बैली’ या ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’, कोई फिल्म लगी थी। उसे सभी ने देखा। उसमें मुझे लगा कि अतिशयोक्ति की गई। जैसे पोट्टी में वो बच्चा भीग गया, ऐसे कहीं नहीं होता है हमारे यहां। ठीक है, गरीबी है हमारे यहां पे, पर ऐसा नहीं होता है। वे गलत दिखा रहे हैं और कैश कर रहा है बाहर का आदमी। ये मुझे अच्छा नहीं लगा। ये हमारी जिम्मेदारी है। जैसे डॉ. प्रकाश बाबा आमटे जिन्होंने भी देखी है, उन्हें लगा है कि एक पति-पत्नी का रिश्ता ऐसा भी हो सकता है। हमारे देश का ये इम्प्रेशन कितना अच्छा जाता है। जबकि उन फिल्मों में किरदार और युवा इतनी गंदी भाषा इस्तेमाल कर रहा है। इससे बाहर के लोगों व दर्शकों में चित्रण जाता है कि भारत में आज का युवा ऐसा है। मुझे लगता है कि ये हम फिल्मकारों की जिम्मेदारी है कि ऐसा नहीं होना चाहिए।

गुजरे दौर की या आज की किन महिला फिल्ममेकर के काम का आप बहुत सम्मान करती हैं?
मुझे लगता है कि स्त्री भगवान ने बहुत ही प्यारी चीज बनाई है। वो क्रिएटर है। दुनिया बना सकती है। आपको जन्म देने वाली मां है, जननी है। वो सुंदर है। मन से सुंदर है, तन से सुंदर है। वो जो करती है अच्छा। मुझे लगता है कि इंडिया में जितनी भी लेडी फिल्ममेकर्स हैं वो कुछ नया लेकर आती हैं। कुछ सुंदरता है उनके काम में। पहले की बात करूं तो मैंने सईं परांजपे की फिल्में देखी हैं। बहुत सारी महिला फिल्मकार हैं जिनमें मैं बराबर पसंद करती हूं। सुमित्रा भावे हैं। नंदिता दास भी कुछ अलग बनाती हैं। दीपा मेहता हैं। इनमें मैं खुद को भी शामिल करती हूं।

‘हेमलकसा’ बनाने के बाद आपकी निजी जिंदगी में क्या बदलाव आया है? क्या व्यापक असर पड़ा है?
बहुत फर्क पड़ा है। मैंने 6 बच्चे गोद लिए हैं। मेरी खुद की दो बेटियां हैं। उन 6 बच्चों को घर पर नहीं लाई हूं पर पढ़ा रही हूं। बहुत से लोगों को प्रेरित किया है कि आप बच्चों की एजुकेशन की जिम्मेदारी ले लो, पैसा देना काफी नहीं है। मैं इन बच्चों को प्रोत्साहित करती हूं। बच्चों को जब दिखा कि कोई हम पर ध्यान दे रहा है, डांट रहा है, पढ़ाई का पूछ रहा है तो उनमें इतना बदलाव आया है। आप ईमारतें बना लो, कुछ और बना लो लेकिन बच्चों को अच्छा नागरिक बनाओ तो बात है। उन्हें बनाना नए भारत का निर्माण हैं। इन छह बच्चों में से कोई आकर कहता है कि मुझे मैथ्स नहीं पढ़नी है, मुझे फुटबॉल खेलना है। उस आत्मीयता में जो आनंद है वो मैं बता नहीं सकती। मेरी लाइफ में विशाल परिवर्तन हो गया है।

छोटा सा आखिरी सवाल पूछूंगा, आपकी जिदंगी का फलसफा क्या है? निराश होती हैं तो खुद से क्या जुमला कहती हैं?
कोई भी प्रॉब्लम ऐसी नहीं है जिसका सॉल्यूशन न हो। विचलित न हों। मेरी जिंदगी का एक बड़ा उसूल है कि मैं बड़ा फोकस नहीं करती हूं। मेरा ये फोकस नहीं है कि राष्ट्रपति के पास जाकर आना है। मैं छोटे-छोटे गोल तय करती हूं। वो एक-एक करके पाती जाती हूं। इसके बीच कुछ भी हो तो शो मस्ट गो ऑन। छोटी-छोटी चीजें हैं, सुबह ड्राइवर नहीं आया तो खुद गाड़ी चला हो। बाई नहीं आई तो चलो ठीक है, आज ब्रेड खा लो। कोई बड़ी मुश्किल नहीं होती। ये छोटी-छोटी बातें हैं जिन्हें हम बड़ा बनाते हैं। दूसरा, मेरी डायल टोन भी है, “आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें जिंदगी बिता दो”। जीभर जिओ। खुद भी खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखो।

Samruddhi Porey is a young Indian filmmaker. She is a practicing lawyer in Mumbai High court as well. Her first film 'Mala Aai Vhaychhy' won the National Award for Best Marathi Film. Now her second movie 'Hemalkasa / Dr. Prakash Baba Amte - The Real Hero' is releasing on October 10. This film is based on Dr. Prakash Baba Amte, a renowned social worker and enviornmentalist from Maharashtra in India. Prakash and his wife Dr. Mandakini Amte has been presented the Ramon Magsaysay Award for community leadership, a few years back. Amte family is an inspiration for people across India and around the world. Nana Patekar and Sonali Kulkarni has played the lead roles in the movie.
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मेरा स्ट्रगल था कि असलम को मारा जाए कि नहीं; (भोभर और गिलहरी के बाद) ‘जेड प्लस'में मुझे लगा कि ...मैं हमेशा उम्मीद खत्म नहीं कर सकता: रामकुमार सिंह

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 Q & A..Ramkumar Singh, writer (Zed Plus).

Dr. Chandraprakash Dwivedi, Adil Hussain and Mona Singh on the sets of Zed Plus.
दोवर्ष पहले बिना किसी स्टूडियो या व्यवस्था की मदद के उन्होंने और निर्देशक गजेंद्र श्रोत्रिय ने मिलकर राजस्थानी फिल्म ‘भोभर'बनाई थी। ‘भोभर'यानी राख में दबी चिंगारी। कहानी, संवाद और गाने रामकुमार सिंह ने लिखे थे। राजस्थानी सिनेमा में 1947 के बाद सेबीरा बेगो आइजे रे, बाई चाली सासरिये, बाबा रामदेव, नानी बाई रो मायरो, दादोसा री लाडली, रमकूड़ी-झमकूड़ी, सुपातर बीनणीऔर वीर तेजाजीजैसी एक-डेढ़ दर्जन फिल्में ही बेहद लोकप्रिय हुई हैं। ये और ऐसी कई अन्य धार्मिक-पारिवारिक मूल्यों वाली ही रहीं। भौगोलिक रूप से राज्य बहुत बड़ा और विविधता भरा है, दूसरा फिल्मों को लेकर यहां का सामाजिक नजरिया उत्साहजनक कभी नहीं रहा है। ऐसे में न तो कोई व्यावसायिक ढांचा खड़ा हो पाया, न ही यहां के विमर्श में फिल्में कभी रहीं। ऐसे में ‘भोभर'आई। इसका विषय धार्मिक न था। पारिवारिक और ग्रामीण था लेकिन दकियानूसी न था। फिल्म में नैतिकता को लेकर सवाल खड़े किए गए। प्रस्तुति में भी प्रयोग करने की कोशिश हुई। इस प्रयास को सराहना मिली, हालांकि राज्य में व्यापक तौर पर उतनी नहीं जितनी मिलनी चाहिए थी। खैर, दो वर्षों बाद रामकुमार ने हिंदी सिनेमा में प्रवेश कर लिया है।

उनकी लिखी कहानी पर डॉ. चंद्रप्रकाश  द्विवेदी ने फिल्म ‘जेड प्लस'का निर्देशन किया है। स्क्रिप्ट दोनों ने मिलकर लिखी है। फिल्म 28 नवंबर को रिलीज हो गई है और प्रतिक्रियाएं अच्छी रही हैं। इस राजनीतिक व्यंग्य को सराहा गया है। हालांकि बीच में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा यूए सर्टिफिकेट देने को लेकर आपत्ति की गई। फिल्म में संभवत: पांच जगह कैंची लगाने को कहा गया। इसके थियेटर प्रदर्शन के ट्रेलर को भी समय पर मंजूर नहीं किया गया जिससे रिलीज की तारीख एक हफ्ते आगे खिसकानी पड़ी। अंत में सेंसर बोर्ड के फैसले के विरुद्ध द्विवेदी रिव्यू कमिटी के समक्ष गए। वहां उन्होंने अपनी बात रखी। फिल्म में प्रधानमंत्री मुर्दाबाद शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति की गई थी। एक अन्य डायलॉग कि ‘प्रधानमंत्री कभी गलत नहीं हो सकते'पर आपत्ति की गई। द्विवेदी ने कमिटी को संदर्भ और अर्थ समझाए तो बहुमत से फिल्म को यूए सर्टिफिकेट दे दिया गया। इसमें आदिल हुसैन (इंग्लिश विंग्लिश, लाइफ ऑफ पाई, लुटेरा),मोना सिंह, संजय मिश्रा, मुकेश तिवारी, कुलभूषण खरबंदा, राहुल सिंह, शिवानी टंकसाळे, के. के. रैना व अन्य कलाकारों ने काम किया है।

फिल्म की रिलीज से पहले रामकुमार सिंह से जयपुर में मुलाकात हुई। वे जयपुर, राजस्थान में ही रहते हैं। ‘जेड प्लस'की कहानी फतेहपुर में बसी है और वे खुद वहीं से ताल्लुक रखते हैं। कॉलेज की पढ़ाई करने वे काफी वक्त पहले जयपुर आए थे। फिल्म पत्रकारिता में प्रवेश किया। राज्य के हिंदी दैनिक राजस्थान पत्रिका में वे फिल्म समीक्षाएं और लेखन करते रहे हैं। कहानियां भी लिखते हैं। उनसे पूरी बातचीत:

फिल्म की शूटिंग कहां हुई?
मंडावा में।

फतेहपुर में नहीं की जहां की कहानी है?
मंडावा फतेहपुर के एकदम नजदीक ही कस्बा है। हमने अपनी पिछली फिल्म ‘भोभर'की शूटिंग मेरे घर में ही की है। अगर आप यूट्यूब पर ‘भोभर'देखेंगे तो वो घर मेरा ही है। वो मेरा ही गांव है। सारी लोकेशंस ऐसी थीं जो हमारे दायरे में आ रही थीं। वो पूरा गांव बिरानिया ही है।

.... तब डैडी भी थे। ‘जेड प्लस'के शुरू होने और परदे पर आने के बीच डैडी गुजर गए। एक्सीडेंट हो गया था उनका। मुझे लगता है उन्होंने एग्रीमेंट देखा था। वो खुश थे, बहुत खुश थे। उनको ताज्जुब था। जब मैंने कहा कि मैं एक फिल्म लिख रहा हूं और इसका इतना पैसा मुझे मिलेगा तो वो बोले, ‘यार तुमने कोई खेत में काम नहीं किया, किसी के यहां जाकर मजदूरी नहीं की, सिर्फ एक कहानी कह रहे हो, उसी से कोई तुमको इतना पैसा दे देगा? हम तो जिंदगी भर मेहनत करते रहे, हमको तो किसी ने इतना पैसा नहीं दिया।'तो मैंने कहा, डैडी सिनेमा ऐसी ही चीज है। आप देखिए कि मेरे परिवार में सबसे पहले 12वीं पास करने वाला मैं था। अब तो मेरे से भी आगे की योग्यता वाले बच्चे आ गए हैं। मेरी भतीजियां वगैरह सब एमएसएसी, ग्रेजुएशन में चले गए। लेकिन मैं पहला बच्चा था। मुझे अच्छा लगता अगर डैडी होते और परदे पर फिल्म को देखते। ‘भोभर'में उन्होंने खुद भी काम किया है। छोटा सा रोल उनका है। उनको कैमरे का भी अनुभव था।

कौन से रोल में थे वे?
पंचायत का दृश्य है न। उसमें तीन पंच बैठे हैं, उनमें एक मेरे पिताजी हैं।

आपने विश्व का काफी सिनेमा देखा होगा, दार्शनिकों को पढ़ा होगा... ये है कि पहली उपलब्धि देखने के लिए पिता रहता नहीं है। बच्चे का सपना देखने के लिए पिता रहता नहीं है, ये बहुत बड़ी...
...ये त्रासदी है मेरे लिए। मुझे ऐसी तकलीफ थी कि यार जिस चीज से वो इतने खुश हुए थे न। मैंने पहला ड्राफ्ट लिखकर डॉक साहब (डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी) को भेज दिया था। उसके तुरंत बाद उनका एक्सीडेंट हुआ और उसके बाद मैं मानसिक रूप से इतना त्रस्त हुआ कि मैंने कहा, डॉक साहब मैं इन दिनों कुछ नहीं कर पा रहा हूं। तो फिर डॉक साब लगातार काम करते रहे। मैंने कहा हम डिले नहीं कर सकते तो आप काम करते रहिए, तो वे करते रहे। हमारा समय भी ऐसा है न कि डॉक साब खुद एक राइटर हैं, किसी लेखक के लिए बहुत मुश्किल होता है कि किसी निर्देशक के साथ हूबहू तालमेल करके काम कर पाए। दुनिया के सारे बड़े निर्देशक काम करते ही हैं। उनको अपनी स्क्रिप्ट पर काम करना ही होता है। ...तो इस तरह जर्नी चलती रही। ...ये बात मैंने डॉक साहब को भी बताई कि मेरे पिताजी ने कहा, ‘तुमको किस बात का पैसा मिल रहा है।'वे कई बार कोट भी करते हैं।

क्या कहते हैं?
वो सेट पर होते थे तो बाकियों से कहते थे कि साळों तुम लोग राम से सीखो। राम के पिताजी कहते थे कि साळों तुम लोगों को पैसा किस बात का दूं मैं! (हंसते हुए) मैंने कहा सर ये मजाक की बात है...। पिताजी कहते थे कि तुमको यार हमने कभी सोचा ही नहीं था कि कभी राइटर टाइप बनोगे। वो तो डॉक्टर बनाना चाहते थे। उनकी इच्छा के बगैर मैंने साहित्य पढ़ना शुरू कर दिया। 11वीं तक कुछ समय मैंने साइंस पढ़ी। वो सारे अक्षर ऊपर से इधर-उधर जाते थे। समझ मैं आ गया था कि विज्ञान पढ़ना अपने बस की बात नहीं है। मतलब उन्होंने कहा कि ‘यार मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि तुम लिखोगे, ये करोगे। ये क्या है?'मेरे पिता तो जानते भी नहीं थे कि राइटिंग भी एक धंधा है, कोई काम है। पत्रकार भी मैं बना था तो उन्हें लगातार लगता था कि ‘तुमको सरकारी नौकरी करनी चाहिए। तुम चाहे बाबू हो जाओ, चपरासी हो जाओ। साला ये क्या है? कोई नौकरी है क्या? बणियों की नौकरी है।'लेकिन जब मैंने उनको बताया कि ये काम करते हुए मैं बीबीसी में भी पहुंच सकता हूं। तब उन्होंने थोड़ा मेरे काम को गंभीरता से लिया। क्योंकि वो बीबीसी नियमित सुनते थे। और मेरे को बचपन से सुनाते रहे। वो अपब्रिंगिंग (परवरिश) ऐसी थी कि मैं लगातार संपर्क में रहता था दुनिया के।

 बोस्निया-हरजेगोविना, चेकोस्लोवाकिया ये साले जितने युद्ध... इजरायल-फिलीस्तीन... आप लगातार बीबीसी सुनते हैं तो... आज भी बीबीसी वो एकमात्र मीडियम है जो पूरी इंटरनेशनल न्यूज को उस तरह से देता है। हमारे अखबार तो अब इस तरह केंद्रित हो गए हैं कि अपने इलाके की, कॉलोनी की खबर ही देते हैं। तो मुझे लगता है मेरी पोलिटिकल (राजनीतिक) समझ उसी समय से विकसित हुई और कालांतर में... मेरा बेल्ट भी उस तरह का है जहां हर आदमी लोकल पोलिटिक्स पर बात करता है। मतलब हर आदमी सरपंच है। मतलब एक गांव में दस लोगों के नाम सरपंच होंगे। कि, ये सरपंच, सरपंच काणो, फलां सरपंच... जबकि कभी चुनाव नहीं लड़ा उन्होंने। किसी का नाम त्रिलोक सिंह है तो ... हमारे एक कॉमरेड हुआ करते थे इस नाम के... तो किसी का नाम त्रिलोकाराम है तो उसका कॉमरेड कहा करते थे। मतलब लोगों के नाम ही पोलिटिकल हैं। इमेज ही पोलिटिकल है। तो हम लोगों की अपब्रिंगिंग ही ऐसी हुई। वो दौर जब चुनाव प्रचार के लिए गांव में आते थे नेता लोग.. तो वो पूरा बेल्ट ही ऐसा है। और मुझे लगता है कि पूरा भारत ही ऐसा होगा। मुझे तो मेरी बेल्ट है इसलिए ऐसा लगता है। कि हर बच्चा पोलिटिकली कनेक्टेड होता है कहीं न कहीं। हम सब चीजें भूल जाते हैं जब पोलिटिक्स की बात आती है।

फिल्म क्षेत्र के या किसी भी क्षेत्र के इंसा को देख लें ...कहते हैं न कि रोशनी करने के लिए बत्ती (बाती) को जलना पड़ता है। आपकी वो जलन क्या रही है? जैसे एक तो आपने बताया कि पिताजी का एक्सीडेंट हो गया था और बहुत दुखद वक्त था। फिल्म के रचनात्मक पहलू से भी विलग से होने लगे थे। लेकिन जुड़े रहना था छोड़ना नहीं था उसको।
मुझे लगता है एक गांव का बोध है न, ... एक इनफिरियोरिटी कॉम्पलैक्स (हीन होने की भावना) हमेशा चलता था। अभी भी चलता है। वो इनफिरियोरिटी कॉम्प्लैक्सनहीं है, बेसिकली (मूलत:) एक संकोच है। जब पत्रकारिता मैंने चुनी, तो पत्रकारिता एकदम अलगफील्डहै। वहां अगर आपको संकोच है तो आपकी अयोग्यता है। कॉन्फ्रेंसमें सवाल नहीं पूछते हो, बोलते नहीं हो तो, वाचाल नहीं हो तो, ये आपकी अयोग्यता है। और शुरुआती दिनों में बहुत घबराहट होती थी। किसी भीप्रेस कॉन्फ्रेंसमें किसी से सवाल पूछने में घबराहट होती थी। एक तो गांव से आए थे, दूसरा मेरे यहां जो पूरा बैच था जर्नलिस्ट्सका, मैंने देखा कि मैं एकमात्र ऐसा आदमी था जो सीधे गांव से आया था। किसी के पिता यहां नौकरी करते थे, अपब्रिंगिंगयहीं हुई, शहरी स्कूलों में पढ़े।रूट्सगांव में थे लेकिन वो पहली जनरेशननहीं थे। वो पैदा शहर में हुए। गांव से जुड़े रहे। मैं एकमात्र ऐसा था जिसका बचपन गांव में बीता था तो वो एक डर हमेशा रहता था। जब समझ विकसित हुई तो धीरे-धीरे वो डर गुस्से में तब्दील हो गया। अराजक चीजें देखकर गुस्सा आने लगा। जैसे ‘जेड प्लस'का पूरा जो आइडिया है वो गुस्से का आइडिया है। जिसपे आपको हंसी आएगी। लेकिन मुझे गुस्सा। मैं भास्कर के चौराहे पर (जयपुर) खड़ा हूं, पंंद्रह मिनट तक धूप में सिर्फ इसलिए खड़ा हूं... एक फर्जी कोई वीआईपी जा रहा है। है ना, और कौन मारेगा उसको? कई बार लगता है कि कौन मारेगा? और मार देगा तो सवा सौ अरब का देश है कोई और खड़ा हो जाएगा। आप अपनी ही जनता को हत्यारा समझने लगे। आप अपने ही लोगों कोक्रिमिनलसमझने लगे। ये कैसी डेमोक्रेसी? ये जो गुस्सा था।

आपको बताऊं कि हम लोग जब यहां कॉलेज में थे, दोस्त के साथ रामबाग में घुसे, फाइफ स्टार होटलहै न राम बाग। हम आधे रास्ते घुस गए थे। गार्ड ने हमारी हालत देखकर कहा कि बुलाओ इधर वापस। तो मतलब वो कॉन्फिडेंसहममें नी था। वरना हम कहते कि हम गेस्ट हैं। हमको जाना है। उसने बुलाया कि ‘ऐ इधर आओ, कहां जो रहे हो?'मैंने कहां, जा रहे हैं भई। बोला, ‘क्या करने जा रहे हो?'बोला, होटल देखने जा रहे हैं। बोला, ‘भागो यहां से होटल देखने की चीज नहीं है।'तो सुरेंदर मेरा दोस्त था, वो बोला कि यार इनसल्ट हो गई हमारी, बेइज्जती हो गई हमारी। कई साल बाद मैं जब पत्रकार बना तो मैंने सुरेंदर से कहा कि चलो आज रामबाग में हम चाय पीकर आएंगे और कोई रोकेगा नहीं। तो आपका पूरा गुस्सा कहीं न कहीं आपके भीतर था। तो वो पूरा प्रकरण है कि आप सड़क पर खड़े हो, यूं ही, कोई वजह ही नहीं है, और क्यों? क्योंकि साब, वीआईपी गुजर रहा है। तुमको क्यों चाहिए सिक्योरिटी? आपने देखा एक मुख्यमंत्री बना वो वेगनआर में चलता रहा। आप उसके लाख मजाक उड़ाएं। है ना। आपका एक सीएम स्कूटर पे भी चलता है। मनोहर पर्रिकर या जो भी है। मैं पोलिटिकल छोड़ भी दूं कि वो ‘आप'का है या ‘बीजेपी'का है, लेकिन करते हैं न लोग। आपका एक मंत्री था, मेरे ख्याल से इंद्रजीत गुप्त (1919-2001)। जब गृहमंत्री थे वो एक फ्लैट में रहते थे। उन्होंने कभी सरकारी आवास नहीं लिया। उन्होंने गार्ड हटा दिए, बोले, ‘ठीक है कोई मारेगा तो मार देगा, क्या फर्क पड़ता है।'तो आपको मार देगा, क्या हो गया? आपके मारे नहीं है क्या। जेड सिक्योरिटी में आपका प्रधानमंत्री मारा गया। है ना। बेअंत सिंह, जेड सिक्योरिटी मिली हुई थी, उनका भी मर्डर। तो जिसको मारना है, जिसने तय कर लिया है वो आपको सिक्योरिटी में भी मारेगा। इसके लिए मेहरबानी करके आप सब लोगों को परेशान मत करिए। मैं बार-बार कहता हूं ये आपके मूल अधिकार का हनन है। आप चलते हुए किसी आदमी को सड़क पर कैसे रोक सकते हो? नहीं आप रुक जाइए। क्यूं? क्योंकि हम जाएंगे। हम जर्नलिस्ट हैं, हमें हमेशा वीआईपी ट्रीटमेंटमिलता है। मैं असहज होता हूं। आपके लिए प्रेस... एक कोने में । दुर्भाग्य से हमारी बिरादरी में बहुत कम लोग सेंसिबल तरीके से पेश आते हैं और हमारे जैसे शहरों में तो इस हेकड़ी में चलते हैं कि उनको सबकुछ आता है, हम सब जानते हैं।

वो लाइसेंस मान लेते हैं।
लाइसेंस मान लेते हैं। तो ये नहीं होना चाहिए। मेरे कितने जूनियर बच्चे होते थे पत्रकारिता में, मैं उनको कहता था ये हेकड़ी निकालो। तुमको खबर चहिए, तुमको वो चहिए, तुमको जगह नहीं मिल रही है नाटक देखने के लिए तो तुम नाटक में नॉनसेंस क्रिएटमत करो, चुपचाप पीछे जाके बैठ जाओ। ये नहीं कि ‘प्रेस के लिए जगह नहीं छोड़ी।'‘ये प्रेस की जगह कोई बैठ गया।'बैठ गया तो बैठ गया। पहले आओ पहले पाओ। तुम एक तो नाटक शुरू होने के आधे घंटे बाद आते हो, दस मिनट नाटक देखते हो, चले जाते हो और फिर जाके उस पर टीका लिखते हो, टिप्पणी लिखते हो, कि नहीं भइय्या हम तो बहुत मशहूर हैं, हमने तो बड़ी टिप्पणी लिखी। तो इस गुस्से से आइडिया आया और मुझे लगता है कि इस गुस्से का तभी मजाक उड़ाया जा सकता है जब असलम पंचरवाले को जेड सिक्योरिटीदे दी जाए। और असलम पंचरवाला ये साबित करेगा कि ये कितनी बड़ी बेवकूफी है।

इसे गुस्से में कहने में या हंसा के कहने में स्टोरी या बात कितनी गंभीर रह पाती है? कितनी प्रभावी रह पाती है?
इस मामले में आप परसाई जी को देखिए। हम हिंदी साहित्य के हैं तो इसमें शरद जोशी और हरिशंकर परसाई हमेशा ऊपर रहते हैं। आप देखिए, उन दिनों में, मैं जब परसाई जी को पढ़ रहा था तो आप पढ़ते-पढ़ते हंस रहे हो, और अकेले हंस रहे हो। पत्नी कहती कि ‘तुम पागल हो गए हो क्या? ये क्या तरीका है?'परसाई जी सिखाते हैं कि यार आप सबसे बड़ा हमला जो है किसी को हंसाके भी कर सकते हो। क्यूं? क्योंकि प्रीची नहीं लगता है और आप अपनी बात कह देते हो।

और इसके पीछे शायद ये भाव भी छुपा रहता है कि आपका बड़े से बड़ा दुश्मन ही क्यों न हो उसको भी आप सबकुछ अहिंसक तरीके से ही ...
कहोगे...

असलम का रोल आदिल ने किया। जब आपको पता चला कि वो रोल निभाने वाले हैं तो क्या उन्होंने आपसे भी बात की? लगा कि यार ये बंदा तो अब खींच लेगा रोल को जबरदस्त तरीके से?
मैंने सबसे पहले आदिल को ‘इश्किया'में देखा था। तब मैं तो उनको जानता ही नहीं था पर मैंने कहा, यार ये कौन है? फिर जब जाकर मैंने नेट पर सर्च किया कि विद्याधर वर्मा कौन है? तो देखा ये आदिल हुसैन है। उस दिन से मैं फॉलो कर रहा था। और जब डॉक साब ने कहा कि, ‘एक ब्रिटिश फिल्म में लीड होने वाला है और एक बड़ा एक्टर है। तुम चिंता मत करो तुम्हारी फिल्म के लिए बड़ा जेनुइन एक्टर आएगा।'फिर जब उन्होंने कहा कि आदिल हुसैन करेंगे तो मैंने कहा, यार डॉक साब, मैं फैन हूं उस आदमी का, अद्भुत है। ‘इश्किया', फिर ‘इंग्लिश विंग्लिश', फिर ‘लाइफ ऑफ पाई'मैं देख चुका था। लुटेरा... ‘लुटेरा'देख चुका था। मतलब कितनी सारी फिल्में हैं जिसमें वो अलग दिखता है। तो मैंने कहा, डॉक साब कॉमेडी, ... कॉमेडी कैसे करेगा आदिल? उसके तो सारे रोल ही अलग रहे हैं। बोले, ‘तू विकीपीडिया पे जाके पढ़ इसके बारे में।'तो मैंने विकीपीडिया पे पढ़ा तो पाया कि आदिल स्टैंड-अप कॉमेडियन था। मतलब अपने शुरुआती सात सालों में उसने स्टैंड-अप कॉमेडियन बनकर जीवन गुजारा। तो मैं फिर आश्वस्त हो गया। ऑबवियसली वो डॉक साब का अधिकार था। अपनी कास्टिंग, अपने एक्टर लेना। वो माध्यम निर्देशक का है। मुझे लगता है सबसे सही चुनाव उन्होंने आदिल के रूप में किया।

ऐसा लगता है कि ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर'अगर नवाज की वो फिल्म है जिसके लिए उन्हें याद करेंगे, या ‘शूल'और ‘सत्या'मनोज की हैं, आदिल के लिए ‘जेड प्लस'है?
बिलकुल। ये फिल्म आदिल के लिए पूरा ब्रैकेट तोड़ देगी। आदिल के बारे में लोगों की इमेज तोड़ देगी। ट्रेलर आते ही लोग तारीफ करने लगे थे।

इतना आक्रामक ढंग से प्रेम में है अपनी बीवी के साथ, रोड़ पर चप्पल उठाकर दिखा रहा है, गुस्सा कर रहा है, अपने पड़ोसी से लड़ रहा है, मां-बहन की गाली अपने ही फ्लो में निकाल रहा है... और उन्होंने अपने आप को बहुत बदला है। पूरा कायापलट कर लिया है।
वो अभिनय की पूरी संस्था है। एक तो इतना सहज आदमी है वो। जैसे मैं मजाक कर रहा था, अभी प्रमोशन जब चल रहे थे। तीन दिन पहले की ही बात है। मैंने कहा, आदिल सर एक फिल्म साइन कर लो आप। क्योंकि 28 (नवंबर) के बाद तो आप पकड़ में आओगे नहीं। बोले, ‘नहीं नहीं, आप तो लाओ, आपकी तो करूंगा मैं।'

Ramkumar with Adil.
वे एक असमी फिल्म बना रहे हैं। कुछ दिन पहले ही एक इंटरव्यू में वे बोले कि मैं अपने आपको डायरेक्टर नहीं कहूंगा। बड़ा एरोगेंट (अहंकारी) फील होता है डायरेक्टर शब्द इस्तेमाल करते हैं तो। मैं कॉलेबोरेट (भागीदारी/सहयोग) कर रहा हूं राइटर्स के साथ, एक्टर्स के साथ। ये कितनी अच्छी बात है कि राजस्थान की पृष्ठभूमि की, वहीं के बंदे की लिखी कहानी में उन्होंने अभिनय किया और अब असम में जाकर वहां की भाषा वाली फिल्म बना रहे हैं।
मतलब मैं तो ये कह रहा हूं ...कि जब आदिल से मैं रूबरू मिला... एक तो स्क्रीन इमेजअलग होती है... मैं पहली बार जब होटल में उनसे मिला तो आप पहचान नहीं सकते कि ये फतेहपुर का आदमी है कि अासाम का है। जबकि भौगोलिक रूप से आप इतने दूर हो। वो बिलुकल वैसा का वैसा है। फतेहपुर का आदमी।

बाकी कौन से कलाकार फिल्म में आपको बहुत प्रभावी लग रहे हैं?
मुझे लग रहा है सब लोगों ने बहुत अद्भुत काम किया है। जैसे मुकेश (तिवारी) ने बहुत अद्भुत काम किया है लंबे समय बाद। और मुकेश से मेरा बहुत पुराना राब्ता है। जयपुर आते-जाते रहते हैं। हम लोगों ने एक हिंदी फिल्म पहले लिखी थी और उसमें मुकेश संयोग से थे। अजय जी (ब्रह्मात्मज) थे। अजय जी ने उनसे कहा, ‘आप जयपुर जा रहे हैं, हमारे मित्र हैं वहां।'तो आते ही वो बोले कि ‘अजय जी को कौन जानता है यहां?'मैंने कहा, मैं जानता हूं। तब से हमारा एक याराना हो गया है। जब ‘जेड प्लस'की स्क्रिप्ट गई मुकेश के पास तो बोले, ‘डॉक साब अद्भुत है। राइटर कौन है?'तो बोले, ‘राइटर तुम नहीं जानते मुकेश। राइटर रामकुमार सिंह है।'बोले, ‘राजस्थान से है कोई? राजस्थान में तो एक रामकुमार सिंह को मैं भी जानता हूं।'तो बोले, ‘हो सकता है वो ही हो, इतने कितने रामकुमार सिंह हैं, वो ही हो।'बोले, ‘वही हैं जो पत्रकार हैं?'तो बोले, ‘हां वही है।'बोले, ‘अरे यार डॉक साब।'और फिर फोन आया मेरे पास। बोले, ‘यार मुझे पता ही नहीं है कि ये स्क्रिप्ट तुमने डॉक साब के साथ लिखी है।'वो बहुत अभिभूत थे। रिसर्च के मामले में भी वे बहुत अच्छे हैं। और आदिल। एक दिन सुबह-सुबह तो आदिल घूमने निकल गए। थोड़ी देर बाद आए। पूछा क्या कर रहे थे? तो बोले, ‘यार सारे पंचर-वंचर वालों से मिलकर आया मैं। देखकर आया कि कैसे क्या करते हैं? पूछा कैसे निकालते हो?'मतलब वो शोध में लग गए। दो दिन पहले वहां पहुंचे तो सारे पंचरवालों से दोस्ती कर ली। ये समर्पण यार कोई सुपरस्टार थोड़े ही न कर सकते हैं।

फतेहपुर की कौन सी फिल्में आपको बहुत अच्छी लगती हैं? जो फतेहपुर में शूट हुई हैं या शेखावाटी की कहानी वाली हैं?
मेरे ख्याल में ‘गुलामी' (1985, जे. पी. दत्ता) फतेहपुर में हुई है। उसके अलावा और मेरे को कोई याद नहीं आ रही है। जैसे ‘भोभर'हमने बिरानिया में बनाई थी। और फतेहपुर को मैंने जब कैरेक्टर रखा तो मुझे लगता था कि यार अपना कस्बा है और नाम भी वही रखा, फतेहपुर ही रखा। बाकी कहानी काल्पनिक है लेकिन कस्बा रियल है। उसके ऐतिहासिक रेफरेंस भी हैं। शेरशाह के समय के और बहुत सारे रेफरेंस हैं। और बहुत बड़ी हिस्ट्रीहै यहां की। जो नवाब ने फतेहपुर के आसपास पूरा जंगल वक्फ किया है, वो पूरी जमीन अभी भी है, वो बीहड़ और इतना बड़ा एरिया आपको कहीं नहीं मिलेगा। फतेहपुर नवाब ने वो पूरी जमीन छुड़वाई थी। उसके पीछे बड़ी इंट्रेस्टिंग कहानी है। जिस पर मैं कभी काम करना चाहूंगा। कि वो घोड़ा नवाब का चलता था और जितनी दूर चलता था वो जमीन नवाब की हो जाती थी। वो कहता था ये छोड़ दो चरागाह के लिए। पोएटिक रूप से भी फतेहपुर मुझे बड़ा इंट्रेस्टिंग लगता है। जान कवि होते थे, ‘कायमरासो'जिन्होंने लिखा और ये जो आप बाबा फरीद की परंपरा में कह लो या हिस्टोरिकल मुझे नहीं पता लेकिन... ‘कागा रे कागा इतनी अरज चुन चुन खइयो मांस...'ये हम मीरा में पाते हैं, बाबा फरीद में पाते हैं, लेकिन हमारे जो शायर मित्र हैं उर्दू के जानकार, वो कह रहे हैं कि ये बिंब सबसे पहले... फतेहपुर नवाब की लड़की शायरा थी उसने कहा था और उसका रेफरेंस है। तो कविता और लिट्रेचर के पॉइंट ऑफ व्यू से बहुत इंट्रेस्टिंग जगह है। हमारे हिंदी में बहुत से महत्वपूर्ण लोग यहां से रहे हैं। शरद देवड़ा वगैरह थे। कारोबारी रूप से तो पूरा शेखावाटी ही माना हुआ है। मुझे हमेशा लगता है कि अपनी जमीन के प्रति हमेशा देना चाहिए कि लोग याद करें।

ये एक लालच था कि मेरी जगह मेरी फिल्म में अमर हो जाए।
नहीं तो उसका नाम मैं रसूलपुर कर सकता था, लक्ष्मणगढ़ कर सकता था, राजगढ़ कर सकता था। फतेहपुर ही रखा और मुझे लगता है वो बदला भी नहीं है फिल्म में। और फतेहपुर फिल्मी नाम भी है। फिल्मी लिहाज से भी कहते हैं न कि टंग ट्विस्टिंग नहीं होना चाहिए, अच्छे से आ जाए दिमाग में।

‘गुलामी'कैसी लगी थी आपको?
अच्छी थी। मल्लब मुझे अच्छी लगी थी। थोड़ी सी कमर्शियल थी, वो जो होती है सिनेमा की अपनी मजबूरी। बाकी ये (कहानी) फैक्ट था। पूरी हिस्ट्री का वो सूदखोरी वाला मामला आज भी है। हमारे पूरे समाज के टुकड़ों में आज भी है। कहानी तो उसी एरिया की थी। अच्छी लगी थी।

‘भोभर'अब देखते हैं तो क्या लगता है स्क्रिप्ट को कितना कस सकते थे? क्योंकि अब ‘जेड प्लस'के इतने स्क्रिप्ट सेशंसका अनुभव है।
उसकी स्क्रिप्ट गजेंद्र (श्रोत्रिय) ने लिखी थी, मैंने डायलॉग लिखे थे। उसकी स्क्रिप्ट में प्रॉब्लम नहीं थी। प्रॉब्लम ये थी कि हम लोगों ने बहुत जल्दी में बनाई थी। आठ दिन में हमने पूरी फिल्म शूट कर ली थी। इस फिल्म को (जेड प्लस) को साठ दिन में किया, उसको आठ दिन में किया। तो आठ और साठ का जो डिफरेंस है वो दिखता है। सिनेमा कभी भी - अब हम लोगों ने भी सीखा कि - कोई जल्दी का माध्यम नहीं है। ठीक है जुनून है लेकिन इस जुनून में भी उतना ही टाइम देकर उसी डेडिकेशन के साथ बनाना चाहिए।

एक ये भी है न, कि आपने फिल्म जितनी आत्मीयता से बनाई है, उसको सामने वाला जिस प्रोडक्ट के तौर पर देखता है, वो कितना दुख देता है? या कितना सहज हैं उसे लेकर? कि हां ऐसा तो होना ही था?
नहीं, मैं इसलिए कम्फर्टेबल हूं कि.. हमको पहले दिन से ही ये संदेह रखना ही नहीं था। जो देखेगा वो तो अपने तराजू पे तौलेगा। अब अगर आप उसे कम्युनिकेट नहीं कर पाए हो और उसे हर बार बताना पड़े कि ये ग्लास मैंने इसलिए रखा है यहां तो फिर मतलब नहीं है। किसी भी कविता में हर बार कवि आकर आपको व्याख्या नहीं दे सकता। अब नाटक में तो आप तुरंत सवाल कर लो या सामने कथा पाठ हो रहा है तो आप सवाल कर लो कि क्या है? लेकिन सिनेमा इस किस्म का माध्यम है कि एक आदमी कलकत्ता में देख रहा है दूसरा आदमी लंदन में देख रहा है। आप कहां-कहां जाके कहेंगे कि ये ग्लास क्यों रखा था आपने? और ये सीन को करते हुए हमारे यहां जनरेटर का डीजल खतम हो गया था। उसको क्या मतलब है?

नहीं, उनको लेकर आपको नहीं लगता कि जो देख रहा है वो सिर्फ कह रहा है कि यार मुझे मजा आ रहा है, मुझे मजा नहीं आ रहा है लेकिन जो मर्म है उसको वो नहीं जानना चाह रहा है? नहीं समझ रहा है? वो प्रोडक्ट वाला भाव जो ला रहा है। आजकल हो गया है कि हर दर्शकरिव्यूअर बनने में लगा है अच्छी नहीं है, मजा नहीं आया, इसमें ये सीन बहुत अच्छा था, ये बहुत बुरा था और वो उसको कमोडिटी की तरह देखते हैं कि साहब थियेटर से बाहर निकले, खत्म जेड प्लस। लेकिन जेड प्लस का जो मैसेज है न कि जो आपमें गुस्सा था कि मैं खड़ा हूं वीआईपीका टोला निकल रहा है वो गुस्सा उन तक न रूपांतरित हो तो फिर फायदा न हो?
अब इसका तो अपन कैसे कर सकते हैं? मतलब आप देखिए कि साहित्य में एक भाव है न, कि जो कैथारसिस है आपका, या रसास्वाद है, या जिसको आप ब्रह्मांनद सहोदर कहते हैं, ये जो आनंद है वो हर आदमी का अपना होता है। देखने का परसेप्शन अपना है। दुख होता है, आपको लगता है कि आप कहना चाह रहे थे कह नहीं पाए। आपको अल्टीमेटली और कम्युनिकेटिव होना चाहिए। हमें कम्युनिकेशन सिखाया गया था अखबार के लिए, तो यही तो सिखाया गया था न कि आसान भाषा में लिखो। मैक्सिमम लोग समझें ऐसी भाषा में लिखो। तो मुझे लगता है कि सिनेमा की भाषा वही भाषा होनी चाहिए। जो मैक्सिमम कम्युनिकेटिवहो। वो कम्युनिकेशनआपके टारगेट ऑडियंसतक जाए। अब ‘हैदर'है तो ‘हैदर'उस ऑडियंस को बाकायदा हिट करती है जो ऐसा सिनेमा देखना चाहती है। पांच हजार लोगों को नहीं करती, ...कि अरे यार लंबी है बहुत। ओके, इट्स ओके।लेकिन अगर दस लोगों को भी कम्युनिकेट कर रही है तो इसका मतलब है कि जो कहना चाह रहे थे वो पहुंच गई। जहां तक कमर्शियल है या नहीं है वो तो निर्माता का काम है। कि उसने पैसा कमाया, गवांया। ऑबवियसली पैसा कमाएगा निर्माता तो अगली फिल्म बनाएगा। लेकिन मुझे लगता है एक क्रिएटिव आदमी के लिए संतोष वही है जो मैं बताता हूं, देखिए। इतना बड़ा सुख आपको बताऊं। कि ‘भोभर'की स्क्रीनिंग हुई आईनॉक्स में और रोलिंग क्रेडिट्सचल रहे थे। सब लोग जा रहे थे, पर आपका एक मोह रहता है कि पहले सारे क्रेडिट्स चले जाएं। उसी समय जो उशर होता है, लड़का जो टॉर्च लेकर दिखाता है - उसको पता ही नहीं है कि मैं कौन हूं? वो बिलकुल ले-मैनहै। बनीपार्क में यहीं जयपुर में वो आकर मेरे पास खड़ा होकर कहता है कि ‘सर क्या फिल्म है!'मैंने कहा, अच्छी लगी तुमको? मुझे तो कुछ ऐसे ही लगी। बोला, ‘नहीं सर, राजस्थानी में तो मैंने ऐसी फिल्म नहीं देखी।'मैंने कहा, सच्ची में तुमको अच्छी लगी? बोला, ‘अरे सर क्लाइमैक्स में तो रुला दिया। मेरे को तो मजा आ गया।'वो मेरे को जानता ही नहीं। आपको बहुत अच्छा लगता है यार। भीतर से आपको लगता है यस आपने कम्युनिकेट किया। और ये रियल किस्सा है।

Poster of Bhobhar.
 मतलब एक आदमी भी हो तो काफी है?
हां, बहुत है। हम सीकर गए। वहां पूछा कि क्या रिस्पॉन्स है? तो उनने कहा ठीक है। उन्हें पता ही नहीं हम कौन हैं। हमने कहा शो कब है? बोले, ‘चल रहा है, अगला शो डेढ़ घंटे बाद है।'पूछा, कैसी जा रही है? कैसी है? चर्चा तो बहुत सुनी है। बोले, ‘नहीं अद्भुत फिल्म है।'मैंने कहा आपने देख ली? बोले, ‘हां देख ली। रात को देखी। मैं आज बच्चों को दिखाना चाहता था लेकिन वो एक सिणगारी ताई है ना इसमें वो थोड़ी गड़बड़ है। तो वो फैमिली वाला मामला फिर बैठता नहीं है। थोड़ा ट्रेडिशनली बच्चों के साथ देख नहीं सकते। थोड़ी गड़बड़ बातें करती है।'यार हम स्क्रिप्ट लिखते समय कहते थे कि ये ताई एकदम रॉ है, जमीन से जुड़ी है क्योंकि ऐसा कैरेक्टर गांव में बात करता है। औरतें अपणी बातें करती हैं। हम रियलिस्टिक हैं लेकिन हमारा दर्शक कितना अलग किस्म का है। उस आदमी ने कहा कि मैं फिल्म अपने परिवार को इसलिए नहीं दिखा सकता क्योंकि वो ताई है। वो न हो तो भाईसाब फिल्म ऐसे (हिट) हो जाती। मैंने कहा, हम एक बार देख सकते हैं क्या प्रोजेक्शन रूम में? बोले, ‘आप कौन हो?'मैंने कहा, हम तो इस फिल्म से जुड़े हुए हैं। तो उसने कहा, ‘अरे भाईसाब फिर तो आप देखो।'एक लेखक की संपत्ति क्या होता है, पाठक ही होता है। एक आदमी भी फोन कर देता है न, कि साहब मजा आ गया तो आप तो संतुष्ट हो जाते हो। निर्माता चाहे न संतुष्ट हो। वो उसकी तकलीफ है। हम रचनात्मक आदमी पैसे के लिहाज से नहीं सोच सकते। हमको लगता है जो कह रहे हैं वो कम्युनिकेट हो जाए।

राजस्थानी सिनेमा में कौन सी फिल्म आपको सबसे पसंद है?
वैसे ‘बवंडर' (2000) अच्छी लगी थी मुझे। बाकी तो हमारा सारा सिनेमा मेलोड्रामा का है। जैसे हमारी सबसे बड़ी सुपरहिट जो थी, ‘बाई चाली सासरिए' (1988)। अच्छी थी। सिनेमैटिकली। जनता के नजरिए से। लेकिन वो वैसी ही फिल्म थी, मसाला बॉलीवुड फिल्म जैसी। मैं कभी ऐसी फिल्म एंजॉय नहीं करता हूं।

ब्लैक एंड वाइट ‘बाबा रामदेव' (1963) कैसी लगी थी? महिपाल अभिनीत।
देखी नहीं।

नीलू वगैरह जो स्टार रहे हैं राजस्थानी सिनेमा के....
मुझे कभी थ्रिल नहीं किया क्योंकि नीलू का जो समय है मेरा बचपन रहा होगा। उस तरह से हम कभी कनेक्ट नहीं कर पाए लेकिन मुझे लगता है एक स्टार हो तो भला होता है सिनेमा का यार। आप ज्यादा लोगों तक पहुंच पाते हैं। हालांकि उसके नुकसान भी हैं जो हिंदी में हम स्टार के नुकसान देखते हैं। फिर आप स्टार केंद्रित हो जाते हो। जो बीमारी राजस्थानी सिनेमा में है। स्टार्स से कल्पनाशीलता या मौलिकता भी प्रभावित होती है। अब सोचिए कि कल्पना ही नहीं कर सकते हम लोग कि शाहरुख खान असलम पंचरवाला बन सकता है।

हो सकता है 20 साल बाद वो बन जाएं, 30 साल बाद बन जाएं?
हो सकता है। अपने क्रिएटिव सैटिस्फैक्शनके लिए। बाकी अभी तो वो ताले तोड़ने में (हैप्पी न्यू ईयर) ही लगे हैं। वो ठीक है, उनका अपना निर्णय है। लेकिन ... जैसे अमिताभ बच्चन अब साइकिल चला रहे हैं (पीकू)।

हां, चला रहे हैं...
है न। वो न चलाएं तो भी काम चले उनका। वो कह सकते हैं, नहीं भई मेरे से नहीं चलेगी। 70-75 साल का बुजुर्ग कहे कि मैं नहीं चलाऊंगा, मेरे को क्या पड़ी है। ठीक वैसे ही... सलमान खान क्यूं पंचर लगाएगा? क्यों टायर को छूएगा? सितारा है।

राजस्थानी में आपको लगता है अच्छी फिल्में बनेंगी कभी?
बिलकुल बनेंगी, मुझे उम्मीद हैं।

पास बैठे उनके दोस्त दुष्यंत कहते हैं...‘लाजवंती'रिलीज होगी न अभी, बनी है।

हां ‘लाजवंती'है पुष्पेंद्र सिंह की ...लेकिन उसको मुख्य मायने में राजस्थानी कह सकते हैं? क्योंकि यहां शायद कोई जानता ही नहीं होगा उसके बारे में, वो फिल्म फेस्टिवल्स तक ही सीमित है।
दुष्यंत:
ना रिलीज होगी। ये समस्या तो बाजार की समस्या है, राजस्थानी सिनेमा का संकट नहीं है। राजस्थानी में फिल्म बनी है। रिलीज नहीं हो पा रही तो वो एक अलग समस्या है। फिल्म तो राजस्थानी की ही है।

लगातार इस भाषा की फिल्में बनती रहे वो हिसाब क्या पचास साल में भी क्या आ पाएगा? भाषा की बात भी है, कि यहां शहर-शहर, गांव-गांव भाषा बदल जाती है। जैसे बंगाली है तो एक ही बंगाली है।
दुष्यंत:नहीं है बंगाली पूरे बंगाल में एक जैसी।
रामकुमार:कहीं भी नहीं है, भाषा तो एक जैसी कहीं भी नहीं है। कमर्शियल ढांचे की ओर से ये तर्क दिया जाता है। भाषा तो वैसे ही बदलेगी। बिहार में, यूपी में कहीं भी बदल जाएगी। भाषा उसी दूरी पर बदलती है।

तो भाषा की कोई दिक्कत नहीं है?
रामकुमार:सिनेमा अपने आप में एक अपनी भाषा है। अपने आप में इडिंपेंडेंट भाषा है। हम इटालियन फिल्म देखते हैं कभी लगता है क्या कि हम इटालियन देख रहे हैं? सबटाइटल भी तो होता है उसमें। कम्युनिकेटिव चीज ही तो महत्वपूर्ण है। आप मेरे को बताएं उदयपुर में राजस्थानी बोलने वाला आदमी शेखावाटी में बोलेगा, समझ में आएगा। और इतना ही कम्युनिकेशन होता है। अलवर वाला आके जयपुर में बोलता है, तो आएगा ही। सब समझ में आएगा, एक आध शब्द कोई ऊपर-नीचे होगा। ये तो एक साजिश है कि नहीं साब ये नहीं है वो नहीं है। कैसी बात करते हो? अब ‘छे'और ‘है'ही तो फर्क है। आप सीधे के सीधे बोलो सारी भाषा समझ में आती है।
दुष्यंत:जब हिट था राजस्थानी सिनेमा तब कौन सी भाषा थी?

वो बहुत सीमित जगह रिलीज होती थी?
दुष्यंत:हिट तो होती थी न। कमर्शियली वायेबलथी उसी भाषा में।
रामकुमार:समझ में आ जाती है। मेरे को आप एक बात बताइए, अपने यहां जो सिनेमा आया है इन दिनों में - पान सिंह तोमर। ‘पान सिंह तोमर'की भाषा क्या थी। खास उस जगह की। उन्होंने तो सबटाइटल के साथ रिलीज की थी। मैं कहता हूं सबटाइटल न भी होते तो उसके कम्युनिकेशन में क्या फर्क पड़ता था। मोड़ा-मोड़ी... यार ... मैं तो खैर जानता था ... जान जाते लोग... तीन बार बोलते न मोड़ा-मोड़ी, तो समझ जाते। बिंब भी तो है। सिनेमा में सामने चित्र भी तो दिख रहा है। कैरेक्टर भी तो सामने है। वीडियो आपके सामने है। आप देखो अंगरेजी की हम फिल्में देखते हैं, मुझे तो यार आधी भाषा समझ में आती है, मैं तो सबटाइटल में पढ़ता हूं। लेकिन आप सबटाइटल न भी देख रहे हो तो आपको फिल्म समझ में आती है। उतना रस नहीं ले पाते, लेकिन राजस्थानी में ये समस्या नहीं है। बीकानेर से लेकर डूंगरपुर तक आप बोलेंगे समझ में आएगा। एक्सट्रीम बॉर्डर्सपर लगेगा आपको दूसरी भाषा का टच लेकिन एकवाइडरसमाज को एक वाइडर ऑडियंसको जोड़ती है। और बनेगी, फिल्म बनेगी। पंजाबी (सिनेमा) खड़ा हो गया है, हमारे सामने देखते-देखते ही। पंजाबी सिनेमा इतना बड़ा हो गया कि हॉलीवुड की फिल्में डरती हैं उसके सामने अपनी फिल्म लाने से। मराठी सिनेमा कितना रिच सिनेमा है। अब ‘फैंड्री' (2013, नागराज मंजुले) में जो भाषा यूज हुई है, वो दो-चार डायलॉग ऐसी ही भाषा में है जो सिर्फ एक खास कम्युनिटी बोलती है। और फैंड्री सूअर को कहते हैं। वो फैंड्री मराठी का शब्द नहीं है। जो सुअर पकड़ने वाले लोग हैं न, उनकी ही भाषा में फैंड्री सूअर को कहते हैं। उनके रिश्तेदार और बच्चे आते हैं, एक शादी-वादी का सीन है, उसकी बच्ची को देखने आते हैं तो वो आपस में अपनी भाषा में बात करते हैं। वो मराठी नहीं है, लेकिन कम्युनिकेटिव है।

पीयूष मिश्रा से मुलाकात हुई थी चंडीगढ़ में का‌फी वक्त पहले। बातचीत हुई। जिस इमेज की वजह से हम उनसे बात करते हैं कि दिल्ली वाले पीयूष मिश्रा, ‘गुलाल'में वो गाना लिखने वाले पीयूष मिश्रा, उनमें अब काफी बदलाव आ गया है। वो कहते हैं कि यार फर्जी बात है सब। वो कहते हैं ‘बॉडीगार्ड'बहुत अच्छी फिल्म है। अगर 100 करोड़ कमा रही है तो सक्सेसफुल है, उसके ऊपर आप सवाल मत खड़े करो। आप क्या कभी इस लॉजिक पर आएंगे या आना चाहेंगे? या अभी भी इसी लॉजिक पर हैं कि उसको हमने स्वीकार कर लिया है, बॉलीवुड शब्द को, बॉडीगार्ड को, रेडी को, कोका कोला को।
एक्सेप्ट किया हुआ ही है। इसमें मेरा कोई विरोध नहीं है। मैं तो मेरी बात कर सकता हूं। वो (बॉडीगार्ड) लिखना आसान है। मतलब बहुत आसान है। जब आपके पास एक सितारा है, आप तुरंत लिख दोगे, चार डायलॉग। वो स्टार ड्रिवनफिल्म है। वो अच्छी-बुरी है मेरे कहने से भी क्या फर्क पड़ेगा। और वो सच्चाई है। लेकिन मुझे वो सैटिस्फैक्शननहीं देता वो लिखना। मेरी कोई एक दिन मजबूरी हो गई कि कमा कर खाना ही है तो लिखूंगा। लिखूंगा। मेरा कोई विरोध नहीं है। लेकिन वो रमता नहीं है। वो सिनेमा देखने भी मैं नहीं जाता। वो तो मेरी मजबूरी है। अब देखिए मैं रिव्यू करता था तो जब भी मैं कोई ऐसी फिल्म देखता था, जैसे सलमान की फिल्म आई... अापने दो लाइन भी उल्टी लिख दी तो आप देखिए आपके फेसबुक के नीचे ऐसे कमेंट आते हैं कि ‘साले तू फिल्म समीक्षक समझता क्या है?'‘ऐ हरामी सल्लू भाई को ये कहता है...।'तो ठीक है। अब ऑडियंस है वो। उसको तो क्या कहूं मैं। अच्छी फिल्म तो नहीं है वो। अच्छी फिल्म तो नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है।

भारत में जो भारतीयता थी - तिरंगे वाली भारतीयता नहीं - जैसे हम आपस में रहते आए हैं वो भारतीयता, आपको लगता है कि अब भारत जिस रास्ते निकल गया है जो तथाकथित विकास वो पकड़ना चाह रहा है या जो तथाकथित कॉरपोरेटाइजेशन वो लाना चाह रहा है... इस बीच आज से 40 या 30 साल बाद वो बनी रहेगी?
नहीं, नहीं रहेगी।

और फिर कैसे और कितना सहज आप उसमें हो पाएंगे?
सहज नहीं... मुझे लगता है ये एक सतत स्ट्रगल है। आप ये देखिए कि हम लोग वो भी नहीं हैं जो वैदिक काल में थे और हम थोड़े से वो भी हैं। एक जनरेशन पूरी लगातार स्ट्रगल करती है। संस्कृत के लिए एक पूरी जनरेशनस्ट्रगल कर रही है, न केवल कल्चर के लिए बल्कि भाषा के लिए भी। कल्चर और भाषा में अंतरसंबंध है। वो नहीं रहेगी लेकिन सर आपके पास उपाय नहीं है। ये सतत प्रक्रिया है। आप देखिए कि आज से 20 साल पहले लखनऊ एयरपोर्ट पर उतरते तो आपको लखनऊ का आभास होता था, जयपुर एयरपोर्ट को देख लीजिए, आप मुंबई उतरो, आप दुबई उतरो सबकुछ एक जैसा है। यूनिवर्सल। आप खाने में देख लीजिए। आप यहां पिज्जा खा लो, आप वहां खा लो, आप कहीं खा लो। आपका खाना खतम हो रहा है साब। खाने-पीने का कल्चर खतम हो रहा है। और ये बहुत तेजी से हो रहा है। बहुत तेजी से। अब इसका दुख मनाने का कोई अर्थ नहीं है।

एक लाल सिंह दिल जैसे व्यक्ति भी रहे जो कहते रहे, ‘मैं नहीं शामिल होता। मैं नहीं हार मानता। मैं शराब पीके मर जाऊंगा लेकिन मैं नहीं मानूंगा ये।'पंजाब के दलित कवि थे।
ठीक है। लेकिन मानने के अलावा मेरे पास विकल्प क्या है। मेरे पास विकल्प है कि मैं अपने आप को बचाए रख सकूं। सबसे महत्वपूर्ण चीज ये है।

लेकिन ये लॉजिक तो सभी दे सकते हैं। हम जिनकी आलोचना करते हैं या जिस वीआईपी के खिलाफ आपने ‘जेड प्लस'में लिखा है, वो कहता है कि ‘मैंने अपने आपको सरवाइव करने का यही विकल्प पाया। और मुझे लगता है कि ये सही है। आप क्यों बुरा मानते हैं।'ये लॉजिक तो फिर कोई भी दे देगा।
नहीं ...लेकिन मैं अगर अपना काम कर रहा हूं तो मुझे लगता है कि सबसे पहले तो मैं करूंगा न। उसके बाद अगर मेरी फैमिली के दो लोग मेरे उसपे चलेंगे, उसके बाद मेरे परिवार के चार लोग उस पर अमल करेंगे। बाकी आप क्या करेंगे? मैं एक एक्टिविस्ट नहीं हूं। बिलकुल स्पष्ट रूप से कह दूं। मैं एक लेखक हूं। तो एक लेखक के तौर पर मैं अपने आप को जहां तक बचा सकता हूं। और मैं अपने आपको जहां तक अपनी रचनाओं में बचा सकता हूं। और मेरी रचनाएं अगर किसी चीज को बचा सकती हैं तो वो मेरी लड़ाई है। वो लड़ाई रहेगी।

आपकी रचनाओं में डिक्टेट होने लगे कि साहब ये जोड़िए, ये डब्बा इधर बनाइए, ये एंगल निकालिए, इस किरदार को ये यहां बनाइए, ये नाच रखिए, ये गाना रखिए। वो फिर आपकी रचना तो रहेगी नहीं?
ये उस माध्यम की तो मजबूरी है। अभी तो इंशाअल्लाह मेरी वो मजबूरी नहीं है। जो मैं काम कर रहा हूं। लेकिन अगर मुझे लगे कि उस माध्यम में काम करते हुए मुझे वो करना है तो मेरे पास दो विकल्प है। मैं क्विट करूं या स्ट्रगल करूं। तो मैं कोशिश करता हूं कि स्ट्रगल करता रहूं। और मेरी ऐसी मजबूरी न बने। क्यूंकि हमारा समय ऐसा है कि उस चीज के लिए भी स्पेस है। उस सिनेमा के लिए भी स्पेस है...

उनका फोन आता है...

दुष्यंत:ये आपकी अफॉर्डेबिलिटी पर निर्भर करता है। कुछ लोगों ने इसीलिए सिनेमा बनाना बंद कर दिया है। गुलजार सिनेमा नहीं बना रहे। इतने बड़े मीडियम में जो निर्णायक लोग हैं उनकी अफॉर्डेबिलिटी का ये लेवल तो जरूर है कि वो ये तय कर लें कि यार मुझे अपने मन का काम करना है कि नहीं करना है। चंद्रप्रकाश द्विवेदी के पास आज ये मजबूरी नहीं थी कि वो अपने सरवाइवल के लिए फिल्म बनाए। अपने मन के लिए फिल्म बनाई उन्होंने...
रामकुमार:उन्होंने छोड़ा है मेरे सामने उदाहरण है। एक कमर्शियल फिल्म उनके पास आ गई थी, एक बड़ा सितारा उसमें काम कर रहा था और बड़े सितारे ने कहा कि ‘डॉक साब छोड़ो यार क्या अब... हो गया कमिटमेंट ... अब बणाओ ये फिल्म और ये वही राइटर है जिसने फलाणी ब्लॉकबस्टर लिख दी।'तो आए वो, तीन-चार सिटिंग हुई। मेरे सामने। ‘जेड प्लस'के पैरेलल एक कहानी चल रही थी। और डॉक साब ने उसको भगा दिया। बोले, ‘थक गया हूं मैं नहीं कर सकता।'मैं कह रहा हूं ‘बॉडीगार्ड'लिखना आसान है लेकिन मैं नहीं लिख सकता। ये मेरे बस की बात नहीं है।

अभी जो एक पीढ़ी है - अनुराग (कश्यप) जब आए थे उस समय या उससे पहले से रही - उसने सुना कि बॉलीवुड में ये खेमे बने हुए थे, इन खेमों में ये पैसे वाले खेमे हैं, ये पॉलिश की हुई - मेकअप वाली - स्विस ख्वाब वाली फिल्में बनाते हैं, हम ऐसी नहीं बनाएंगे, हम ये जो पूरा स्टार किड्स वाला सिस्टम है इसके खिलाफ हैं, अमिताभ खराब है, करण जौहर खराब है। वो उसके दोस्त बन गए आज। करण जौहर उनके बहुत अच्छे दोस्त हैं। कोका कोला का विज्ञापन उन्होंने बनाया है। इधर नसीरुद्दीन शाह वगैरह पर आइए तो श्याम बेनेगल की फिल्में करते थे तब से उनको फॉलो किया गया। लोग अलग ही एक गली में निकल गए थे ऐसे लोगों के पीछे-पीछे कि साहब ये ही वो हैं... अब वो ये बोलते हैं कि ‘हैप्पी न्यू ईयर'मुझे बहुत पंसद आई, मुझे बहुत मजेदार लगी, इसमें मेरा बेटा भी है, फराह (डायरेक्टर) मुझे पसंद है। पीयूष का उदाहरण दे ही दिया। ... सवाल ये है कि जिन लोगों ने साथ देना शुरू किया कि आप लोगों की सोच में सार्थकता दिखाई दे रही है तो हम आपके साथ हैं, या इसे एक्सप्लोर करना चाहते हैं। जब लोग निकले तब किसी ने मना नहीं किया कि मेरे पीछे न आओ। फॉरेस्ट गंपकी तरह। लेकिन अब अनुराग हो गए या अन्य हो गए, वो कहते हैं कि साब मैंने तो नहीं कहा मेरे पीछे आओ। मैं तो अपनी जर्नी चल रहा था। मैं तो अपना सपना खोज रहा था। मैं सड़क पार करके उस तरफ आ गया हूं, मैंने तो नहीं कहा था। आप एक्सपेक्टेशन का बोझ मत डालो। मेरे को लीडर मत बनाओ। जब कम्फर्टेबल लगा तब शायद वे थे भी। अब जब सेफ जोनमें आ गए हैं तो अब भीड़ की जरूरत नहीं और सबको झटक दिया गया।
दुष्यंत:मुझे लगता है शायद वो बात है कि बीस साल की उम्र में जो कॉमरेड नहीं बना उसका जन्म लेना बेकार है और 30 के बाद भी जो कॉमरेड है बना रहा उसका जीवन बेकार है...

लेकिन मुझे लगता है हमें इस कोट से अलग भी कुछ खोजना चाहिए न। ये एक दीवार है कि जब भी कोई सवाल खड़ा करे तो हम उसके सामने रख देते हैं। कुछ खोज सकते हैं क्या हम?
रामकुमार:देखो ये है न कि एक तो ये बहुत महंगा मीडियम है। ये तो अनुराग भी शुरू से कहता रहा है, मैं लगातार उसको सुनता रहा हूं, कि यार ये इतना महंगा मीडियम है कि मैं फिल्म बनाऊं तो मेरा निर्माता कम से कम इस पोजिशन में रहे, इतने पैसे हम कमा लें कि एक फिल्म और बनाएं। जो हम लगातार कह रहे हैं। आप अपनी तरह का सिनेमा बनाओगे तो ये स्ट्रगल आपको करना ही पड़ेगा। अब एक लेवल के बाद आपको लगता है कि नहीं यार मैं कब तक करूंगा? कब तक करूंगा? तो आप वो ब्रैकेट तोड़ते हो। और वो ब्रैकेट तोड़ते हो तो वो उस आदमी का निर्णय है। किसी धारा पे चलने या अनुयायी बनने वाली चीज नहीं है। मैंने आपको बताया न कि मैं तो गांव से निकला हूं। मैं तो सबसे ज्यादा इंस्पायर्ड रामानंद सागर की ‘रामायण'देखकर हुआ। मुझे लगता था यार क्या आदमी है। रामलीला से (प्रेरित) हुआ हूं। रामलीला देखता था बचपन में तो लगता था कि ये ही रियल राम है और राम अभी जिंदा है जो सामने मैं देख के आया हूं। वो सीता है। तो प्रेरणा कहां से मिली और कहां जाकर जर्नी पहुंच गई। तो मुझे लगता है कि आप खुद ही मैच्योर होते जा रहे हो। आप अपना डिसीजन लेने लगते हो। तो आपको लगता है कि यार वो मेरा निर्णय गलत था। अब उसके ऊपर तो क्यूं टीका-टिप्पणी करूं मैं? उसे अच्छा लग रहा है तो ठीक है। हमने अपनी मर्जी से चुना न सिनेमा। बंदूक की नोक पे नहीं थे न। कहानियां लिखना, हमारी कोई परंपरा ही नहीं थी। कहानी इसलिए लिखना शुरू किया कि हमको अच्छा लगता था। अगर मेरा दिमाग ही खराब हो जाए कि अब कहानी मुझे नहीं चाहिए अब पैसा ही चाहिए तो ठीक है क्या कर सकते हैं। और आप ये कहो कि नहीं भई हम तो क्रूसेडर हैं, आप हमको फॉलो कीजिए, ऐसा तो कभी हुआ भी नहीं। इस तरह का मूमेंट कहां रहा है? और जो लोग कमिटमेंट वाले रहे हैं वो अंत तक करते रहे हैं। दुनिया हालांकि ऐसे ही लोगों की वजह से जिंदा है। वो लोग करते रहे हैं कि भई हम तो हमारे ही तरह का सिनेमा बनाएंगे। लेकिन अल्टीमेटली ये माध्यम ऐसा है जिसमें बहुत पैसा लगता है। और कहीं न कहीं आप जब सिनेमा में घुस रहे हो तो आपको पता रहता है कि भइया ये तो मुझे करना पड़ेगा।

नहीं, मेरा कहना ये है कि जिन लोगों ने दस साल पहले आपकी बातों को गंभीरता से लिया, उस समय आपके लॉजिक कुछ और थे और आज कुछ और हैं। तो जिसने गंभीरता से उस समय लिया उसको क्या करना चाहिए? वो तब की बात आपकी माने या आज की बात माने?
ये तो अब मैं कैसे कहूं? ये मीडियम ऐसा ही है, वहां लोग बदलते तो हैं।

बेचारा करण जौहर बोल-बोल के थक गया दस साल पहले कि मीडियम ऐसा है इसलिए मैंने ‘कुछ कुछ होता है'बनाई तो उस समय तो हम गाली देते-देते और पत्थर मारते-मारते रुके ही नहीं। अब हम खुद भी वही बोलने लगें तो फिर तो ये पूरा विमर्श ही व्यर्थ है। अगर हम ‘जेड प्लस'का भी कहें तो वो हमारा आक्रोश मिलावटी मानें? क्या ऐसा है? या ये कि साब बहुत सीमित सिचुएशन में हमसे ये हुआ, हमने ये किया और ओवरऑल जो एक सवाल है इसको इतना आसानी से कह पाना या समझ पाना मुश्किल है। इस पे अभी हम विचार ही कर रहे हैं। इसका कोई उत्तर ही नहीं है?
नहीं नहीं, उत्तर खोजने की बात नहीं है। मुझे तो देखो शुरू से ही ये संदेह नहीं रहा कि ये इस तरह का माध्यम है। हम लोगों ने ‘भोभर'भी बनाई थी तो हमको पता था यार कि निर्माता ढूंढ़ना, निर्माता के साथ काम करना, उसके प्रति तो हमेशा एक सहानुभूति रही है। आप अपना काम कर रहे हो, अपनी मर्जी का काम कर रहे है, उसी में से रास्ता निकालोगे ने सर। दूसरा रास्ता ये है कि मैं थियेटर करता हूं या तैयारी करता हूं। ऋत्विक घटक ने ही कहा था शायद कि सिनेमा ऐसा माध्यम है न कि मैं उससे व्यापक रीच बना सकता हूं अपनी कहानियों की। और मैं अगर इस लड़ाई में ही पड़ जाऊं। मैं वो काम करते रह सकता हूं जो मुझे अच्छा लगे। तो मैं उसपे कायम रह सकता हूं। मैं उसपे थोड़े ही कहूंगा कि भई तुम ऐसा कर रहे थे और तुम बदल गए। और ‘जेड प्लस'का आक्रोश जो आप इससे कनेक्ट कर रहे हो मुझे लगता है कि उसमें कोई अंतरभेद नहीं है। मेरा गुस्सा तो है ही यार। कमर्शियल सिनेमा में भी गुस्सा तो आता ही है। ये बात और है कि वो उस पूरे गुस्से को आकार नहीं दे पाते। अब अमिताभ बच्चन बना एंग्री यंग मैन वो पूरे गुस्से का ही तो प्रतीक था। वो अपने समय का गुस्सा था। मुझे लगता है कि मेरा गुस्सा जो है वो मेरी रचनाओं में आएगा ही। वो उसकी मौलिकता है। उसका संबंध ये नहीं है कि मैं उसके लिए जाकर काम कर रहा हूं। हो सकता है करूं यार मैं, करण जौहर के लिए भी काम करूं। हो सकता है मैं यशराज के लिए काम करूं और कर ही रहे हैं। जयदीप साहनी.. जिन लोगों ने ‘खोसला का घोंसला'बनाई आज वो लोग काम कर रहे हैं उनके साथ। और ऐसा नहीं है कि वो कोई खराब कर रहे हैं। आप सोच सकते थे क्या आज से पहले कि वे लोग इस तरह की फिल्मों में निवेश करेंगे। ये जो ऑफ-ट्रैक फिल्में हैं। चाहे वो ‘चक दे इंडिया'ही हो। अब सब लोग कर रहे हैं। आपके करण जौहर ‘द लंचबॉक्स'का प्रोड्यूसर हैं।

लेकिन आपकी और उनकी वैल्यूज (मूल्य) अलग हैं न? कभी हम उनकी वैल्यू से असहमत थे, अब उनकी वैल्यू और हम एक ही हो गए। सिर्फ एक बिंदु पर कि सिनेमा महंगा माध्यम है इसलिए आज तक जो उन्होंने बनाया उसके साथ हम खड़े हैं। कि साब उन्होंने क्या गलत किया? अब हमें आभास हुआ कि वो तो सही थे। ये सवाल क्या अभी भी खड़ा है या इसका उत्तर हम निकाल चुके हैं?
यार देखो ये तो सच्चाई है कि हम लोगों को जितना आगे होना चाहिए उतना आगे तो नहीं ही हैं। ये तो सच्चाई है। और हमने सिनेमा को इतना सितारा केंद्रित कर दिया है कि कंटेंट तो दोयम दर्जे का हो ही गया है। होगा कुछ। कोई दुराग्रह नहीं रहा अब? हम इस मीडियम के क्रूसेडर नहीं है। हम लोग कोई नेता बनकर तो नहीं ही जा रहे हैं। हमारी जो सोच थी वो रहेगी ही। अभी भी है। कि भई सिनेमा होना चाहिए, अच्छा हो।

फेवरेट फिल्ममेकर्स कौन-कौन से हैं आपके? भारत में और बाहर।
जब मैं एफटीआईआई गया था फिल्म एप्रीसिएशन कोर्सकरने तो पूरे सिनेमा को एक खास नजरिए से देखा था। तब बर्गमैन (Ingmar Bergman) ने बहुत प्रभावित किया। कि किस तरह से वो कहता है अपनी बात। भारत में मैंने पहली फिल्म ‘शोले' (1975) देखी। और ‘शोले'मुझे बहुत अच्छी लगी। लेकिन ‘शोले'से भी ज्यादा अच्छी मुझे ‘जाने भी दो यारों'लगी। ‘पाथेर पांचाली' (1955) जब पहली बार देखी... क्योंकि उस तरह से तो हमारे समाज में सिनेमा नहीं पढ़ाया गया है। हमको तो एक अपराध की तरह देखा है कि हम लोग अपराधी हैं। सिनेमा देख रहे हैं तो अपराधी हैं। हॉस्टल से कूद-कूदकर, भागकर फिल्में देखता था और वो दौर मिथुन चक्रवर्ती का था। हमको बहुत अच्छी लगती थी। मैं तो मिथुन को कॉपी करता था। बाल यूं का यूं कर लेता था, अच्छी लगती थी। समय के साथ-साथ वो चीजें बदलती रहीं। टेस्ट भी बदलता रहा। सिस्टमैटिक ढंग से कभी पढ़ा ही नहीं। जैसे मैं कोशिश करता हूं कि मेरे बच्चों को पढ़ाऊं (सिनेमा)। कि देखो मैं फिल्म दिखाता हूं देखो ऐसी है। इस फिल्म को देखो। तुम ‘ब्रेथलेस' (1960) देखो भई जिसमें गोदार (Jean-Luc Godard) ने सबसे पहलेजंप कट (Jump cut) दिया था। तो तुम देखो, ये क्या होता है जंप कट।जब लोग नहीं जानते थे तब उसने दिया। अब मैं बता सकता हूं कि ये लोग हैं जो इस तरह से काम करते हैं। जैसे सत्यजीत रे हैं। जब ‘पाथेर पांचाली'मैंने देखी, तब मुझे लगा यार ये भी सिनेमा है। हम तो मिथुन चक्रवर्ती के सिनेमा के आदमी थे। हमने ‘मेघे ठाका तारा' (Meghe Dhaka Tara, 1960) देखी तो लगा यार ये भी सिनेमा है। नहीं तो शुरुआत ही ‘शोले'से हुई है। फिर ‘जाने भी दो यारों' (1983, Kundan Shah) देखी तो लगा ये भी है। फिर ‘इजाज़त' (1987) देखी। कॉलेज में ही था। वो समय ऐसा था कि फिर ढूंढ़-ढूंढ़ कर गुलजार साहब की सारी फिल्में देखीं। ‘माचिस' (1996) लाओ ये लाओ। समय के साथ मैच्योर होते गए। वरना के. सी. बोकाडिया हमारे स्टार थे। ‘आज का अर्जुन' (1990) एक जमाने में भागकर फतेहपुर के उस थियेटर में देखी। बेसिकली तो हम उसी सिनेमाई परवरिश से निकले हैं। फिर ये सिनेमा देखा। ये तो सोचा ही नहीं था कि देखते देखते हम उसके हिस्से हो जाएंगे। और फिर हम लोगों से भी वो ही सवाल टकराने लगेंगे। नैतिकता-अनैतिकता। बिजनेस वगैरह। मतलब कल्पना थी। गांव से निकलकर एलिस इन वंडरलैंड की उस दुनिया में जा रहे हो। तो बेहतर है कि आपके पास एक साहित्य का बैकग्राउंड है तो अच्छा लगता है। कि यार आप चीजों को समझ सकते हो। उस तरह से जिस तरह से आप समझना चाहते हो।

आज ‘आज का अर्जुन'कितनी पसंद है? ‘शोले'कितनी पसंद है?
अब नहीं है पसंद। अब ‘आज का अर्जुन'पसंद नहीं आती। अब ‘तेरी मेहरबानियां'पसंद नहीं आती।

सच क्या है? जो दस साल पहले था या जो आज है?
पता नहीं। और हो सकता है दस साल बाद कुछ और हो जाए। ये अजीब है। मतलब मुझे खुद नहीं पता। क्योंकि आप सोचिए हम लोगों को जब पहली बार फिल्म दिखाई गई थी तो सबसे पहले फिल्म लगाई गई थी ‘जय संतोषी माता' (1975), उसके बाद ‘शोले'लगाई गई थी। तो ‘जय संतोषी माता'में मैंने उतना थ्रिल महसूस नहीं किया जितना ‘शोले'में किया। और ‘शोले'में पीछे-पीछे लोग डायलॉग बोलते थे कि कितने आदमी थे। फिल्म 1975 में आ गई थी और मैं 75 में पैदा हुआ हूं। मैंने पहली बार गांव में वीसीआर लगाकर उस तरह से देखी जिस तरह से हमारा सिनेमा का कल्चर है। गांव में रात भर वीसीआर चलते थे। तो लगता था अरे यार क्या फिल्म है? और मुझे लगता है ऑडियंस भी इसी प्रोसेस से चलेगी। एक दिन धीरे-धीरे लोग मैच्योर होंगे उन्हें लगने लगेगा कि इस तरह का सिनेमा देखें। जैसे हॉलीवुड में हर तरह का सिनेमा है। बकवास भी है तो बीच में अच्छी फिल्में भी हैं। आपको लगता है कि हां यार ये एक नए आइडिया पर है। मतलब बच्चों की फिल्मों को लेकर वो किस तरह से काम कर रहे हैं। जैसे ‘लॉयन किंग' (1994)। अब तक मैंने ‘लॉयन किंग'कितनी बार देख ली। मैंने सबसे पहले मेरे बच्चों को दिखाई कि देखो यार। वो पूरी हिंदुस्तानी कहानी है, बदले की कहानी है। लेकिन किस तरह से कही गई है। उसमें तकनीक भी है, उसमें जादू भी है, उसमें मतलब सबकुछ है। कैसे वो काम करते हैं जैसे हम लोगों ने नहीं किया। बच्चों के सिनेमा को उस तरह से हमने कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। उनके यहां डिज्नी किस तरह से फिल्में करता है। हमारे यहां बच्चों की फिल्म जोखिम है।

कौन सी ऐसी फिल्म है जो आप सुझाना चाहेंगे कि जीवनकाल में एक बार जरूर देखनी चाहिए? जो सारी आलोचनाओं के परे जाकर खड़ी हो जाती है।
‘जाने भी दो यारों'अभी भी न, उसने मेरा सोचने समझने का पूरा तरीका बदल दिया। जैसे ‘जेड प्लस'है तो कहीं न कहीं मुझे लगता है कि उसी जमीन पर है। उस फिल्म की जर्नी पढ़ना मेरे लिए बहुत इंट्रेस्टिंग था कि किस तरह से इन लोगों ने काम किया। बजट भी कम था। वो उल्लेखनीय आज भी बनी हुई है। वो ऐसे लोगों ने बनाई जो जुनूनी थे। कुंदन शाह ने कहा था कि पंकज कपूर के घर गए थे वो और बोले लोकेशन देखकर आएंगे। पंकज कपूर बड़े तैयार हो-हुवा के निकले। पंकज कपूर ने ही कही है ये बात। बाहर आए, बोले, चलो आज तो सुबह-सुबह घूमेंगे।बोले, कहां है गाड़ी, कहां है? कुंदन बोले, गाड़ी कहां है बस से चलेंगे न।तो वो लोकेशन देखने बस से गए। फिर सबसे ऊपर फिल्म का कंटेंट

‘जेड प्लस'सबसे पहले आपने जिस स्वरूप में सोची थी क्या बनने के बाद भी वैसी ही है?
बिलकुल। बेहतर ही लग रही है मुझे अब। मतलब मेरा एक स्ट्रगल था कि असलम को मारा जाए कि नहीं। मैं इतना क्रूर होता हूं मेरी कहानियों में, ईमानदारी से कहूं तो। मेरी कहानियों के कैरेक्टर मर जाते हैं। ‘भोभर'में भी मर जाता है। मेरी ‘गिलहरी'मेें भी जो लड़का है जो यौन संबंधों को समझने की कोशिश कर रहा है और भागने-बच के निकलने की कोशिश में मर जाता है। तो मैं इतना क्रूर होता हूं। हालांकि क्लाइमैक्स वही है (जेड प्लस) का जो मैंने मूल कहानी में लिखा था। जिसमें एसपी कहता है कि ये सब गंदे लोग हैं और इन्होंने तो एनकाउंटर का हुकम दिया है। तो मुझे लगा कि यार मैं अपने हर कैरेक्टर को मार नहीं सकता। मतलब मैं हमेशा उम्मीद खत्म नहीं कर सकता। मैं उसको जिंदा रखना चाहता था। क्लाइमैक्स में चीजें जरा सी सिनेमैटिक लिहाज से बदली हैं। बाकी वही कहानी है। मेरा मन तो यही था कि ये मार देंगे। जो आदमी इतनी बदनामी का कारण बन गया है जो सरकारों को इतना कटघरे में खड़ा कर रहा है। इस आदमी का रिडिंप्शन (प्रायश्चित) इतना बड़ा है कि सबको नंगा कर रहा है तो इसको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। फिर मुझे लगा यार नहीं, ये आदमी कस्बे में रहना चाहिए। इन सबकी हवा निकाल के, सब कहें कि यार तुम तो हमारे स्टार हो। तुम अभी भी खड़े हो।

एक लेखक अपने पात्रों के प्रति जितना क्रूर होता है क्या खुद के प्रति भी उतना ही होता है असल जिंदगी में? क्यों नहीं होता है?
होता ही है, क्रूर होता है। निर्भर करता है यार। हम लोग तो क्रूर होते ही हैं। लेखक सबसे सीधा आदमी होता है। आप फिल्म लाइन में भी देखें तो उसे यूं लिया जाता है कि यार ये तो लेखक है इसको देख लेंगे। हालांकि इज्जत सब करते हैं लेकिन वो सबसे वलनरेबल (कमजोर) होता है। कि सबसे पहले कुछ भी कटौती करेंगे तो लेखक से करेंगे। क्यूं? क्योंकि वो इमोशनल आदमी होता है। और समाज है क्रूर। तो फायदा उठाते हैं उसका। उसका लेखक होना ही उसकी सजा है।

भंवरी देवी मामले पे दो फिल्में बन चुकी हैं (डर्टी पॉलिटिक्स, सीडी कांड)।एक स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर मौका मिला तो आप इस कहानी को कैसे प्रस्तुत करना चाहेंगे?
मदेरणा (महिपाल) और भंवरी देवी वाले पूरे प्रकरण ने मुझे कभी थ्रिल ही नहीं किया कि इसपे फिल्म बननी चाहिए। हम लोगों के साथ समस्या ये है कि हम लोगों के साथ कुछ भी होता तो तुरंत उसे सिनेमा का रूप देने लगते हैं। तात्कालिक तौर पर मैं अपने जीवन में कोई निर्णय नहीं लेता। मैं बहुत लंबे समय से सोच रहा हूं कि दारिया (दारा सिंह उर्फ दारिया मुठभेड़ मामला, अक्टूबर 2006) पे काम करूं। बाद में किसी ने अनाऊंस भी किया कि वो फिल्म बना रहे हैं। एनकाउंटर को सात साल हो गए और मुझे आज भी लगता है कि इस आदमी को कहां से शुरू करूं? उसके बारे में मैंने बहुत सारी जानकारियां भी जुटाईं। लेकिन त्वरित रूप में मैं कुछ कर ही नहीं सकता। भंवरी देवी मेरे लिए फिल्म का विषय ही नहीं है। कोई उस पर फिल्म बना रहा है तो बहुत जल्दबाजी है। पोलिटिकल बीज तो मैं बताऊं बचपन से हैं। आप एक-एक चीज ऑब्जर्व कर रहे हो, दोस्तों को देख रहे हो। ‘जेड प्लस'में देखें तो जितनी घटनाएं हैं वो मैंने पोलिटिकल ली हैं, असली हैं, फिल्म काल्पनिक है। घटना है कि एक आदमी पैसे देकर काम करवाता है। अरे यार वो मेरा दोस्त है, मेरे सामने उसकी जमीन का पट्‌टा रद्द हो गया और मेरे को कह रहा है कि ये तो उलझ गया है। ऐसी बहुत सारी रियल घटनाएं हैं। डायलॉग्स हैं। जैसे हम बच्चे थे। गांव में लड़ाई हुई तो बरछी बनवाने गए। लुहार को बोले, कि डांडा सही लगाना ऐसा न हो कि मारने जाएं और कोई हमको ही निपटा दे, डंडा टूट जाए। तब उसने लुहार ने एक डायलॉग बोला, बोला भाईसाहब चिंता मत करो, गां# चली जासी पर जांघियो कोनी जा।वो डायलॉग ‘जेड प्लस'तक साथ है। कहां? जब हमीदा अपनी जूती बेचती है तो वो मोड़ के कहती है कि ‘बहुत मजबूत है, मियां चक चक करे तो रोज सिर में मारना, सिर फूट जाएगा पर जूती कहीं नहीं जाएगाी।'और इतना ठंडा करके... इतने सारे डायलॉग हैं.. जैसे हम डॉक साब के साथ स्क्रिप्ट लिख रहे थे तो फिल्म में वहां जब असलम का ईमान डोलता है .. वहां मैंने कहा, डॉक साब मेरी मां एक बात कहती थी कि ‘दिन खराब हो ना तो ठीक हो सकते हैं लेकिन एक बार नीयत खराब हो गई ना तो ठीक नहीं हो सकती।'डॉक साब ने कहा, ‘यही तो है!'और वो डायलॉग लिखा। बचपन से जो चीजें चल रही है वो अब आ रही हैं। वो क्या है सब। मैं तत्काल जो भी घटना अखबार में पढ़ता हूं। कुत्ते को वो हो गया.. मुझे कभी वो कहानी थ्रिल नहीं करती। हो सकता है मैं एक कहानी दस साल से लिखने की कोशिश कर रहा हूं और मैैं नहीं लिख पा रहा हूं। भीतर इतना स्ट्रगल है कि इसको लिखें कि नहीं। और फिर आपके कैरेक्टर आपसे कहते हैं, ‘नहीं नहीं भाईसाहब, आप गलत कर रहे हो।'अभी मैंने एक कहानी लिखी, ‘आग और पानी।'वो आठ हजार - दस हजार शब्दों की कहानी है। वो पूरे गांव के स्ट्रगल की और एक आदमी की कहानी है। कि किस तरह से वो पूरी दकियानूसी परंपराओं का विरोध करता है और अकेला आदमी खड़ा रहता है। और वो सारे के सारे बिंब मेरे बचपन के हैं। उसमें गांव का नाम ही मैंने बिरानिया रखा है। कि कैसे एक मंदिर बन रहा है और उसके लिए एक करोड़ रुपए इकट्‌ठे हो गए हैं। लाइब्रेरी के लिए आप पांच हजार रुपए मांगोगे, कोई नहीं देगा। कब से, मैं पिछले तीस साल से उस गांव को देख रहा हूं। उस माहौल को जी रहा हूं। तो मैं जिन लोगों को नहीं जानता, जिन किरदारों को नहीं जानता, उन्हें एकदम से कैसे लिखूं? मदेरणा को? आप मेरे साथ हो, मैं दस साल से इसे (दुष्यंत) जानता हूं, पंद्रह साल से इन्हें जानता हूं। मैं रोज इनसे मिलता हूं और एक दिन ये कैरेक्टर बनकर मेरे सामने खड़े हो जाएंगे। कि हां अब माथुर साहब में कहानी वाला... जैसे रेंवत (भोभर में) है। वो मेरा करीबी रिश्तेदार है। मेरी कहानियों के बारे में मेरे गांव वाले पढ़ लें तो गांव में घुसने नहीं देंगे। क्योंकि सब बोलेंगे अरे यार ये तो मेरे साथ हुआ। जब से आप देखने लगे तभी चीजें आपने घुसने लगती हैं आपको पता ही नहीं चलता। और वो पकती रहती हैं, पकती रहती हैं। मुझे कभी थ्रिल नहीं करता कि एक दिन अखबार में कोई खबर मिलेगी और उससे मैं फिल्म की कहानी बना दूंगा। मेरे से नहीं होगा।

कहानी लैपटॉप में लिखते हैं या कागज पर?
लैपटॉप में। पहले नहीं लिखता था। लेकिन अखबार का काम करने लगा तो अब सोचा ही कंप्यूटर पर जाता है। मुझे कागज-पेन दे देंगे तो मैं सोच नहीं पाऊंगा।

ऐेसा नहीं लगता कि लैपटॉप पर हम शब्द ज्यादा खर्च करते हैं? चूंकि बटन बहुत आसानी से दब जाते हैं और जल्दी-जल्दी चीजें लिखी जाती हैं।
अब वो इतना आसान हो गया है और उसके साथ ऐसा अंतरसंबंध विकसित हो गया है कि मैं कागज और पेन ले के नहीं लिख सकता।

डिस्टर्ब हो-हो के लिखते हैं या बिना डिस्टर्ब हुए? जैसे कुछ इंटरनेट पर साथ में सर्फ भी कर रहे हैं।
मैं लिख रहा हूं तो मैं लिखूंगा ही। ये जरूर है कि मैंने बीस मिनट लिखा और आधा घंटा घूमता रहा। खड़ा हो गया, चाय पी ली, कुछ कर लिया .. हो सकता है कभी-कभी रात को नींद ही नहीं आई, लिख ही रहा हूं। लेकिन दूसरी कोई चीज नहीं देखूंगा उस दौरान।

कितने साल के हो गए आप?
उनतालीस (39)।

उनतालीस साल में जिंदगी की कौन सी एक बात आपने सीखी है? कि जीवन का ये मर्म समझ पाया हूं?
अब तो जो समझा हूं, हो सकता है वो पांच साल बाद बदल जाए क्योंकि आठ साल पहले जो मैं सोचता था वो मैं अब नहीं सोचता। ये सच्चाई है। मैं मेरी पत्नी को हमेशा कहता था कि पैसा इम्पॉर्टेंट नहीं है। हमने बचपन से हमेशा सुना कि पैसा इम्पॉर्टेंट है। आज मुझे लगता है कि यार पैसा बहुत जरूरी चीज है। बचपन में हम गाना गाते थे, स्कूल में, कि ‘दुनिया पीसे के पुजारी, पूजा करते नर और नारी...’। ये गाना मैं गाता था स्कूल में 26 जनवरी, 15 अगस्त को लेकिन इससे इत्तेफाक नहीं रखता था। ‘पीसो परदेसां ले जावे, नी तो घर में ही रै जावे, माया पीसे की। पीसो छप्पन भोग करावे, नी तो भूखां इ मर जावे, माया पीसे की।'आज लगता है कि कितना सही गाना था वो। जो बचपन में ही मेरे गुरुजी ने पढ़ाया था लेकिन मैं इत्तेफाक नहीं रखता था। आज मुझे लगता है कि पैसा एक बहुत जरूरी चीज है। और एक लेवल तक पैसा आ जाएगा और आ गया तो मुझे लगने लगेगा कि यार पैसा तो बहुत गैर-जरूरी चीज है। लेकिन जो एक चीज मैं बहुत मानता हूं वो है समय की कद्र। कॉलेज के दिनों में हमारे एक गुरुजी कहते थे कि पंक्चुएलिटी आपको हमेशा पे करती है। अगर आप कोई भी काम टालते हैं या डिले करते हैं तो आप सिर्फ पचास प्रतिशत के लिए लड़ते हैं, पचास प्रतिशत आप खो चुके हैं। इसलिए क्योंकि आपने समय पर वो काम नहीं किया। आप अपनी क्लास में समय पर नहीं आ पाए। या वो नहीं कर पाए। टाइम को लेकर मैं आज भी इतना पाबंद हूं आपको 1 बजे का टाइम दिया है न, तो 12.55 पे ही मिलूंगा। और वो हमेशा अच्छा लगता है।

क्रिएटिव आदमी टाइम में बंधने लगे तो नुकसान नहीं होता?
टाइम इस अर्थ में नहीं। इस अर्थ में कह रहा हूं कि मैंने अगर कोई कमिटमेंट किया है तो उसका पक्का रहूं। बाकी लेखन में तो कोई तय टाइम ही नहीं है। आप कुछ तय ही नहीं कर सकते क्योंकि वो आपके हाथ में थोड़े ही है। आप देखिए कि इसे (जेड प्लस) लिखने का ख्याल मुझे सबसे पहले जब आया था तो उसके बाद चार रात मैं सोया ही नहीं। सोते समय ये हालत होती थी कि नींद नहीं आ रही होती थी तो लगाओ यार दो पेग लगाओ। नहीं तो वो कैरेक्टर ही दिमाग में घूम रहे हैं। फिर जब गति आ गई तो शांत हो गया कि चलो अब चलो। लगभग एक महीना मुझे 100 पेज की कहानी लिखने में लगा। रोज सुबह दो पेज, चार पेज, पांच पेज ऑफिस आने से पहले लिखता था। लेकिन जो शुरुआती चार दिन थे जब आप पूरा स्ट्रक्चर कहानी का सोचते हो, वो बेचैन करने वाला होता है। वो कर लेते हैं तो आसान हो जाता है।

राजस्थान के सबसे कम आंके गए लेखक कौन हैं? जिन्हें हमें ज्यादा पढ़ना चाहिए था पर भुला ही चुके हैं।
बिज्जी हैं (विजयदान देथा)। बिज्जी को हमने राजस्थान में ही उस तरह से नहीं पढ़ा जैसे पढ़ना चाहिए था। जैसे हमें नहीं पता कि हिंदी की सबसे पहली आधुनिक कहानी राजस्थान के आदमी ने लिखी है - ‘उसने कहा था' (चंद्रधर शर्मा गुलेरी 1883-1922)। क्या कहानी है यार! हालांकि उसके बाद उनकी दो-तीन कहानियां और आईं लेकिन वो उल्लेखनीय थी। लेकिन मैं कह रहा हूं कि बिज्जी अपने आप में पूरा खजाना हैं। उन्हें उस तरह से पढ़िए तो और कुछ पढ़ने की जरूरत नहीं है। वो हमारा एनसाइक्लोपीडिया हैं। राजस्थान का ही नहीं एक पूरे कल्चर का।

बिज्जी तो फिर भी एक सेलेब्रिटी राइटर हो गए। राजस्थान के एकमात्र जिन्हें ग्लोबली जाना जाता है। लेकिन वो लेखक जिन्हें शायद हम जानते ही नहीं, जो शायद राज्यमंच पर भी नहीं आते। ऐसे कुछ हैं?
राजस्थानी के बहुत ज्यादा लेखकों को मैंने पढ़ा नहीं है तो कह नहीं सकता।

फिल्म लेखक के तौर पर कैसे विषयों पर काम करने की तमन्ना है?
जैसे मैं अगली कहानी सोच रहा हूं जो कॉनफ्लिक्ट है अर्बन और रूरल सिविलाइजेशनका। कि हम लोग शहर आते हैं और उस कल्चर में किस तरह मिसफिट होते हैं और होते-होते उसी कल्चर का हिस्सा हो जाते हैं।

पृष्ठभूमि राजस्थानी ही रखेंगे आप ज्यादातर की?
हां। उसकी बदल भी सकते हैं मेरे लिए आसान है राजस्थान की लिखना।

एक निश्चय होता है न कि मैं जितना भी लिखूं उसमें राजस्थान ही होगा?
नहीं, ऐसा कोई निश्चय नहीं है। लेकिन ऑथेंटिक तरीके से मैं ऐसी ही लिख पाऊंगा। जैसे ये कॉनफ्लिक्ट वाली है। जब हम पढ़ने आए थे शहर या आपने भी भुगता होगा कि हम गांव से आते हैं और हमें कोई मकान किराए पर नहीं देना चाहता है। हमें विलेन की तरह ट्रीट करते हैं। और एक दिन ऐसा होता है कि हम वैसे ही हो जाते हैं। अब जैसे मैं शहर में रहने लगा हूं तो कोई भी बच्चा मेरे से मकान मांगे तो मैं भी वैसे ही करने लगता हूं। फिर सोचता हूं कि यार शुरू में उसकी तरह मैं कितना स्ट्रगल में था और कोई मेरे साथ दो मिनट बात कर लेता था तो मुझे कितना अच्छा लगता था। जैसे घर के सामने कोई परीक्षा देने वाला बच्चा आता है कि अटेस्ट करवानी है तो मैं साथ लेकर जाता हूं कि ये फलाणा आदमी मेरा जानकार है, ऑरिजिनल देखो और कर दो। क्योंकि मुझे लगता है कि वो बहुत बड़ा काम है। मेरे बच्चे ऐसा नहीं करते। मेरी तो एग्रेरियन (कृषि की) पृष्ठभूमि है और एक लेखक की जिंदगी कितनी कठिन होती है, ऐसे में बच्चे कहते हैं कि ‘डैडी क्या है...!!!'तो वो धीरे-धीरे समझेंगे। आप घर में भी लड़ते हैं कि भई मेरा स्पेस इतना है, मुझे इतना तो दो। अब किसी को काम था दो घंटे के लिए बुला लिया तो कहते हैं यार क्यों चले गए बीच में काम छोड़कर। अरे यार मुझे अच्छा लग रहा था उसकी मदद करके। मुझे लगता है मैं इस पर काम करूंगा कि हम किस तरह बदल रहे हैं।

आपकी फिलॉसफी क्या है लाइफ की?
जानते बूझते किसी के लिए बुरा नहीं करना, बुरा नहीं सोचना, ईर्ष्या नहीं करना। भले ही वो मेरा शत्रु हो। मुझसे नहीं होता। चाहे मेरे पड़ोसी से सबको परेशानी होगी कि यार वो ऐसा है वैसा है, लेकिन मुझे कभी उसके प्रति दुराग्रह नहीं होगा। रहीम का एक बहुत अच्छा दोहा है जो मुझे बार-बार अच्छा लगता है, ‘जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय। ताकों बुरा न मानिए, लेन कहां सो जाय।' ...कि मेरे परिवार में ये स्ट्रगल है। ताऊजी का लड़का ... उसने गाड़ी मांगी, मैंने कहा गाड़ी नहीं है.. यार उस बात पे इतना बड़ा इश्यू हो गया कि तुमने गाड़ी देने से मना कर दिया। मैंने कहा, मैंने क्या कर दिया, कोई अपराध कर दिया क्या? ‘नहीं साब ये तो...' ...तो ठीक है ले लो। ‘...अब तो नहीं लेनी तुमने पहले मना कर दिया।'मतलब कितनी छोटी छोटी बातें हैं। तो ये गणित वहीं अटका है। मैं हजार बार कहता हूं, ये मत करो, वो मत करो... तो कहते हैं कि तुम ज्यादा पढ़ लिए क्या? गांव में किसी कुरीति का भी विरोध करेंगे तो कहेंगे ‘तुम तो छोटे हो हमसे। तुम कैसे ज्ञान की बात कर सकते हो। ये ट्रेडिशन है, ये है।'जैसे मेरी शादी हुई तो मेरी बीवी अनावरण मुख आई। मेरे गांव में मेरी पहली शादी थी जिसमें मेरी पत्नी ने घूंघट नहीं निकाला। और ये तय था कि नहीं निकालेगी। डैडी ने कहा, ‘नहीं यार ऐसा थोड़े ही है, गांव में इज्जत विज्जत, जानते हो कैसे लोग हैं।'मैंने कहा डैडी, मैं पढ़ा लिखा हूं, पत्रकार हूं, ऐसा थोड़े ही होता है। बोले, ‘यार तू कह रहा है तो कर।'अब साला अगले दिन तो भीड़ हो गई यार। बातें बन गई कि खुले मुंह आ रही है। मैंने ये नतीजे सोचे ही नहीं थे। कि इस तरह भी होता है। फिर भी वो अनावरण मुख ही रही। शादी के अगले दिन वो सूट पहन के नीचे आ गई तो गांव में हंगामा मच गया, ‘बीनणी तो सूट पहनकर घूम रही है।'मेरे पिता आए ... - आप नई बहू को नहीं कह सकते न - बोले, ‘तू इसको कह साड़ी वाड़ी तो पहने।'मैंने कहा, डैडी क्या कहना, पहन रही है यार। क्या फर्क पड़ता है। ठीक है, चुन्नी ले रखी है। चौक में घूम रही है। कुछ नहीं, सिंपल है, चुन्नी तो ले ही रखी है न। घूंघट निकालना नहीं है। क्या है यार? डैडी बोले, ‘यार ये सारी क्रांति मेरे ही घर से शुरू होनी है क्या?'मैंने कहा, डैडी अब ऐसे ही होगा। बाद में डैडी ने धीरे-धीरे कबूल किया, आज गांव में जितनी बहुएं आती हैं वो घूंघट नहीं करती। 17 साल पहले ये एक दुस्वप्न था मेरे लिए। मैं विलेन था। कि साब ये क्या है? कि एजुकेशन भी आपकी बुराई है। आप पढ़-लिख लिए लेकिन नहीं मानते हैं लोग। जैसे मेरी फिल्म के बारे में भी मेरे गांव के बच्चे फेसबुक से जान रहे हैं। ये समय देखो आप। कि हमारे गांव के किसी आदमी ने फिल्म लिखी है। क्योंकि वे फेसबुक से कनेक्ट हैं। उनको और कोई मीडियम नहीं है।

सबसे अच्छे स्क्रीन राइटर कौन लगते हैं आपको आज के टाइम के?
राजू हीरानी। ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस'मुझे अभी भी बेस्ट काम लगता है उनका। मुझे लगता है उसमें कला है। ऐसा सिनेमा जो अच्छा भी लगता है और उसमें बात भी है। सुभाष कपूर हैं। उनकी दोनों फिल्में (फंस गए रे ओबामा, जॉली एलएलबी)।

‘फंस गए रे ओबामा'और आपकी ‘जेड प्लस'तो एक ही श्रेणी की फिल्में हैं। खेद ये है जो बात मैं आपको पहले कह रहा था कि जो कहानी में आप कह रहे हैं उसे सामने वाला जैसे कंज्यूम कर रहा है। वो उस बात को लेगा भी क्या? जैसे ‘फंस गए रे ओबामा'को जैसा दर्जा मिलना चाहिए था वो मिला ही नहीं। कि साब एक छोटी सी फिल्म आई थी वो निकल गई। लेकिन वो छोटी फिल्म नहीं थी, बड़ी फिल्म थी। वैसे ही ‘जेड प्लस'के साथ है। कि छोटी फिल्म है आदिल हुसैन हीरो है।
वो तो होगा ही। हमको भी पता है। ये सच्चाई हमको भी पता है। लेकिन ठीक है। जैसे डॉक साब कहते हैं न कि हम महानता के करीब हैं। ‘राम, हम लगभग महानता के करीब हैं ऐसा लग रहा है।'

द्विवेदी जी की सबसे अच्छी फिल्म आपको कौन सी लगती है?
फिल्म ही एक ही है।

पिंजर?
हा हा हा। फिल्म ही एक ही है तो उसको लेकर क्या कहें।

‘मोहल्ला अस्सी'को लेकर कोई बात?
आएगी, मुझे लगता है आएगी। उसके मैंने कट देखे हैं। बहुत अद्भुत फिल्म है।

Ramkumar Singh
Ramkumar Singh is a Jaipur (Rajasthan) based journalist and a film writer. His fictional story about Aslam, a Puncturewala in Fatehpur (Rajasthan), given Zed security by a corrupt and communal coalition government at the center has been converted into Hindi movie Zed Plus which released on November 28. He has written the screenplay with director Chandraprakash Dwivedi. Ramkumar is also credited with the story, dialogues and lyrics of Bhobhar, a Rajasthani feature film screened in 2012.
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Talking to Andrew Garfield, Jamie Foxx and director Marc Webb for THE AMAZING SPIDER-MAN 2

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Still from "The Amazing Spider-Man 2"
I think much of what I have to say, I've conveyed here in my 2012 review of The Amazing Spider-Man, directed my Marc Webb, then of “(500) Days of Summer” fame. He was brought in by Marvel Studios and Columbia Pictures to reboot the franchise which he successfully did with his unique Indie freshness. Making Spider-Man superhuman rather than superhero was his wisest contribution to it. This movie was as real as it was fictional. Of course, Irrfan Khan was our connection to the movie. Now, part-2 has arrived. There is Andrew Garfield and Emma Stone from the first movie and Jamie Foxx, Dane DeHaan (Chronicle), Paul Giamatti as new entrants, all three as foes of Spider-Man. Now the reviews are all over but when I got to see 40 minutes footage a month back, I found a certain sense of experimentation by Marc. When directors, in sequels, bow down to the studio pressures and over-add all the old masala, Marc displayed work of a liberated hand. You see longer scenes, organic scenes, acting prowess gradually coming out of the actors, fresh wit, smartly choreographed casualness in presentation and many such qualities. I don't like the Hollywood superhero franchises though, watching TAS-2 I took some amount of my cynicism back.

I happened to meet Marc Webb, Andrew Garfield and Jamie Foxx recently in Singapore and ask some questions regarding TAS-2. All were nice. Marc was very understanding, Andy was eager and Jamie was lively-entertaining-wise. Here it is:-


Q. A good movie is that which helps us make wise or right decisions in life. Like, “The Amazing Spider-Man”, in parts, shows Peter parker/Spiderman being forgiving to all, even to his enemies. Can we expect the same from this sequel? Is it all violence or virtue as well?

Marc Webb: That’s a really important question. One of the things very special about Spider-Man is that he’s different than a lot of superheroes. There is a lot of fighting, there’s a lot of violence and that’s a part of what happens in these movies, but Spider-Man is a rescuer. He saves people. That’s what the webs are for. They create nets so that people can be saved and that doesn’t always require violence. Spider-Man is really special. He also empathizes – what you were saying – he empathizes with his enemies and he tries to appeal to the better part of their nature. And I think that’s a really important part of that character that I think we try to incubate and foster in these movies.

Andrew Garfield: If I could add to that, Spider-Man was one of my main heroes growing up and Mahatma Gandhi was another one of my main heroes growing up and still is; a beautifully symbolic human being. And I like the idea of Spider-Man being a pacifist. I really like the idea of him never throwing a punch and never throwing a kick and using his enemies’ weaknesses against themselves, like Charlie Chaplin might or like Buster Keaton might or how Bugs Bunny might. I really like the idea of this skinny little kid dodging and weaving and kind of ducking and diving and letting these big bad guys just beat the crap out of themselves. I think that’s a very powerful message and motif for Spider-Man.

Sally Field and Andrew Garfield in a still from the movie.
  ...to Andrew Garfield.

What is the feeling of putting on that costume? Is it very tight?
Symbolically it feels fantastic. You feel so honored on that symbolic platform. It's hard to complain about. But the practicality, the real life physical aggravation it causes is a bummer. But I guess it's kind of interesting to meet symbolic. Being in the world of opposites which we are, you get to be your own superhero, you get to wear the costume and play the character. Yeah, you’ve got to go through the very human physical problems of actually wearing the suit. It's really interesting about it which I'm thinking right now. Peter is both human and super human, and that's the exact struggle that he's in. It's the struggle between being of this earth and being of the heaven. He's a demigod. He's caught in the tension between living as human being with all his imperfection and transcending that into flight, being eagle, being this spiritual free-flying animal. It's an interesting thing. So yeah, the costume is not comfortable. You feel very human when you're in the costume.

Is there an amount of power to be Spider-Man and how do you handle the responsibility?
That's the question for Peter Parker. Obviously I'm holding the symbol of Spider-Man, of Peter, for the time being. The great thing about him is that he’s imperfect. Peter is all too human, instead of living up to some idealized symbol of a hero without any cowardice, without any blah-blah-blah. No, Peter can experience cowardice, peter can experience pain, Peter can experience suffering, Peter can fear not being enough, Peter can fear not matching up to the symbol of Spider-Man, and that's inherent for young people. We all go through self doubt and fateful moments where we get scared, we run away... that's Peter. And, it's reassuring, reassuring for me that as a kid, growing up, I didn't have to always be courageous. I could also be human and it's okay to accept my humanity. It's really empowering for young people.

Would you do any Indian superhero role? Have you been offered any such role so far?
No, I have never been. I'd love to work in India, love to be a part of Indian cinema. Superhero! Probably not. I think I'd be greedy if I play another superhero. But I'd love to work in India. I'm very interested in the culture and the spiritual history. Yeah, I've never been there but I'm excited to visit.

You've worked with Irrfan Khan in The Amazing Spider-Man. How was it?
Yes! Irrfan Khan. Fantastic actor. Brilliant actor. Kind of graceful, very poiseful and very-very cool guy. Very talented.

You were jokingly saying that you're getting older and you better get these movies made sooner.
I was saying that as an 18 year old.

So when you do get old what do you see yourself playing? What are you aiming at?
I don't really know. I hope it reveals to me. I hope that I'm open enough to be what I'm supposed to be and do what I'm supposed to do. I tend to surrender to not knowing the answers up here (mind), only answers are down there (heart). They are in there already, it's a matter of them revealing themselves or me being open enough to let them. I try not to think too much about the future. I try to let the images of my future needs and my deeper self come to me.

What do think of “The Amazing Spider-Man 2” associating with The Earth Hour Campaign?
There is no greater protection needed right now than the protection we need to get to the planet. We are an endangered species and it's because we somehow somewhat forgotten. I mean look at this, we're in this great, big man made thing (Marina Bay Sands Hotel, Singapore) with a boat on the top, and do we need it? Do we need this or do we just go and walk into the woods. You know what I mean? Like, do we get more out of this than we would in the ocean? We’ve somehow forgotten that we are of this earth and that this is not ours. We don't own the earth, we don't own the sky, we don't own the soil, we don't own the flowers, we don't own the trees and we've lost some respect, especially in western culture. There's been a brainwashing, with capitalism and with the male ego. And, I think what Spider-Man can represent and what earth hour represents is protection of feminine because the earth is female, mother earth. And, Spider-Man, Peter Parker is in touch with that feminine side inside him, that sensitivity, that passion and that nurturing energy. It's a very-very beautiful partnership in that way, because he is kind of a perfect ambassador for our need to nurture our mother earth, the thing that holds us, the thing that is holding us right now, this mysterious thing that is allowing us to live on it. It's awe inspiring. I think we all need to remember that how awesome it is that we get to be here. We don't own any of it. The whole idea of buying and selling pieces of the earth! Crazy!!!

Are you afraid of spiders?
No, I'm fine with spiders, I'm not afraid of them, Snakes freak me out. I struggle with snakes. I need to get out of there. Snake is a very big symbol of soul. You know, snake in the Garden of Eden brings Adam and Eve straight into the world of suffering, straight into the world of opposite. He is the earth bound creature sliding on his belly. So I need to figure out my relationship with snakes. I think it speaks to my wish to ascend as opposed to descend. In order to have a full life you have to be in detention between the ascending and descending because the soul wants to descend and the spirit wants to ascend. Like the eagle and the snake. And then when you combine the eagle with the snake then you have dragon and that's cool.

If you are Spider-Man for real and the world is in crisis, what problems would you solve?
Well, I think what's wonderful about Spider-Man for me is what Marc (Webb) said, that he is a rescuer. He is a negotiator. He doesn't like to fight. He likes to resolve things peacefully. So maybe I'd go to Middle East, have a chat, try and give some education, entertain people with some juggling and get the opposing forces to sit together. Then I'll mediate and we'll talk about the fact that we're fighting over the same land and it's neither of ours and neither of yours, neither of you get it, you get to share. Killing each other over a piece of land that doesn't belong to either of you is insane. And these two different religious ideologies that you're fighting for are the same ideologies. They are born of a same story. It's all just a story, a myth. It's just a metaphor. You take it literally but it's actually not. There is a misguided thing happening. The two books that they are coming from is the same book. They were born from the same book. They have the same story, the same symbol, same characters in the same struggle, just with different clothing in it. So I'd probably go and have a chat.

Do you write?
I actually write for myself, but I'd like to try that.

What film subjects are you most passionate about?
I love all stories. I'm interested in exploring all. There is a film I shot last year called '99 Homes' which is about housing crisis in Florida in 2008 and that's a really interesting and devastating story, cause it says a lot about where we are as a culture right now. And there is another film I'm going to be shooting at the end of the year called 'Silence' based on Shūsaku Endō’s book where I play a Portuguese priest struggling with the very meaning of existence which is just my life anyways. So I'm excited about those projects.
 
Jamie in a still from TAS-2

 ...to Jamie Foxx.

You had fun during the movie?
Yeah, a whole lot of. You know what, most of the time you see bullshitting around in Hollywood, but this was one of the sincerest moments. When I reached on the sets for the first time, I didn't see Andrew, I saw Spider-Man. I thought man this shit is real, crazy! When you think about growing up as a kid, you're not thinking about nothing, you're just watching Spider-Man on television and you go outside and start playing like it, crazy! And the next thing you know that you acted in one the biggest film franchises in the world. They've recreated Times Square. So I think the responsibility was to have fun but to make sure that Electro is a formidable opponent, to make sure that Electro is so bad, so evil that it allows Spider-Man to be very good.

How does music become part of your acting?
Whenever I do a character and work with somebody, I do a song for the mood. Whether you ever hear it or not, doesn't matter. When I worked with Quentin Tarantino (Django Unchained), I came up with a song called “The Tarantino Mix”. During TAS-2 when someone would text me, “Yo! man, where you at? And when I'd be Electro and on the set, then I'd say, “I can't talk right now, I'm chasing Spider”. So I did a song called “Chasing Spider”. It says, “I may be black but I ain't no widow, I've just been shadows in the dark - it means Electro the villain. He may be yours but he ain't my hero, I am great with malice in my heart. I've been patiently waiting but I'm angry now, you promised me the light and then the sky, I was told they will worship me yelling screaming my name, but they turned their back on me and lied, so now I'm chasing Spider...”. So every time I do a movie, there is always a theme song. I did a movie called “Any Given Sunday” and I did the theme song in my bedroom. If you interview Quentin Tarantino next time you ask him how music influences everything he does. He hears a piece of music and he writes to the song. Same is with me, I hear a piece of music or I make up the words. So write now I chasing spider, I'm getting rid of Peter Parker.

You mention Tarantino, was it necessary to show you hanging upside down in “Django Unchained”?
It was necessary for the film because people understand that in real life it is more graphic. You know in real life what they'd do? They'd snip the nuts of slaves and allow him to bleed out. The reason Quentin is so successful because he's able to give you real and rapid, something that you can understand. He did this movie with a flair of comedy. And I'd say to him, “Dude, you're the best director in the world. You were able to say the word Nigger ten times on Christmas, and black folks, white folks, Hispanic everybody enjoyed the film. People reacted in different ways, but you have got to trust your director. And because of the movie I'm in “The Amazing Spiderman-2”. Had I not had Quentin Tarantino, I wouldn't be here.

Have you ever been bullied like your character Electro in the movie?
Like, I don't like the internet, when you talk about bullying. In our times we had real bullies. A dude comes to your class and (enacts) ... you, you come out boy and I'll punch you in the face. Bullying of any kind is bad, but for me, it taught me how to dare in life. That, I'm going to deal with bullies and in intelligent ways and try to be funny at the same time. I always had bullies in my life. Even some 15 days ago a guy tried to bully me on phone. I said, what the hell is going on? So my point is bullies are going to exist, don't always run away, adjust them in a way you can, with intelligence. Say, I'll call the FBI. Like the dude on phone, I told him, I'm calling the authorities. Another aspect of this is you don't know what the other person is going through. In case of Electro, he was bullied by first. But he didn't know how to intelligently adjust them.

Do you think Electro is a villain? Because I don't think he is. He is what he is because of the situations around, the society and the bullying around.
Yeah, but even if somebody shits on your car plate, you have to abide by the rules. He may not have started as a villain but he's welcoming that anger. Electro has a choice but he chooses to embrace it. It's easier to embrace anger, easier to be angry but it's hard to be nice to those people who are not nice to you.

Marc on sets of TAS-2
 ...to Marc Webb.

Which was the hardest scene in the movie?
The Times Square one was the most difficult, technically too, because we had to shoot on the set that we’d built literally. It was not actually a lot of green, we built the first layer of Times Square. We built the whole northern section of Long Island and then we had to integrate the practical version of Times Square where the whole fight between Jamie and Andy takes place. Then we had to integrate the CG elements, music, light and many-many things. It took a year to do. Four weeks to shoot and a year to do. But it was also fun. What's important about those action sequences is that you have to have a clear intention of what's going on and Spider-Man is trying to help people out. We understand that he's trying to connect the first part of sequence with Electro. There are many scenes like that.

How Andrew and Emma were second time around? Were they more comfortable now?
Yeah, I think they knew each other in a much deeper way. Andrew had really embraced Spider-Man. He knew what Spider-Man was. He'd studied Spider-Man but also had lived in it, had lived in the suit. You know, part of Spider-Man's humanness is his wit. He uses his wit to undermine the villain. In the first movie he was discovering this all but in the second part he embraced it. Emma was really thoughtful this time around. Her character Stacy is an incredibly intelligent woman, very thoughtful woman, who's not just a girlfriend. She wants to have her own life. She's going to pursue heroism in her own way and I think in a very real way. Emma really understood this and had discovered this that she can be as heroic as Spider-Man can be. It’s just that her abilities are different.

For the kids who aspire to be Spider-Man what is the message that the movie gives?
That, With great power comes great responsibility. It’s the fundamental that we always talk about. For the movie, I think there’s an idea about time and valuing the time you have with the ones you love. That’s really important. We’ve made it a little sophisticated for the kids, but I think what the kids understand and appreciate is that being good isn’t easy, there’s a consequence to that. But it’s the right thing to do and it’s what you must do, even if you fail. It’s the effort that counts. I hope the kids pick up on that.

Yes, Kids are big fans but the same goes for adults. How do you work for both audiences?
Think about what moves you, and weirdly if you stay true to that it doesn't matter how old you are or what sex you are, or you're from Indonesia or you're from Rajasthan or you're from America, there is something fundamentally human about Peter Parker in particular as a kid. And there is something in it that you aspire to, like you want to do good, but you know it's hard. Sometime it's so complex that it makes impossible to go that lane, but there is no good way out, there is no easy answer and how you overcome this. All this stuff is underneath the surface of the movie. I don't know about you, you seem so mature and sure of yourself, but it's this global appeal that works. When I'm watching a movie or doing the big action sequences, the 12 year old kid in me says Oh! That’s cool! You know that just wakes up. Adults feel enormous empathy for different reasons, parents feel affection.

When we talk about Spider-Man movies we undermine the efforts of the CGI artists. It is amazingly toiling and hard working to create those visuals. So who were those artists and tell us something about them?
Wow! Right, a lot of our artists are in Mumbai. You know we have a whole staff of people that would do the early fundamental processes in the CG work. We’d be in connection with them in India which is a terrible time zone connection but there would be a lot of work and there are thousands of people that worked to give life to the character. Though it seems so simple but it is not. Funny, we go around as emissary to the movie and get undue credit for how nearly extra-ordinary artists there are. There are very important animators, lighters, rotomators, match move people who calibrate an enormous quantity of effort to make this thing real. It’s so ironic that we forget about them. These are the people from India, Canada, America, Germany and U.K.
 
Jamie, Andrew, Emma and Marc Webb in Singapore.

फिल्म "द अमेजिंग स्पाइडरमैन-2"के कलाकारों एंड्रयू गारफील्ड, जेमी फॉक्स और कुशल निर्देशक मार्क वेब से कुछ वक्त पहले सिंगापुर में मुलाकात हुई। प्रस्तुत थे उनसे बातचीत के कुछ अंश।

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कुछ नहीं है, सब औसत काम कर रहे हैं.. जिसको जो समझ में आ रहा है, कर रहा है.. बस ; मुझे नहीं लगता एक भी शख्स ऐसा है जो पेज टर्निंग काम कर रहा है: हिमांशु शर्मा

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 Q & A..Himanshu Sharma, Writer of – Tanu Weds Manu, TWM Returns, Ranjhanaa.
 
Kangana Ranaut, in a still from Tanu Weds Manu Returns.
‘क्वीन’ के बाद कंगना रणौत को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। उन्हें शीर्ष कलाकारों ने निजी तौर पर बधाई दी। अपनी कतार में आने का आभास दिया। लेकिन ‘तनु वेड्स मनु’ न होती तो ‘क्वीन’ भी न होती और कंगना को सकारात्मक छवि नहीं मिलती। एक बाग़ी, खिलंदड़, वर्जित कार्य करने वाले ऐसी नायिका पहले यूं न दिखी। बदल रहे वक्त में हिमांशु शर्मा ने तनु का पात्र सही टाइमिंग से लिखा। हालांकि फिल्म के अंत को लेकर आपत्तियां हैं लेकिन शुरुआत के लिए ही सही फिल्म उपलब्धि थी। बहुत समय बाद लोकगीतों वाली मिठास “तब मन्नू भय्या का करिहैं” गाने में चखी गई। कानपुर या अन्य उत्तर भारतीय शहरों के मध्यम वर्गीय लोगों और उनके संतोषों का चित्रण भी मौलिक तरीके से पेश हुआ।

बाद में निर्देशक आनंद राय के साथ हिमांशु की लेखनी ‘रांझणा’ लेकर आई। बनारस और दिल्ली स्थित देसी पात्रों की कहानी। अब ‘तनु वेड्स मनु’ रिटर्न्स ला रहे हैं। शुक्रवार 22 मई को रिलीज से पहले हिमांशु से बात हुई। वे मृदुभाषी, खुले, विनम्र, आत्म-विश्वासी और चतुर हैं। वे लखनऊ से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में कॉलेज की पढ़ाई कर चुके हैं। ‘टशन’ में उन्होंने असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर सीमित काम किया। फिर फिल्म लेखन की ओर मुड़ गए। ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ के बाद वे आनंद के साथ एक अन्य फिल्म पर काम करेंगे। वे बतौर निर्देशक भी एक फिल्म बनाएंगे। ये भी लखनऊ में ही स्थित होगी। स्क्रिप्ट लिख रहे हैं। आने वाले पांच-छह वर्षों के लिए उनके जेहन में कुछ कहानियां हैं।

उनसे बातचीत:

संक्षेप में या विस्तार से अपनी अब तक की जर्नी को कैसे देखते हैं?
मुझे लगता है अभी मैंने जीवन में उतना काम किया नहीं है। कि मुड़कर देखूं और सोचूं कि जर्नी कैसी रही है। मेरे पास बहुत बॉडी ऑफ वर्क नहीं है। किसी एक लेवल पर निरंतरता के साथ अच्छा काम करने के लिए आपको कुछ और फिल्में चाहिए होती हैं। जितने भी बड़े राइटर्स हैं उनका एक बॉडी ऑफ वर्क रहा है। मुझे नहीं पता कि अभी मेरी जर्नी को जर्नी कहा भी जाना चाहिए या नहीं। ये महज तीसरी फिल्म है मेरी जो मैंने लिखी है। ये जरूर कहूंगा कि पहली फिल्म में भी वही लिखा जो मुझे ठीक लगा कि हां ये मजा दे रहा है, या ये मुझे उदास कर रहा है, या ये मुझे हंसा रहा है। मुझे हंसा रही है तो कहानी सबको हंसाएगी, उसी उम्मीद के साथ मैंने कोई भी अपना काम किया है। तो ‘रांझणा’ और ‘तनु मनु-1’ तक तो ठीक ही लग रहा है मामला। अब बाकी इसमें देखते हैं कितना पसंद आता है सबको।

आपकी पहली फिल्म थी ‘स्ट्रेंजर्स’, उसका एक डायलॉग है (जिमी शेरगिल का किरदार बोलता है), “मुझे लगता है कि लिखने में और शिट करने में कोई खास फर्क नहीं होता। ये एक ही चीज है। जो आपको परेशान कर रहा है वो सब आप निकाल देते हो। ये भी राइटिंग के साथ है”..
(हंसते हुए) दरअसल वो कॉन्सेप्ट मेरा था लेकिन उसे लिखा मेरे एक दोस्त हैं गौरव सिन्हा उन्होंने था। स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स पूरे उनके थे। लेकिन, हां वो बड़ी अजीब लाइन है..

मैं इस संदर्भ में पूछ रहा था कि ‘तनु वेड्स मनु’ लिखने से पहले क्या कुछ परेशान कर रहा था या सिर्फ लोगों का मनोरंजन करना था?
कोई ऐसी नीड नहीं थी। पढ़ रहा था दिल्ली में। यहां काम ढूंढ़ रहा था। असिस्टेंट डायरेक्टर बना। वाहियात किस्म का असिस्टेंट डायरेक्टर था मैं। बहुत ही बुरा। मैंने ‘टशन’ में असिस्ट किया विजय कृष्ण आचार्य जी को। उस दौरान मुझे लगा कि भई ये काम तो नहीं हो सकता। अगर मुझे फिल्म डायरेक्ट करनी हो और मुझे ऐसा एडी (असिस्टेंट डायरेक्टर) मिले तो मैं तो गोली मार देता। मैं बहुत ही बुरा था। मेरे पास और कोई चॉइस नहीं थी। लिखने का मन था तो उसके बाद लगा कि भई एडीगिरी तो नहीं हो सकती। तो लिखना शुरू किया फिर ‘तनु वेड्स मनु’ लिखी। ठीक रहा उसका हिसाब-किताब। तो ‘रांझणा’ लिखी फिर। ऐसा कुछ नहीं था कि उथल पुथल चल रही है कहानी कहने की या कुछ बात बोलने की। ऐसा नहीं है। वो बड़ा मजबूरी का काम था। कि भईया ये काम नहीं हो सकता, ये काम कर लो। हां, ‘राझंणा’ के वक्त... मैं ये जरूर कहूंगा कि ‘तनु-मनु’ लिखने के बाद मैं जिस जगह खुद को, अपने दिमाग को, मन को पा रहा था वहां मैं कुछ ऐसा अटेंप्ट करना चाहता था जो इमोशन और ड्रामा के लिहाज से बहुत ओवरवेल्मिंग (भावुक, जोरदार) हो। तो वो कहानी बहुत दिल से निकली। क्योंकि सब कह रहे थे कि ‘तनु मनु’ चल गई है तो तुम्हे ‘टू’ (सीक्वल) लिखनी चाहिए। या कुछ इस जॉनर (श्रेणी) का लिखना चाहिए। लेकिन मैं ‘रांझणा’ लिखना चाहता था और वो बहुत इमोशनल नीड थी मेरी। वो कहानी आजमाने की। ‘तनु मनु’ लिखते वक्त मैं सिर्फ असिस्टेंट डायरेक्शन से भागना चाहता था।

तनु का किरदार आपने क्यों रचा? क्योंकि जैसे सिंगल स्क्रीन के आधारभूत दर्शक को तब देखा, वो एक बार के लिए चकरा गया कि ये लड़की कर क्या रही है? इस लड़के से इतना बुरा सलूक क्यों कर रही है? और हम इतनी बिगड़ी हीरोइन वाली फिल्म क्यों देख रहे हैं? इससे पहले हीरोइन उन्होंने ऐसी देखी थी मसलन, दक्षिण की तकरीबन सभी फिल्मों की जो अपनी मूर्खता और नाज़-नखरे से हीरो को रिझाती रहती है और दर्शक भी खुश होता है। वो भी ये समझता है कि मैं राजकुमार हूं और ये मुझे एंटरटेनमेंट दे रही है। कमर्शियल सिनेमा के उन पारंपरिक दर्शकों के बारे में सोचा था कि लिख रहे हैं और प्रतिक्रिया कैसी आएगी?
औरत या मर्द होने से पहले इंसानी तौर पर आप उस चीज को देखें तो मुझे ऐसा कोई बहुत चमत्कारिक काम नहीं लग रहा था। मतलब मेरी खुद की कॉलेज के टाइम में ऐसी बहुत सी दोस्त रही हैं। और एक छोटा सा एनार्किक नेचर होना या एक तरीके की खुदपसंदी कहना ज्यादा बेहतर होगा इसे.. खुदपसंदी ऐसी है कि बाकी कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। तो मुझे ये बड़ा नेचुरल, बहुत ह्यूमेन लगा। बहुत ही आम लड़की जैसा लगा। और मुझे लगता है बहुत सारी चीजें हमारी फिल्मी समझ से बनती हैं। क्योंकि हमने ऐसा खुद देखा है तो वही लिख रहे हैं। या वही बना रहे हैं। अपना जो देखा है आप उसे एक बार ट्राई तो करिए। और मेरा ये सिंपल रूल है कि आपको खुद ये काम करते हुए मजा आ रहा है ... मैं कोई प्रशिक्षित राइटर नहीं हूं, मैंने कहीं से कोई ट्रेनिंग नहीं ली है ऐसे ही काम चल रहा है भगवान भरोसे - तो उसमें ये है कि एक सीन के बाद दूसरा सीन देखने में अगर मुझे मजा आ रहा है तो बाकी लोगों को भी आएगा यार। मैं थोड़े ही न मार्स (मंगल) से आया हूं। जमीन से ही उठा हुआ इंसान हूं। लखनऊ में परवरिश हुई। 120-130 करोड़ की जनता के बारे में सोचकर अपना काम करेंगे तो कनेक्ट करेगा। मैंने जब तनु का किरदार लिखा तो मेरे मन में ऐसा नहीं था कि ओ, मैं बड़ा पाथब्रेकिंग कुछ लिख रहा हूं। मुझे यही आता था। मुझे ये ही लड़की पता थी। मुझे ये ही लड़की लिखनी थी। उसके अलावा कुछ और लिखने के काबिल भी नहीं था। तो आई थिंक उसमें कोई प्लानिंग नहीं थी ऐसी। मुझे जो समझ में आया मैंने वो काम किया। अब बाकी वो दस में से छह लोगों को पसंद आया है कि दो लोगों को, वो अलग बात है।

फिल्म की आलोचना भी हुई। कौन सी आलोचना आपको उचित लगी? लगा कि आपको आने वाले काम में कुछ बेहतर करने में मदद करेगी?
ज्यादातर क्रिटिकल इवैल्युएशन (आलोचनात्मक मूल्यांकन) पर ध्यान देना मैं बेहतर समझता हूं। जो चीज पसंद आई वो तो बहुत अच्छी बात है, हमें थैंकफुल होना चाहिए। लेकिन पसंद आई ये दोबारा, बार-बार पढ़कर के आप क्या कर लेंगे? उस पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए कि कौन सी चीजों ने काम नहीं किया। बहुत सारी शिकायतें थीं, अच्छे-खासे लोगों ने दिक्कतें जताई थीं। चाहे वो ‘रांझणा’ हो या ‘तनु मनु’ हो, दोनों में ही ऐसा हुआ। ..पर मुझे लगता है एक क्रिटीक और एक राइटर में फर्क होता है। मुझे लगता है एक क्रिटीक का एक ऑब्जेक्टिव व्यू (वस्तुपरक नजरिया) होता है। एक लिट्ररेरी डिसकोर्स के साथ वो उसको देखता है या समझ उसकी एक अलग तरीके की होती है बनिस्पत उस शख्स के जो खुद लिख रहा है। मुझे नहीं लगता कि दुनिया में कोई अनबायस्ड राइटिंग (पूर्वाग्रह-रहित लेखन) होती है। आपका झुकाव कहीं न कहीं होगा! बिलकुल होगा! आपका अपना अनुभव, आपका अपना चरित्र झलकेगा और वो होना चाहिए। आप निबंध नहीं लिख रहे। आप एक कहानी लिख रहे हैं। तो उसमें कुछ अच्छी चीजें भी होंगी और कुछ बुरी चीजें भी होंगी। और मुझे लगता है वो इमपरफेक्शन जो है वो भी आपका ही हिस्सा है। उससे आप घबराएं मत। उससे दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है। हां, ये भी है कि आप मुंह भी न मोड़े उस आलोचना से। आपको लगता है कि आपकी राइटिंग में आगे क्राफ्ट के लिहाझ से आलोचना मदद कर पाएगी तो आप निश्चित तौर पर उसे समझें।

एक आलोचना ये रही कि अंत में आखिर आपने तनु को संस्कारी बना ही दिया? शादी ही आखिरी रास्ता रखा? अगर आप उसे वैसा ही रहने देते तो क्या ये फिल्म खास नहीं हो जाती?
रैट्रोस्पेक्ट में सोचूं तो हां बिलकुल, कहानी को ऐसे भी रखा जा सकता था। मेरे दिमाग में नहीं आया। शायद मुझे यही करते हुए ज्यादा यकीन आ रहा था अपनी कहानी पर। देखिए साब, इसी कहानी को कोई एक राइटर दूसरे तरीके से लिखेगा, एक डायरेक्टर दूसरे तरीके से बनाएगा। इसी कहानी को मैं इस तरीके से लिखना पसंद करूंगा और आनंद राय इसी तरीके से बनाना पसंद करेंगे। तभी तो इतनी मात्रा में भिन्न-भिन्न फिल्में हैं। क्योंकि इतने सारे दृष्टिकोण हैं। मुझे लगता है ऐसा हो सकता था लेकिन हो तो कुछ भी सकता था। होने को क्या नहीं हो सकता? किसी भी कहानी में। मैंने वही लिखा जिसमें मेरा खुद का भरोसा था।

तनु के किरदार को लेकर कंगना ने आपसे क्या चर्चा की? और आमतौर पर फिल्म के कलाकार स्क्रीनराइटर से मिलकर अपने रोल को कितना समझते हैं?
बिलकुल, एक्टर्स मिलते हैं, चर्चा करते हैं। एक्टर्स अमूमन अब खुल गए हैं। उनमें एक स्तर की इंटेलिजेंस, स्मार्टनेस, दृष्टिकोण, मैक्रो लेवल पर कहानी को समझने की ताकत ... ये आई है। बढ़ी है। आपने भी देखा होगा कि अचानक से जो स्टार परसोना हुआ करता था वो बदला है। सोशल मीडिया के उदय के बाद से। एक कनेक्ट अलग हुआ है, स्टार्स का। उनका तरीका अलग हुआ है अपने दर्शकों से बात करने का। मुझे नहीं लगता कि अब कोई भी सिंहासन पर ऊपर बैठा है जिस पर 60 और 70 के दशक में स्टार्स बैठा करते थे। आज की डेट में ट्विटर पर आप अमिताभ बच्चन साहब को भी बोल देते हैं, शाहरुख साहब को भी आप कुछ बोल देते हैं, रणबीर कपूर से भी आप कुछ बोल सकते हैं। और वो जवाब भी देते हैं आपको। इनकी अप्रोच बहुत बदली है अपने स्टारडम को लेकर। इसी का परिणाम मैक्रो लेवल पर कहानी में उनकी दिलचस्पी के रूप में आया है। कंगना जी की बात करूं तो उनकी कहानी को लेकर बहुत अच्छी समझ है। किरदार को लेकर हमारी पहली फिल्म में भी बात हुई थी। बहुत खुलकर बात हुई। उन्होंने अपने बिंदु रखे। वो सारी बातें जो उन्हें लग रही थीं। और स्क्रिप्ट ही है, कुरआन तो है नहीं कि ऊपर से लिखकर आई है। जिस एक्टर को परफॉर्म करना है वो स्क्रिप्ट से कम्फर्टेबल होना चाहिए। एक बात मोटा-मोटी समझ में आ गई उसके बाद लाइन्स तो बदली जा सकती हैं।

एक लेखक या निर्देशक (भविष्य के) के तौर पर आपकी आंखों में आज के किन एक्टर्स के देखकर चमक आती है जो आपके किरदारों को एक अलग ही धरातल पर ले जा सकते हैं?
मुझे लगता है कि रणबीर कपूर बहुत कमाल के एक्टर हैं। उनसे मिलना भी हुआ है। मुझे जितनी समझ उनकी दिखती है या उनके काम में दिखती है वो बेदाग़ है। वो बहुत नया काम कर रहे हैं। भविष्य में अगर उनके काबिल स्क्रिप्ट हुई तो जरूर उनके साथ काम करना चाहूंगा।

‘तनु वेड्स मनु’ की तेलुगु रीमेक ‘मि. पेल्लीकोडुकू’ से आप कितने संतुष्ट थे? क्या आपको नहीं लगता उसमें आपके पात्रों की सेंसेबिलिटीज इतनी बदल गई थीं कि मर गई थीं?
मैंने ट्रेलर देखा था उसका। मुझे लगा कि यार बेकार में पैसे खर्च किए और राइट्स लिए। ऐसे ही बना लेना चाहिए था। ये तो वो फिल्म है ही नहीं। आपने यूं ही पैसे खर्च कर दिए।

‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ की कहानी वाकई में आपको कहनी थी कि कमर्शियल वजहों से ही लिखी?
मुझे कहनी ही थी। मजेदार बात बताता हूं आपको। ‘तनु मनु’ के बाद सबने बोला कि ये काम कर रही है तुम पार्ट-2 लिख दो। लेकिन कुछ दिमाग में आ ही नहीं रहा था। मैंने कहा क्या लिख दो? खत्म है ये कहानी। तब मैं ‘रांझणा’ लिखना चाहता था। लिखी। फिर ‘रांझणा’ के दौरान दिमाग में ये कहानी आई। एक कॉन्सेप्ट बना। मुझे लगा कि हां यार ये मजेदार है। ये कहानी कही जा सकती है और मेरा कहने का मन है। इसमें एक पैसे की भी दूसरी बात नहीं थी। अगर कमर्शियल पहलू की वजह से बनानी होती तो मैं तुरंत ही बना देता। ‘तनु मनु-1’ के बाद ये आ जाती। ‘रांझणा’ बनाने के बाद जब लगा कि इस दुनिया में जाया जा सकता है तभी गए। वरना मैं कहां से लिख लेता। जबरदस्ती की कहानी तो दिखाई दे जाती।

Characters of Datto and Manu in a scene from the film.
इसमें दत्तो का किरदार आपने हरियाणा का ही क्यों लिया, किसी और प्रदेश का रख सकते थे?
आप फिल्म देखेंगे तो बिलकुल समझ आएगा कि ये हरियाणा से ही क्यों है। ये कहीं और की नहीं हो सकती थी। ये बहुत नेचुरल और ऑर्गेनिक तरीके से आया, ज्यादा गणित लगानी ही नहीं पड़ी। कि ये कहां की हो, अरे इसे वहां का बना दें तो ज्यादा मजा आएगा। ऐसा बिलकुल नहीं था। मुझे लगता है कोई भी कहानी अपना चरित्र और अपनी पृष्ठभूमि खुद ही बता देती है। ‘रांझणा’ जैसी कहानी लखनऊ में नहीं घट सकती थी, ‘तनु मनु’ जैसी कहानी बनारस में नहीं घट सकती थी। क्योंकि बनारस उतनी इंटेंसिटी देता है जो ‘रांझणा’ में थी। एक इमोशनल ओवरवेल्मिंगनेस देता है। और कुंदन का चरित्र जो है वो लखनऊ में नहीं पाया जाता। वो बनारस की पैदाइश है। वो बनारस में ही पनप सकता है। ‘तनु मनु’ की कहानी भी लखनऊ में ही सेट हो सकती थी। इसलिए दत्तो का कैरेक्टर सिर्फ हरियाणा से ही आ सकता था। मेरी समझ से कम से कम। तो बहुत नैचुरली आया है वो। इसके लिए मैंने कोई एक पैसे का गणित नहीं लगाया है।

पिछली ‘तनु..’ में ‘जुगनी..’ गाना रखा गया था, इसमें भी ‘बन्नो..’ गाने में नायिका के लिए संबोधन जुगनी है। क्या जुगनी का कोई संदर्भ है, कोई बैक स्टोरी है?
जुगनी तो हमारा फोक का ही गाना है पंजाब का। और जुगनी किसी भी संदर्भ में बहुत तरीके से इस्तेमाल की गई है। वो कभी आपकी माशूका होती है, कभी कुछ और होती है, कभी सिर्फ एक विचार होती है। आपको जो बात कहनी है, वो हर बात जुगनी कह सकती है। जुगनी का कोई चेहरा नहीं है। वो विचारात्मक लेवल पर ऑपरेट करने वाली टर्म है। आपको अगर डर लग रहा है सीधे कहने में तो जुगनी के नाम पर कह दीजिए। चाहे आरिफ लोहार हों या पंजाब के दूसरे लोक गायक हों, उनके द्वारा जुगनी का अलग-अलग तरह से, अलग-अलग रेनडिशन में अलग-अलग बात के लिए इस्तेमाल किया गया है। ये तो बहुत पारंपरिक विचार है। कि जुगनी है जो ये बात कह सकती है। जुगनी कौन है, मुझे लगता है ये तो किसी को नहीं पता।

पहली फिल्म में आपने ‘जुगनी..’ गाना रखा, सीक्वल में ‘बन्नो..’ गाना है। इन पुराने गीतों को रिवाइव करने की वजहें थीं?
‘बन्नो..’ ये रहा कि कनिष्क और वायु जो फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर हैं, हमसे फिल्म के मिड में मिले। बहुत सारे म्यूजिक डायरेक्टर्स अपना कुछ-कुछ भेज रहे थे। साथ काम करने का मन था सभी का। ये गाना सुनते ही हम लोगों को बड़ा मजेदार लगा। और फिल्म की दुनिया का लगा। ऐसा नहीं लग रहा था कि अरे, जबरदस्ती कोई गाना ठूसना पड़ रहा है। बहुत नेचुरल ऑर्गेनिक तरीके से वो उस फिल्म में घुल रहा था। तो ले लिया। और एक ट्रेडिशनल वैल्यू भी थी उसकी। फोक बेस्ड गाना है वो।

पहली फिल्म में ‘रंगरेज..’ गाना था इसमें ‘घणी बावरी..’ है... क्या आपको लगता है धुन प्रधान भविष्य में लिरिक्स बचे रह पाएंगे?
राजशेखर जो लिरिक्स लिखते हैं हमारे, वे कॉलेज के वक्त से साथ हैं हमारे। हमेशा उन्होंने विचार पर गाना लिखा है। शब्दावली पर वो आदमी उतना निर्भर नहीं रहता जितना विचार पर रहता है। उनसे हमेशा एक नया थॉट मिलता रहा है चाहे वो ‘रंगरेज..’ हो, ‘घणी बावरी..’ या ‘ओ साथी मेरे..’ जो सोनू जी ने गाया है। वो विचार प्रधान लिखते आए हैं और हमें भी वही जंचता है। कुछ बात जैसी बात हो तो आप बोलिए।

‘बन्नो..’ गाने में बोल हैं – ‘बन्नो तेरा स्वैगर लागे सेक्सी..’ यहां सेक्सी शब्द के मायने क्या हैं?
मेरे लिए सेक्सी का अर्थ था तेवर। एक टशन जो होता है न। बन्नो की इस स्वैगर में टशन है यार। एक बात है इसमें। एक उम्फ फैक्टर है। तो मुझे लगता है हमने उसे यूं लिया था।

‘रांझणा’ में एक दृश्य है जहां जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) में धनुष को स्टूडेंट घेर लेते हैं कि वो चोर है। और सुबह तक बैठकर ये जान पाते हैं कि वो चोर क्यों बना क्योंकि वो गरीब है? क्या ये तंज जरूरी था और क्या जेएनयू में होने वाली बौद्धिक चर्चाओं को आप सतही और खोखली मानते हैं?
नहीं, नहीं ये वाकया सच में हुआ है। मैं जेएनयू या वहां के बौद्धिक एलीट या नॉन-एलीट, या शिक्षाविदों के खिलाफ हूं ऐसी कोई बात नहीं है। पर ये वाकया (फिल्म वाला) वहां घटा है और मुझे पता है इसीलिए मैंने उसको लिखा।

मतलब ओवरऑल जेएनयू या वहां के विचारों का ये प्रतिनिधित्व नहीं करता?
मुझे लगता है हिंदुस्तान का सबसे प्रेमियर इंस्टिट्यूट है वो। वहां से जितने लोग निकले हैं उनकी राजनीतिक समझ और उनका योगदान अभूतपूर्व है। इसके लिए तो उन्हें किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। उस किस्से से कोई लेना देना नहीं था। वो चरित्र जो अभय देओल का था मुझे लगा कि ये इस दुनिया में एक अच्छापन देगा।

आनंद से आप पहली बार कब मिले थे? आप दोनों इतने लंबे भागीदार किन कारणों से बन पाए?
मैं 2004 में पहली बार उनसे मिला था। वो एक कंपनी में कुछ नौकरी टाइप वाला काम कर रहे थे। उससे पहले उन्होंने बहुत सारा टेलीविजन किया था। और अब उन्होंने अपना टेलीविजन करना छोड़ दिया था, वो प्रोड्यूस भी कर रहे थे, डायरेक्ट भी कर रहे थे और काफी अच्छा कर रहे थे। पर वो भी उकता गए उसी काम को करते हुए। वो भी ऐसे ही घूम रहे थे। मैं 2004 में बॉम्बे पहुंचा ही था। उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि फिल्म तो यार ऐसी कुछ है नहीं पर मैं बनाने की कोशिश कर रहा हूं। बाकी तुम बता दो तुम्हारा खर्चा कितने में चल जाएगा महीने में। मैं उतने का जुगाड़ करवा देता हूं तुम्हारा और कुछ करते हैं साथ में। तो उस तरीके से शुरू हुआ। बट, मुझे लगता है वो एसोसिएशन चलने का एक बहुत बड़ा कारण ये रहा कि मैं कभी भी कमीशन्ड राइटिंग नहीं कर पाया। कि मतलब किसी का एक सबजेक्ट हो और आप बस स्क्रीनप्ले लिख दीजिए, डायलॉग लिख दीजिए। शायद इसीलिए न मैं बाहर काम भी नहीं कर पाया। मैं वही लिख सकता हूं जो मेरा मन है। और आनंद अपना मूड बना लेते हैं वही काम करने का जो मेरा मन है। तो अगर इसके बाद मेरा मन एक एक्शन फिल्म लिखने का है तो दो-तीन महीने में ही जब तक मैं इस कहानी पर काम कर रहा होऊंगा वो अपना मन बना लेंगे कि अगली एक्शन बनानी है। एक तरीके से उनका मन नहीं होता मेरा मन हो जाता है कि किस जॉनर में काम करना चाहिए। मेरा मन था ‘रांझणा’ करने का और उन्होंने अपने मन में उस तरीके से ढाल लिया। एक ट्रैजिक कहानी लिखने का मेरा मन था, वो उनका नहीं था पर वो ढाल लेते हैं खुद को। और वो उस तरह के नहीं कि बोले, दस सीन हो गए आओ बैठ कर बात करें। नहीं। पूरी स्क्रिप्ट जब मैं सुनाता हूं तब वो सुनते हैं। निश्चित तौर पर हम रोज मिलते हैं, रोज ऑफिस में बैठकर बातें होती हैं। खाना साथ हो जाता है। उन सबके चलते एक बातचीत रहती है। वो दुनिया मैं उनको दिखा देता हूं। पर जो सीन-दर-सीन प्रोग्रैशन कहानी का वो उन्हें बाद में ही पता चलता है। और उस पर मुझे नहीं याद उन्होंने कभी कोई बदलाव बताए हों, उन्हें दिक्कत लगी हो। लेकिन उनको जो चीज करनी होती है उसे वो करते हैं। यही सबसे बड़ी वजह है कि हम बहुत अच्छे से घुलते हैं। मुझे इसीलिए उनके साथ काम करने में हमेशा मजा आया है।

Himanshu with Anand.
दोनों में कोई रचनात्मक मतभेद नहीं होते? होते हैं तो सुलझाते कैसे हैं?
होते हैं बिलकुल होते हैं, जैसे सबके साथ होते हैं। वो जिस किस्म के डायरेक्टर हैं उन्हें जोर किसी चीज पर अच्छा नहीं लगता। जैसे, आपको लगता है कि कहानी में बहुत भारी ट्विस्ट है, वो उसे ऐसे पेश करते हैं जैसे कोई बात ही न हो। और जो आपको एवेंई सी बात लगती है उसे वे बड़ा बना देते हैं। तो उनका एक बड़ा रोचक तरीका है काम करने का। उससे कई बार नाइत्तेफाकी रहती है मेरी। उन चीजों को लेकर हमारी कई बार बहस हुई है। लेकिन वो ज्यादा-कम बहस तक ही रही है। उसकी वजह से ऐसा कोई अंतर नहीं आ गया।

वो कौन सी घटना, किताब या बात थी जिससे आप फुल टाइम राइटर बने?
सच बताऊं तो ऐसा कुछ न था। ऐसा तो था नहीं कि मैं बड़ा इलाहाबाद का कलेक्टर लगा था और छोड़कर आ गया। कॉलेज खत्म किया। फिर एक साल एनडीटीवी में काम किया। वहां एक हेल्थ शो लिखता था मैं। नॉन-फिक्शन काम में मजा नहीं आया, बॉम्बे आ गया। कुछ दोस्त आ रहे थे। उनके साथ आ गया। कुछ दिन असिस्टेंट डायरेक्शन किया। उसमें लगा कि यार ये काम मेरी सर्वश्रेष्ठ कोशिश नहीं है। .. फिर लिखने का मन था। कि यार लिख सकता हूं कोई कहानी। कहानियों के प्रति एक रूझान रहा है। लिट्रेचर का स्टूडेंट रहा हूं। तो उस तरीके से एक झुकाव था लिखने पे। मेरे पास ऐसा कोई भारी कारण नहीं है कि मैं क्यों लिख रहा हूं और न मैं सोचता हूं इस तरीके से। मुझे कतई नहीं लगता कि बड़ा भारी काम आप कर रहे हैं फिल्में बनाके। इससे बेहतर और जरूरी काम भी हैं दुनिया में। अभी मेरी किसी से यही बात हो रही थी कि इतना घमंड और इतना इतराना, ये किस बात का? आप पेट्रोल नहीं पैदा कर रहे न। स्टील नहीं बना रहे। देश आप पर निर्भर नहीं है। आप अच्छे समय के दोस्त हैं। आप लेजर (आनंद, विलासिता) बिजनेस में हैं। जब लोगों के पेट भरे होंगे, उनको तब आपकी याद आएगी। पहले बंदर नाचता था, भालू नाचता था। अब आप ये करके दिखा दीजिए।

अपने परिवार के बारे में कुछ बताएं। और परवरिश के दौरान की वो चीजें या वाकये जिन्होंने आपको आज ऐसा बनाया?
मैं एकमात्र हूं घर में जो फिल्मों में हूं। बाकी मेरे घर में सारे ही गवर्नमेंट जॉब्स में रहे। मेरे पिताजी उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग में थे। दो साल पहले रिटायर हुए। मेरी मम्मी हाउसवाइफ हैं। मैं सबसे बड़ा हूं बच्चों में, उसके बाद एक बहन है और एक भाई है। बहन मेरी सिंगापुर में सेटल्ड है और भाई इंजीनियर है। और आप यकीन जानिए ग्रैजुएशन सैकेंड ईयर तक मैं यूपीएससी की तैयारी कर रहा था। पर उस दौरान मैं थियेटर भी करने लगा था। किरोड़ीमल कॉलेज में जहां से मैंने अपना ग्रैजुएशन किया। वहां उनका थियेटर ग्रुप था द प्लेयर्स। एमेच्योर लेवल का ग्रुप है ये। प्रफेशनल नाटक नहीं होते। पर वो तीन साल मेरी जिंदगी के निर्णायक बिंदु हैं। वहां पर जाकर बहुत सीखा। वहां स्टाफ एडवाइजर थे केवल अरोड़ा। उन्होंने द प्लेयर्स के सारे ही लोगों की जिंदगी को बहुत प्रभावित किया। उससे पहले लखनऊ में ही मैंने स्कूलिंग की थी। पर वहां आकर के... वो आपको ये नहीं बताते कि कैसे बेहतर एक्टर बन जाएं या कैसे बेहतर राइटर बन जाएं या कैसे बेहतर स्टेज डायरेक्टर बन जाएं लेकिन एक बेहतर इंसान बनना, एक बेहतर सोच आना वो उस संस्था ने जरूर सिखाया। हम सभी को। राजशेखर जो हमारी फिल्म के गीतकार हैं, वो भी वहीं से हैं। और काफी लोग हैं। विजय कृष्ण आचार्य वहीं से हैं। कबीर खान जो हैं, वो वही से हैं। तो बहुत कमाल के वो तीन साल गुजरे मेरे। और उसमें काफी कुछ बदला। उससे पहले निश्चित तौर पर एक जबान, एक लहजा, स्मॉल टाउन की तमीज़ लखनऊ से ही आई। उस सिटी का बहुत एहसानमंद हूं।

बचपन में आप क्या पढ़ते थे? लिट्रेचर, कॉमिक्स? मम्मी या दादी-नाना कुछ कहानी सुनाते थे?
हम लखनऊ में रहते थे। मेरे दादा-दादी, मतलब मेरे पिताजी दिल्ली से हैं। मम्मी मेरठ से हैं। हम मई-जून की छुट्टियों में वहां जाया करते थे। कॉमिक मैंने बहुत पढ़ी। हिंदी कॉमिक्स मतलब ध्रुव, नागराज, चाचा चौधरी उसे पढ़ने के लिए मैं बहुत पिटा हूं। और उस समय यकीन जानिए सपने में भी नहीं था कि फिल्म्स या फिल्म राइटिंग या फिल्म डायरेक्शन या इस तरीके के क्षेत्र में जाना कुछ नहीं था। मुझे लगता है कि आज के दौर में इतने एवेन्यूज यंग जेनरेशन को पता हैं पर तब 90 के दशक में डॉक्टर, इंजीनियर और यूपीएससी के अलावा क्या होता था? मसलन, जर्नलिज्म को ही ले लीजिए। कौन बोलता था कि मैं जर्नलिस्ट बनना चाहता हूं? ये इतने सारे विकल्प, एवेन्यूज बहुत बाद की बातें हैं।

अवचेतन (सब-कॉन्शियस) में आप वो जो कॉमिक्स बचपन में पढ़ते थे, आज जब लिखने बैठते हैं तो बहुत हेल्प होती है। कि अंततः ऐसे ही आप रच पाते हैं चीजें। इतना सब पढ़ा है, वो न पढ़ा होता तो शायद न लिख पाते।
हां, आई एम श्योर। सब-कॉन्शियस लेवल पर ऐसा जरूर होगा। लेकिन मैंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया कि मैं किन कारणों से ऐसा कर पा रहा हूं या नहीं कर पा रहा हूं। मुझे लगता है कि एक किस्सागोई वाली जो बात होती है वो उत्तर प्रदेश में आपको दिख जाएगी। टोटैलिटी में आप कह सकते हैं कि यूपी का आदमी बड़ा आलसी होता है और बातों में बड़ा मजा आता है उसे।

प्रतिभाशाली भी होते हैं।
बस वो थोड़े मेहनती हो जाएं तो बहुत अच्छा होगा। मैं उस मामले में टिपिकल यूपी से ही बिलॉन्ग करता हूं। खासा आलसी इंसान हूं। पर हां, वो किस्सागोई की बात होती हैं न कि बैठे हैं चाय पी रहे हैं और सरकारें बन गईं, सरकारें गिर गईं बातों में हीं।

आपको लेकर माता-पिता के कुछ सपने थे जो फिल्मों में आने से टूटे? और जब फिल्मों में आने का उन्हें कहा तो उनकी प्रतिक्रिया क्या थी?
सारे ही लोग चाहते थे कि यूपीएसी दो और यूपीएससी तुम्हे सीरियसली करना चाहिए। पर मेरे पिताजी काफी लिबरल टाइप के आदमी हैं। बहुत सज्जन इंसान हैं, बहुत पेशेंट हैं। उन्होंने मेरे को एक ही बात बोली थी जो बहुत सही थी कि देखो बेटा तुम लाइफ में जो कर रहे हो, ठीक है कर लो। तुम्हारी अपनी सोच है। पर बात ये है कि कल को अगर फिल्म इंडस्ट्री में जाकर के तुम बहुत नाम कमाओ और अवॉर्ड मिले तुम्हे तो तुम स्टेज पर मेरा नाम मत लेना। पर अगर तुम भीख मांग रहे हुए वहां वीटी स्टेशन पे तो भी मेरा मत लेना। तब ये न बोलना कि यार पिताजी आप तो उमर में बड़े थे, आपको समझाना चाहिए था। अपनी फेलियर के भी तुम जिम्मेदार होगे, अपनी सक्सेस के भी तुम्ही होगे। बाकी जो मन लगे तुम समझदार हो, जो करना है करो।

मां ने कुछ नहीं कहा?
मम्मी का इतना कोई विरोध नहीं रहा।

आप लखनऊ में थे, दिल्ली में थे, फिल्में देखते थे, बाहर से जो सम्मोहन होता था, आज अंदर आने के बाद और फिल्ममेकिंग की मशीनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद क्या वो सम्मोहन आज भी बना हुआ है? या अब थोड़ी सी सामान्य हो गई है चीजें?
मुझे बड़ा मजा आता था गोविंदा की फिल्में देखने में। और यश जी की फिल्में देखने में। मैं ‘दीवार’ जैसी फिल्म, ‘शोले’ जैसी फिल्म या जो सुभाष घई का सिनेमा हुआ करता था उन पर पलता था। ‘राम लखन’ और ‘कालीचरण’। मतलब मुझे ये हाइप वाले ड्रामा बड़ा मजा देते थे। पर ऐसा नहीं था कि मैं ये करना चाहता हूं। मुझे मजा आ रहा है देखने में हां ठीक है, बाकी काम तो आपको अपना कुछ करना ही होगा जीवन में। तब कभी दिमाग में भी नहीं था कि फिल्म्स बनाएंगे, फिल्म्स लिखेंगे या फिल्म्स में काम करेंगे। और अभी भी आप यकीन जानिए मैं इस जगह को (मुंबई फिल्म उद्योग) को उस तरह बिलॉन्ग भी नहीं करता। बड़ा सेक्लूजन टाइप है। मतलब अभी भी मेरे वही दोस्त हैं जो कॉलेज के टाइम से हुआ करते थे। अभी भी मेरा कोई नया सर्किट यहां बना नहीं है। अपना जो समझ में आता है, जो बातों में लगता है, एक-दूसरे से जो कहानी कहने में मजा आता है, बस उसी पे काम कर रहा हूं मैं और वही लिखता हूं। बाकी मुझे लगता है ये बड़ा ... क्या कहेंगे उसे, नकली शायद ज्यादा सख्त शब्द हो जाए, पर बड़ा भ्रम है जी ये बहुत सारा। आप चाहें तो दिन की तीन फिल्मी पार्टी रोजमर्रा के हिसाब से जा सकते हैं पर बात ये है कि आपको कहना है ये काम? मतलब आप वहां जाएं, हंसें, बोलें लेकिन कुछ अर्थ बनानी चाहिए चीजें। अभी भी जो गैदरिंग का सेंस है वो पुराने दोस्तों के साथ बैठना, बातें करना, चाय पीना उसी से आता है। मैं काफी संतुष्ट हूं। ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं है मेरी। कि अरे ये दुनिया कुछ उस तरह से एक्सप्लोर की जाए।

फिल्में बनाने वाले लोग मुंबई में रहते हैं, महानगरीय जीवन-शैली उनकी होती है लेकिन प्रेरणा जो उनकी होती है वो छोटे शहरों से आती है। ऐसा क्यों होता है? और आप शायद मुंबई में पले-बढ़े होते तो ऐसी चीज (तनु मनु, रांझणा) शायद दे ही नहीं पाते।
बिलकुल। लेकिन तब शायद मैं कोई और कहानियां दे रहा होता। आप देखिए, यहीं पर छोटे शहरों की कहानियां भी बन रही हैं और बड़े शहरों की भी कहानियां बन रही हैं। आप जोया अख्तर का काम देखिए। बहुत अच्छा काम है उनका। चाहे उनकी पिछली फिल्म ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ हो या अब ‘दिल धड़कने दो’। अब जोया जहां से आती हैं, उनको वही दुनिया पता है। वो गर्मी की छुट्टियों में स्पेन ही जाती थीं। हम मेरठ जाते थे। आप मेरठ को ज्यादा बेहतर समझते होंगे। वो पैरिस, स्पेन और रोम को ज्यादा बेहतर समझती हैं। तो वो ईमानदारी से वहां की दुनिया पेश कर रही हैं। हम ये बात बता देते हैं कि यार मेरठ में लड़का ऐसे बोलता है और इन-इन चीजों से गुजरता है। सो सबकी अलग दुनिया है। बहुत सारी कहानियां हैं इस दुनिया में तो। कोई कहीं की सुनाता है, कोई कहीं की।

आप आने वाले समय में निर्देशन भी करना चाहते हैं तो ये अर्बन, एलिटिस्ट कहानियों में आपकी रुचि है।
अच्छी कहानी में हमेशा इंट्रेस्ट रहेगा। अच्छी कहानी चाहे किसी भी दुनिया से आए आपको मजा आता है। जरूरी थोड़े ही है कि आप उस दुनिया को जानें। बैटमैन को कोई जानता थोड़े ही है या किसी का दोस्त बैटमैन है। पर मजा आता है। तो किसी भी दुनिया की कहानी हो, अच्छे तरीके से पेश की जाएगी तो क्यों नहीं मजा आएगा। आगे कोई एक अर्बन सेटअप में कहानी समझ आती है तो मैं बिलकुल लिखूंगा। बिलकुल उसको डायरेक्ट करना चाहूंगा। पर अभी जिस कहानी पर मैं काम कर रहा हूं और जो मैंने सोचा कि इससे डायरेक्शन शुरू करूंगा वो लखनऊ में सेट है। क्योंकि वो दुनिया मुझे ज्यादा करीब की जान पड़ती है।

क्या फिल्में समाज पर असर डालती हैं? अच्छा या बुरा?
मुझे लगता है इतना बड़ा कुछ है नहीं फिल्म कि समाज बदलने की ताकत रखे। ऐसा कुछ नहीं है। मुझे नहीं जान पड़ता है। हां बाकी ये जरूर है कि एक तरह का प्रतिबिंब जरूर होता है। आप किसी भी एक देश के समकालीन समय की फिल्म देखकर के उस समय की सेंसेबिलिटी जरूर समझ सकते हैं। हम सब अपने समय की ही उपज हैं। ऐसा तो है नहीं कि फिल्म देखने वाले अलग दुनिया से आ रहे हैं और बनाने वाले अलग दुनिया से। आ तो सब एक ही दुनिया से रहे हैं। तो उन मेकर्स की सेंसेबिलिटीज या बेचैनी कह लीजिए या उनकी चिंता कह लीजिए, या उनकी समझ कह लीजिए या नजरिया कह लीजिए। वो आपको जरूर समझ में आता है उस वक्त का। उस वक्त का एथोज समझ में आ जाता है उस वक्त की कहानियां देखकर के। इसीलिए सत्तर में ‘दीवार’ जैसी कहानियां बनती हैं। एक गैंग्स्टर का ग्लोरिफिकेशन दिखता है। या एक स्मगलर का। क्योंकि वो एक फेज था। हम आजादी के बाद डिसइल्यूज़न्ड (मोहभंग) थे। क्योंकि हमें नहीं समझ आ रहा था। हमें लगा था कि आजादी के बाद सबके पेट भरे होंगे। जैसे कुछ चमत्कार हो जाएगा। पर कुछ नहीं हुआ और वो 20 साल में समझ आने लगा। गोरे साहब की जगह भूरे साहब आ गए। वो फिल्मों में झलकने लगा। आज जितनी फिल्में आ रही हैं उससे आपको आज के समय की समझ मिल सकती है। सामाजिक, राजनीतिक समझ। मुझे नहीं लगता कि ये इतना भारी काम है कि कोई फिल्म आकर सामाजिक परिवर्तन ला सके। और एक बात बताऊं इतना कोई बेहतरीन काम भी नहीं हो रहा। ऐसा नहीं है कि पिछले हफ्ते ‘मुगलेआजम’ आई और अगले हफ्ते ‘कैसेब्लांका’ आ जाएगी। ऐसा नहीं है। बहुत ही औसत काम हो रहा है इंडस्ट्री में। पर बात ये है कि हम इतने वक्त से बिरियानी के पैसे लेकर के खिचड़ी खिला रहे हैं न लोगों को कि हल्का सा एक पुलाव भी बड़ा खुश कर जाता है। आप सोचिए कितना सस्ता वर्ड हो गया है ...कल्ट क्लासिक। अरे ये फिल्म तो कल्ट है। अच्छा? अगले फ्राइडे फिर एक कल्ट आ जाएगी। तो ये तो हालत हो गई है। और ये मैं अपने को सबसे पहले गिनकर बोल रहा हूं। मैं भी कोई बड़ा भारी ऐसा काम नहीं कर पा रहा कि दुनिया को लगे भई इन्होंने तो कुछ बड़ा बदल दिया। कुछ नहीं है, सब औसत काम कर रहे है। जिसको जो समझ में आ रहा है, कर रहा है। बस। मुझे नहीं लगता कि एक भी शख्स ऐसा है जो पेज टर्निंग वाला काम कर रहा है कि अरे ऐतिहासिक है ये।

लेखक पैदा होते हैं कि बनते हैं?
मुझे लगता है कि तीन फिल्में लिखकर के इसका जवाब देना बड़ा कठिन है। तीन ही हैं आखिरकार। मेरा कोई ऐसा बॉडी ऑफ वर्क नहीं है कि मैं अपनी एक एकेडेमिक समझ बना पाऊं।

टैरेंस मलिक ने तो पांच बनाई हैं चालीस साल में।
वो है, वो है, पर मुझे नहीं लगता कि अभी मैं उस स्थान पर हूं। मैं खुद अभी बहुत चीजों से जूझ रहा हूं। मैं खुद अपने ही काम से कई बार बोर हो जाता हूं। मुझे लगता है वही दुनिया, वही एक से सीन, वही सोच, वही अप्रोच.. कुछ बदलना चाहिए। मैं अभी अपने काम को लेकर बड़ा चिंतित रहता हूं कि कुछ ऐसा हो पाए कि यार किसी और को बाद में लगे खुद को लगे कि कुछ हुआ। तो अभी मैं अपने जीवन और करियर में इन बातों पर ध्यान लगा रहा हूं। बाकी तो ये बड़े बुढ़ापे के सवाल हैं। कि राइटर पैदा होता है कि बनता है। ठीक है साब, दस हजार काम होते हैं तो एक राइटर भी होता है।

आप अखबार पढ़ते होंगे। ऑनलाइन देखते होंगे। जितनी भी खबरें आती हैं। मसलन, दिल्ली के चिड़ियाघर में बाघ के पिंजरे में एक युवक के गिरने की घटना है, उसके हाथ जोड़ने की तस्वीर है, आईएसआईएस के रोज आने वाले बिहैडिंग के वीडियो हैं, धर्मांधता है, सेंसर बोर्ड है या नेट न्यूट्रैलिटी है। जब इन्हें देखते हैं तो आपके अंदर का लेखक कितनी जल्दी सक्रिय हो जाता है?
नहीं वो लेखक से उतना लेना-देना नहीं है। देश के नागरिक या मानव के तौर पर देखते हैं। उस पर विचार करते हैं। वो बहुत ह्यूमेन ग्राउंड पर असर डालता है। राइटर बाद में आता है। दुनिया ऐसे तो नहीं जी जा सकती कि कोई आपसे अपना दुख-दर्द बांट रहा है और आप अचानक से बोलें कि यार ये तो बड़ी अच्छी कहानी है। पहला रिएक्शन तो यही होता है कि सब ठीक हो जाएगा, तू चिंता मत कर भाई। तो मेरा तो वही रहता है बाकी कुछ कहानियां हैं तो अगले पांच साल तक मुझे बिजी रखने के काबिल हैं। तो अभी तो डरा हुआ नहीं हूं इतना। कहानी का उतना कोई अभाव नहीं है। जब होगा तब पेपरों को उस तरीके से पढ़ना शुरू किया जाएगा।

क्या आप अपने साथ डायरी रखते हैं, नोट लेने या अनुभव लिखने करने के लिए?
काश ये काम मुझे आते। काश मैं इतना सीरियसली अपने काम को ले रहा होता। मैंने तो आपको बोला न, खासा लेजी राइटर हूं और खासा लेजी इंसान हूं। अपना बिस्तर, अपना सोफा, अपनी चाय, अपनी खिड़की, अपनी एक गजल बड़े गुलाम अली साहब की.. उसमें मैं बड़ा खुश रहता हूं। लिखाई मेरे दिमाग में तब शुरू होती है जब मुझे लगता है कि भाई अब आनंद राय मतलब मर जाएगा अगर नहीं दिया कुछ तो। तो मैं तभी उठता हूं। पर हर फिल्म के दौरान भी लिख ही रहा होता हूं और हर फिल्म के अंत में ये वादा करता हूं खुद से और आनंद राय से कि खबरदार जो आज के बाद तुमने मुझे इस तरह पुश किया तो। अब मैं स्क्रिप्ट खत्म करूंगा और तभी तुम बनाना। तो मैं चाहता हूं कि थोड़ा अनुशासन हो राइटिंग में। मुझे लगता है उस अनुशासन की कमी ही मुझे मार रही है बहुत-बहुत वक्त से। और.. मेरा एडिटर भी यही बोलता है कि हिमांशु मुझे तुम्हारा टैलेंट नहीं चाहिए मुझे तुम्हारी मेहनत चाहिए। मैं थोड़ा कम मेहनती इंसान हूं।

राइटर्स ब्लॉक (रचनात्मक गतिरोध) आता है तो क्या करते हैं?
आता है। कई बार आप दीवार से सिर मारते रहिए। एक जगह अगर आपका चरित्र अटक गया तो अटक गया। और ये जो बातें होती हैं न जो आपने भी सुनी होंगी और मैंने भी सुनी कि “इस दुनिया में आ जाइए फिर आपको चरित्र बताएगा कि उसको कहां जाना है”। कोई किरदार आपको नहीं बताएगा। वो वहीं साला खड़ा रहेगा जहां पर आपने उसे छोड़ा है। आप ही को ले जाना हैं जहां उसे ले जाना चाहते हैं। वो खुद कुछ नहीं करेगा। लेकिन राइटर्स ब्लॉक बड़ा जरूरी होता है। जब तक आप उस डेड एंड पर जाकर नहीं खड़े होंगे कि जहां पर आपको लगे कि यार अब यहां से कहां निकलूं। अब वापस भागूं या इस दीवार को तोड़ कर के आगे बढ़ूं या साइड में भग जाऊं। जितना तकलीफ वो आपको देगा, उतना ही मजा आपकी स्क्रिप्ट में झलकेगा। अगर आप उस ब्लॉक तक पहुंचे हैं तो आपके साथ ऑडियंस भी तो पहुंचेगी न? मैं हमेशा कहता हूं जब फाइनली आप चंदन (सिनेमा, मुंबई) में फिल्म देखते हैं न, एक सिंगलप्लेक्स में, आपको वहां जाकर समझ आता है कि जो लोग बैठकर फिल्म देख रहे हैं वे ज्यादा बेहतर लेखक, एडिटर और निर्देशक हैं। वे आपको बताएंगे। परदे पर सीन देखकर लगता है कि ओ शिट, ये सीन न तीस सेकेंड पहले कट जाना चाहिए था। या ये लाइन मेरी वर्क नहीं कर रही है यहां जो मुझे लग रहा था करेगी। आप अपना काम थियेटर में देखिए, सारी गलतफहमियां, सारे मुगालते दो मिनट नहीं लगते दूर होने में। जब पीछे से आवाज आती है न “रील नंबर छह पे नहीं सात पे थी, अबे आगे बढ़ाओ”, आपको समझ में आ जाता है सारा मामला। ये जो टर्म हैं न, पब्लिक..। पब्लिक कुछ नहीं होती। आप उन्हीं का हिस्सा हैं। जब आप ट्रैफिक में होते हैं आपको लगता है न कितना ट्रैफिक है। लेकिन आपकी साइड वाली के लिए आप ट्रैफिक हैं।

फिल्म एडिट करते समय या हर डिपार्टमेंट द्वारा काम करते समय निर्देशक या निर्माता बताता है कि हमें ये उस दर्शक को लक्ष्य करके तैयार करना है। जबकि वो दर्शक कभी किसी को मिला ही नहीं, उसे किसी ने देखा ही नहीं है। न जाने कौन सा दर्शक, कहां, किस जेहनियत के साथ, किस मानसिक अवस्था, कितने ज्ञान के साथ क्या पसंद करेगा। तो उसे ढूंढ़ पाना या उसे लेकर एक मैच्योर जगह पहुंच पाना ये कभी हो नहीं पाया। लिखते समय क्या आप उस दर्शक को ढूंढ़ पाए हैं?
नहीं, बिलकुल नहीं। और उस पर ज्यादा सोच लगानी भी नहीं चाहिए। आप वही काम कर सकते हैं जो आपको आता है। ऐसा तो नहीं है न कि किसी एक फिल्म को लिखने के लिए मैं राजकुमार हीरानी से गुद्दी उधार ले सकता हूं? अगर ले सकता तो ले लेता। आप काम वही करेंगे जो आपको आता है, जो आपकी गुद्दी आपको बताएगी, जो आपका विवेक आपको बताएगा, जो आपका दिल आपको कहेगा। आप जितनी ईमानदारी से वो अटेंप्ट कर सकें आप बस वो करें। आप मेहनत करने की कोशिश करें। ईमानदार रहें। आप झूठ न बोलें। न खुद से न किसी और से। आप वो काम करें जो आपको अच्छा लगता है। क्योंकि आपको अच्छा लगेगा न तो हो सकता है चार-पांच और लोगों को अच्छा लगे। अगर आप ज्यादा चतुर बनेंगे तो वो जो तीन-चार लोगों को पसंद आने की गुंजाइश थी वो भी खत्म समझो। आप वो लिखिए जो आपको लिखने का मन है, बाकी आपके पास चारा क्या है। कम से कम वो तो तमीज से लिख दीजिए।

वो स्क्रिप्ट जो आपको बेदाग़ लगती हैं?
‘दीवार’। सलीम-जावेद साहब का जितना भी काम है वो। वो बहुत पके हुए और पुख़्ता राइटर्स हैं। उनका सेंस ऑफ ड्रामा, स्टोरी, कैरेक्टर। ‘दीवार’ वॉटरटाइट है। उसमें से एक सीन भी हटाना... मतलब सीन हटाना तो बहुत बड़ी बात है, मुझे नहीं लगता कि उसे आप किसी तरीके से भी बदल सकते हैं। असंभव है। आप उसमें से कोई भी सीन हटाकर देखें। कुछ मिस कर देंगे आप। उसके परे मुझे कुछ नहीं दिखता। हिंदी सिनेमा में ऐतिहासिक स्क्रीनप्ले का उदाहरण है ‘दीवार’। टॉम स्टॉपार्ड ने एक स्क्रिप्ट लिखी थी जिस पर फिल्म बनी ‘शेक्सपीयर इन लव’ (1998)। वो भी वॉटरटाइट स्क्रीनप्ले था। विदेशी में ये कमाल लगती है।

आकांक्षी फिल्म राइटर्स के लिए वो नियम जो उन्हें अपनी राइटिंग टेबल के आगे चिपकाने चाहिए।
सबसे पहले तो वो टेबल पर बैठें, क्योंकि मैं तो टेबल पर भी नहीं बैठ रहा। और दूसरी चीज, मुझे लगता है ईमानदारी। आप पूरी ईमानदारी से सही, गलत, अच्छा, बुरा, गुड-बैड-अग्ली जो भी आता है आप ईमानदारी से कह दें। ये एकमात्र चीज है जिसका मैं पालन करता हूं।

फिल्म राइटर बनने के लिए फिल्म स्कूल जाना जरूरी है?
मैं तो नहीं गया हूं। पर.. जाना चाहिए, यकीन है कुछ रोचक ही सीखने को मिलता होगा वहां।

इस साल की कोई उत्साहित करने वाली फिल्म देखी है? समकालीन लेखकों में कौन अच्छे लगते हैं?
मुझे कमाल की लगी ‘बदलापुर’। इस साल मैं ज्यादा फिल्में नहीं देख पाया पर ‘बदलापुर’ मुझे आउटस्टैंडिंग फिल्म लगी। और बहुत अच्छी राइटिंग लगी उसकी। वैसे भी मुझे श्रीराम सर का काम हमेशा ही अच्छा लगा है। मैंने उन्हें काफी लंबा मैसेज भी किया। और जैसे वो हैं, उन्होंने एक लाइन में उत्तर दिया, ‘थैंक यू हिमांशु’।

आने वाली फिल्में कौन सी हैं। आनंद राय के साथ ही हैं?
जी, आनंद के साथ ही है। मैं अगली फिल्म भी आनंद के लिए ही लिख रहा हूं। और एक स्क्रिप्ट है जिस पर मैं अपने लिए काम कर रहा हूं। ये दो ही हैं अभी।

आनंद के साथ फिल्म किस श्रेणी यानी जॉनर की है?
रोमैंटिक ड्रामा है। जिसमें वे काफी अच्छे हैं। मैं भी अभी उसी में ही ऑपरेट कर रहा हूं।

एक फिल्म आपकी सलमान के साथ भी है?
हम उनसे मिले। बहुत मजेदार रही मुलाकात। देख रहे हैं अभी वो बहुत बिजी हैं, उनके कमिटमेंट।

जिंदगी का फलसफा क्या है? जो निराशा में भी उठ खड़ा होने और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है?
जिंदगी चरणों में आती है। और अच्छा टाइम नहीं रुकता तो बुरा क्यों रुकेगा। जूझना चाहिए। आप इसीलिए पैदा हुए हैं कि चीजों से जूझें।

जब आप फिल्मों में आना चाहते थे तो न जाने कितने किस्से थे जो आपको कहने थे, न जाने कितनी फिल्में आपको बनानी थी, अब जब आ गए हैं तो ऐसा नहीं लगता एकदम खाली हो गए हैं?
ये मेरी लाइफ में सबसे बड़ा डर है यकीन जानिए। ये कि एक दिन मैं सोकर उठूंगा और मेरे पास कोई कहानी नहीं होगी। कि आप खाली हो गए। और जब आप खाली हो जाएं न, तो बेहतर है चुप बैठें। बेकार में कहानियां न सुनाएं। बाकी ऐसी कोई दिक्कत नहीं है, लखनऊ में घर है अच्छा और शहर बहुत पसंद आता है। जहां से आए हैं वापस लौट जाएंगे। कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन अभी तीन-चार कहानियां हैं जो पांच-छह साल तो बिजी रख देंगी। उनको लेकर मैं एक्साइटेड हूं, मुझे अच्छा लग रहा है उनके बारे में सोचकर के।

राइटर्स में आपके ऑलटाइम फेवरेट कौन हैं?
हिंदी साहित्य का स्टूडेंट रहा हूं। प्रेमचंद को बहुत पढ़ा मैंने। भारतीय लेखकों में मुझे निर्मल वर्मा बहुत पसंद हैं। धर्मवीर भारती बहुत पसंद हैं और उनकी ‘गुनाहों का देवता’ जो है उसका बहुत ज्यादा प्रभाव रहा मुझ पर। बाकी आजकल एक बहुत धमाल किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ (1975) पढ़ रहा हूं। ज्यादा पढ़ नहीं पा रहा लेकिन सोचा हुआ है पढ़ाई करनी है फिर से लगकर। वापस दिल्ली यूनिवर्सिटी मोड में आने का विचार है मेरा।


Himanshu Sharma is a young film writer from India. He's from Lucknow, at present based in Mumbai. He's written three successful Hindi films so far - Tanu Weds Manu (2011), Ranjhanaa (2013), Tanu Weds Manu Returns (2015). The last one released on May 22 this year. For all the three films he has collaborated with director Anand Rai. He's writing two more scripts at the moment. One of them will be directed by Rai and the other one will be his directorial debut. Both will be romantic dramas situated in Lucknow.
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मैं नहीं कहता तब करप्शन अपवाद था, पर अब तो माहौल फ़िल्म (जाने भी दो यारो) से बहुत ज्यादा ब्लैक है: कुंदन शाह

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 Q & A..Kundan Shah, Writer-director of – Jaane Bhi Do Yaaro, Kabhi Ha Kabhi Na.
  
Naseeruddin & Satish Shah in the epic Mahabharata scene from JBDY.

सईदअख़्तर मिर्जा ने 1980 में फ़िल्म ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ का निर्देशन किया था। एफटीआईआई में उनके साथ पढ़े कुंदन शाह को भी गुस्सा आता था। इस फ़िल्म में सहायक निर्देशक रहे कुंदन ने बाद में अपना गुस्सा पूरी गंभीरता से हंसा-हंसाकर ‘जाने भी दो यारो’ के जरिए निकाला। 1983 में दोस्तों की अनूठी कोशिशों और धारा के उलट बनी इस व्यंग्य विनोद प्रधान फ़िल्म ने समय के साथ बहुत अलग मुकाम फ़िल्म इतिहास में पा लिया है। इसकी पूरी प्रक्रिया और यात्रा के बारे मेंफ़िल्म ब्लॉगर जय अर्जुन सिंहने अपनी किताब में काफी विस्तार से लिखा है। अब 32 साल होने को आ रहे हैं, कुंदन शाह अभी भी गुस्से में हैं।

उनकी नई फ़िल्म है ‘पी से पीएम तक’। इसमें मीनाक्षी दीक्षित नाम की अभिनेत्री ने एक ऐसी वेश्या की भूमिका निभाई है जो प्रधान मंत्री पद का चुनाव लड़ने तक का सफर करती है। फ़िल्म शुक्रवार को रिलीज हो चुकी है। केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड ने फ़िल्म में से उन चर्चित नामों को हटा दिया है जिन पर व्यंग्य किया या नहीं किया गया था। जैसे, सलमान खान, जयललिता और सुब्रत रॉय। लेकिन अथक प्रयास के बाद फ़िल्म आ गई है। इस राजनीतिक व्यंग्य के बारे में कुंदन का अनुरोध है कि दिमाग लगाकर देखें। ट्रेलर देखकर लगता है कि ‘जाने भी..’ की तरह इस फ़िल्म की बुनियादी बात भी संभवत: अभी लोग अपनी हंसी में ही उड़ा देंगे। खेदजनक है। उन जैसे निर्देशकों की हमें जरूरत है।

कुंदन ने बीते तीन दशकों में और भी उल्लेखनीय काम किया है। उन्होंने ‘नुक्कड़’ (1986), ‘वागले की दुनिया’ (1988), ‘परसाई कहते हैं’ (2006) जैसे धारावाहिक बनाए हैं जो बेहद सार्थक रहे हैं। वे विधु विनोद चोपड़ा की 1985 में आई गंभीर फ़िल्म ‘ख़ामोश’ की लेखन और निर्देशन टीम का हिस्सा भी रहे। शाहरुख खान को लेकर उन्होंने 1993 में ‘कभी हां कभी ना’ जैसी फ़िल्म बनाई। वो शाहरुख की संभवत: अकेली फ़िल्म है जिसमें हीरो होते हुए भी अंत में वे हार जाते हैं। ‘क्या कहना’, ‘दिल है तुम्हारा’, ‘हम तो मोहब्बत करेगा’, ‘एक से बढ़कर एक’, ‘तीन बहनें’ कुंदन द्वारा निर्देशित अन्य फिल्में हैं।

उनसे बातचीत:

‘पी से पीएम तक’ बनाने की जरूरत कब महसूस हुई?
20 साल हो गए।

कहां से पनपा आइडिया?
देखिए मेरी सारी कहानियां न्यूज़पेपर्स से आती हैं। आप पढ़ते हैं, गुस्सा आ जाता है। एक आइडिया आया था कि जो ये पूरा पॉलिटिकल माहौल है, उसको कैसे बताया जाए? अचानक आइडिया आया कि प्रॉस्टिट्यूट (वेश्या) के किरदार को एक मेटाफर (रूपक) के तौर पर यूज़ करते हैं। कैसे वो एक बायइलेक्शन (उपचुनाव) में फंस जाती है और चार दिन में चीफ मिनिस्टर बन जाती है। उपचुनाव के चक्रव्यूह में कुछ ऐसी-ऐसी चीजें हो जाती हैं। उसे चीफ मिनिस्टर नहीं बनना है, न ही पॉलिटिक्स जॉइन करना है लेकिन कैसे वो बन जाती है। आगे की पीएम बनने की उसकी जर्नी क्या होती है। हालांकि वो पीएम बनती नहीं है।

20 साल तक अपने मूल किस्से को संजो कर रखना मुश्किल नहीं था?
मैंने कुछ सात साल पहले एक लाइन लिखी थी। दो पॉलिटिशियंस डिसकस कर रहे हैं कि “ये तो बहुत बड़ा झूठ होगा”। दूसरा बोला, “तो क्या हुआ, झूठ बोलो, सरेआम बोलो, छाती ठोक कर बोलो। लेकिन ऐसे बोलो कि लोग मंत्रमुग्ध हो जाएं”। यही आज की राजनीति है। मेरे ख़याल से वो आज भी वैलिड है। आप एक चीज का एसेंस (मूल तत्व) पकड़ते हैं, पर्सनैलिटी को नहीं पकड़ते हैं। जो एसेंस है आपके आसपास का वो स्क्रिप्ट को जिंदा रखता है। मैंने जब लिखी 1995 में तब ‘सेज’ (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) का मामला गरम था। फिर वो मेरे ख़याल से ठंडा हो गया। अब वापस गरम हो रहा है। तो क्या है कि वो चीज बनी रहती है।

ये बड़ा अचरज है कि हम तीन घंटे की फ़िल्म देखते हैं या पांच मिनट की कहानी सुनते है फिर आगे बढ़ जाते हैं नई चीज कंज्यूम करने। लेकिन आप अपनी स्क्रिप्ट के साथ इतना लंबा वक्त बिताते हैं, रात बिताते हैं, दिन बिताते हैं। वो फीलिंग क्या होती है, अरुचि या कुछ और? क्यों जुड़े रहते हैं?
मैंने इसे लिखने के बीच में दूसरी फ़िल्में भी बनाईं। लेकिन उसका जो बर्थ आइडिया था वो 20 साल पहले का था। क्या होता है, आइडिया एक्साइटिंग रहता है तो आप उसपे काम करते रहते हैं। आप सोचते हैं। कभी बनाने का मौका मिलता है। क्योंकि मेरे हिसाब से ये यूनीक आइडिया है वर्ल्ड सिनेमा में कि एक प्रॉस्टिट्यूट जिसको कुछ लेना-देना नहीं है, वो बेचारी, उसके अड्डे पे रेड हो जाती है तो वो भागती है। कोई और शहर में जाती है और वहां एक बायइलेक्शन होता है और वहां वो फंस जाती है। और चार दिन में सीएम बन जाती है। तो ये जो प्रिमाइज (आधार) है वो इतना एबसर्ड (अजीब) है, इतना इललॉजिकल (अतार्किक) है, इतना इंट्रेस्टिंग है कि आपको वो अलाइव (जिंदा) रखता है। जैसे आपने जैन डायरीज (हवाला केस) के बारे में सुना होगा। जो एक डायरी मिली थी मि. जैन की जिसमें लिखा था कि किसको कितना पैसा दिया गया है। तो उसपे एक आइडिया आया। फ़िल्म जब बनेगी तब बनेगी। कि मि. जैन को पकड़ लिया है और वो हैलीकॉप्टर में है। उसे बोला जाता है कि कैसे भी साक्ष्य नष्ट कर दो। तो वो डायरी उठा के फेंक देते हैं। वो जाके एक खेत में गिरती है। वो न जाने कौन सा खेत है, न जाने कौन सा ट्राइबल एरिया है वहां जाकर गिरती है। और अब सब लोग उस डायरी को ढूंढ़ रहे हैं। तो इस तरह के आइडिया आप लेते हैं और वो आपको एक्साइट करते रहते हैं। उसको अपनी वास्तविकता से जोड़ते हैं।

ऐसे जितने भी पॉलिटिकल घपले हैं, इस हिसाब से देखें तो आपके पास स्टोरीज़ अनाप-शनाप हो सकती हैं?
बहुत हैं बहुत।

भारत के राजनीतिज्ञों ने इतना क्रिएटिव कंटेंट रखा हुआ है.. 
(खिलखिलाते हैं) बिलकुल। ..

आपके लिए बड़ी दुविधा होती होगी कि किसको उठाएं और किसको छोड़ें। ऐसा कभी होता है?
अभी आपको एक और आइडिया सुनाता हूं। हजारों आइडियाज़ हैं। एक आदमी है उसका एक्सीडेंट हो जाता है। दो एक्सीडेंट होते हैं अलग-अलग अंतराल में। उसकी याद्दाश्त चली गई है। उन दो एक्सीडेंट के बीच अंतर है वो तीन महीना है, छह महीना है या तीन साल है। वो दूसरे एक्सीडेंट से उठता है। पहला एक्सीडेंट हुआ उससे पहले वो फक्कड़ था और अब उसके पास 300 करोड़ है। लेकिन उसके पास 300 करोड़ आया कहां से। लोग उसके आस-पास घूम रहे हैं और उसको कुछ याद नहीं है। अब वो पता कर रहा है कि उसके पास 300 करोड़ कहां से आया। और ये उसकी अपनी गिल्ट (अपराधबोध) की यात्रा है। वो रिवर्स है “हार्ट ऑफ डार्कनेस” (जोसेफ कॉनराड की 1899 में प्रकाशित कहानी, जिस पर 1979 में फ्रांसिस फोर्ड कोपोला ने “अपोकलिप्स नाओ” बनाई) का। उसकी जरा सी याद्दाश्त आए बगैर भी स्क्रीनप्ले पूरा है। तो आइडिया आते हैं। मेरी सारी फ़िल्में न्यूज़पेपर्स से ही आती हैं। ‘जाने भी दो यारो’ से लेकर, ‘थ्री सिस्टर्स’ (तीन बहनें) है, ‘क्या कहना’ है। वहां भी मैंने कुछ न्यूजपेपर्स से लिया था।

पिछली बात हिमांशु शर्मा से हुई थी। उनसे पूछा कि सुबह अखबार पढ़ते हैं या ऑनलाइन खबरें टटोलते हैं तो दिल्ली में बाघ के बाड़े में गिरा आदमी, नेट न्यूट्रैलिटी, राडिया टेप्स, घपले.. इन खबरों पर आपके भीतर का लेखक कैसे रिएक्ट करता है। उन्होंने कहा कि वे एक लेखक के तौर पर इन खबरों को नहीं देखते, एक इंसान या नागरिक के तौर पर देखते हैं।
जहां तक मैं अपने आपको देखता हूं, एक आर्टिस्ट के तौर पर मैं रिएलिटी से इतना जुड़ा हूं कि हमारी जिंदगी में ये सारी चीजें आ जाती हैं। कॉरपोरेटाइजेशन, उसके विक्टिम कहें, फायदे कहो.. हर चीज आ जाती है। आप समझ रहे हैं न। ‘प्यासा’ (1957) का एंड में जो है.. गुरुदत्त बोलता है, “तुम चलोगी मेरे साथ”? या ‘प्रतिद्वंदी’ (1970) सत्यजीत रे का जो गांव चला जाता है। लेकिन आज आप गांव नहीं जा सकते। वहां की भी सच्चाई वही है जो शहर की है। आप भाग नहीं सकते, आपकी जो हकीकत है उससे।

इतनी निराश करने वाली, असल खबरें आप सोचते हैं कि आदमी का पागल होना तय है, उसके बावजूद आप बनाते कॉमेडीज़ हैं।
‘पी से पीएम तक’ का कंटेंट जितना ब्लैक है, उसकी ट्रीटमेंट उतनी ही ब्राइट है। वो संतुलित ऐसे किया है। क्योंकि मेरे पास एक ही हथियार है.. वो है कॉमेडी। उस कॉमेडी को यूज़ करके, सटायर को यूज़ करके आप कैसे वो सबजेक्ट को ऑडियंस के लिए रोचक बना पाते हैं। उसे मजा आए और वो कुछ सोचे। आप जब फ़िल्म देखते हैं तो लोग बोलते हैं अपना दिमाग घर पर रखो, इसमें हम बोलते हैं कि आप प्लीज़ दिमाग अपना लेके आइए। दिमाग से फील कीजिए और दिल से सोचिए।

जैसे मौजूदा सरकार है या अन्यथा भी राजनेताओं के सांप्रदायिक विचार होते हैं.. उसे लेकर बहुत कम कहानियां आती हैं। उस सांप्रदायिक पक्ष पर भी सोचा है आपने पिछले 20 साल में? या ज्यादातर पूंजीवाद और उपभोक्तावाद पर आपका दिमाग ज्यादा खराब होता है?
क्या होता है न.. आपकी बात सही है.. हर डायरेक्टर की एक पर्सनैलिटी होती है। आपकी बात बिलकुल सही है कि जो सांप्रदायिकता है या जो भी हुआ है। बात सही है। पर ओवरऑल आप वो चीज पकड़ते हैं जो आपको अपील करे। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आप उसे लेकर चिंतिंत नहीं हैं या उसके बारे में सोचते नहीं हैं कि जो हो रहा है वो नहीं होना चाहिए। एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर वो सोचना भी चाहिए।

A still from P Se PM Tak.
‘पी से पीएम तक’ की केंद्रीय पात्र वेश्या है। आपने कॉमेडी का सहारा लेते हुए लोगों के सामने एक टिप्पणी करने की कोशिश की है लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि जो सबसे आधारभूत दर्शक हमारा है जो किसी भी बात पर हंसने लगता है। ऐसा नहीं है कि वेश्या के किरदार पर वो उस लिहाज से हंसने लगेगा जैसे हमारा समाज उसे अपमानजनक ढंग से देखता ही है। ये डर नहीं कि वो दर्शक व्यंग्य को उल्टा ही ले ले?
नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। आप अभी उसे बाहर से देख रहे हैं। वो मेरी सूत्रधार है, वो मेरी हीरोइन है हालांकि वो एक प्रॉस्टिट्यूट की भूमिका निभा रही है। देखिए, उसकी लाइफ तो इतनी पाप से भरी हुई है तो क्या कर सकते हैं। और पाप वो नहीं करना चाहती है लेकिन उसे करने पड़ते हैं। लेकिन फिर भी वो मेरी सूत्रधार है। उसको इस अंदाज से पेश करना मेरा काम है। जो आप कह रहे हैं उसका सवाल ही नहीं उठता कि ऐसा फील करेंगे लोग।

पॉलिटिकल कॉमेडीज जितनी भी हैं या हिंदी के बेहद काबिल व्यंग्यकारों की लेखनी है, क्या उनका कभी राजनेताओं की मोटी चमड़ी पर कोई असर हुआ है? आपने बीते 30-40 साल में देखा है क्या? प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से?
इनडायरेक्टली तो निश्चित तौर पर होता है। लेकिन क्या होता है कि ये एक स्तर पर ही असर डालता है। अब खाली मैं एक फ़िल्म बना दूं तो उससे समाज बदल नहीं सकता। लेकिन वो मेरा कर्तव्य है कि मैं कुछ बनाऊं जो समाज से जुड़ा हुआ है। और खासतौर पर आज के लिए। आज का सोचते हुए। क्योंकि आज हम इतने जुड़े हैं कि ग्लोबलाइजेशन है, ये है वो है। आप मुझे एक बात समझाइए आप पत्रकार हैं। आपने, हम लोगों ने एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) इंश्योरेंस में बढ़ा दिया है। कितना पर्सेंट बढ़ाया है आपको पता है? बताइए ना...

जी 49 फीसदी कर दिया है..
और कहां से किया। 25 से किया। क्यों किया? क्या है ऐसी चीज इंश्योरेंस जो हमको बाहर की टेक्नोलॉजी देगी? आप मुझे बताएं किसी न्यूजपेपर ने उठाया? आपने रिपोर्टर के तौर पर ये प्रश्न उठाया? क्यों नहीं उठाया है? क्या फायदा है इसमें? जो 25 से 49 पर्सेंट हुआ है वो इंश्योरेंस में क्या चीज है? आप मुझे बताइए ना...

कोई चीज नहीं है..
इंश्योरेंस में आप पैसे लेते हैं सबसे। करोड़ों से लो और हजारों में दो। तो इसमें हमको कौन सी एफडीआई की जरूरत है यार। किसी मिनिस्टर ने, किसी न्यूजपेपर ने ये सवाल उठाया है ये मुझे बताइए..

नहीं उठाया है..
क्यों नहीं उठाया है? क्या आप नहीं समझते ये बात।

समझते हैं..
तो ये देश के लिए हानिकारक है न?

बिलकुल..
तो फिर चुप क्यों रहते हैं? तो ऐसी बहुत सी चीजें हैं। मेरे कहने का मतलब ये है कि अभी आप नहीं उठा रहे हैं लेकिन एक वर्ग है जो इसकी बहुत भारी तरीके से कीमत चुकाता है। जितना करप्शन हो.. अभी ये मोदी साहब कहते हैं कि नहीं मैं खाऊंगा नहीं, और न खाने दूंगा लेकिन यहां महाराष्ट्र में तो फड़नवीस (देवेंद्र, सीएम) साहब हैं जिन्होंने डीपी (विकास योजना) प्लान ऐसा बनाया है कि यार हमको मुश्किल ही हो जाएगी यार। अगर इतनी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बनने लगीं, न ही रास्ते हैं, न ही कुछ है, कैसे होने वाला है ये सब। वो सोचते हैं रिएल एस्टेट चलता है तो उससे इकोनॉमी को आगे बढ़ाएंगे। उनका यही सोचना है। इकोनॉमी को फिलिप (प्रोत्साहन) मिले ऐसा वो सोच तो रहे हैं तो गलत सोच रहे हैं। सही क्या सोचना है वो उनको पता नहीं है। शायद। मैं छोटा आदमी हूं। लेकिन मेरा एक ड्यूटी बन गया है कि मैं भी आज इकोनॉमिक्स पढ़ूं। अब मैं लिट्रेचर पढ़ता ही नहीं हूं, अब मैं इकोनॉमिक्स ही पढ़ता हूं। मेरा लाइफ इकोनॉमिक्स से ही संचालित होता है।

आपने अपनी शुरुआती फ़िल्म से लेकर आज तक जो भी बताने की कोशिश की है, चेताने की कोशिश की है, आपको नहीं लगता कि प्रोसेस इतना इर्रिवर्सिबल (न मोड़ा जा सकने वाला) हो गया है बीते सालों में कि अब तो नष्ट होना ही तय है?
इसका जवाब तो देना बहुत मुश्किल है। क्या होता है न.. आपने वो ‘नीरोज़ गेस्ट्स’ डॉक्युमेंट्री देखी है न। पी. साईंनाथ ने जो बनाई है। एक नीरो था। रोमन सम्राट था। इतना अंधाधुंधी थी उसके राज में। तो क्या होता है न कि आप जो हिस्टोरिकल पीरियड देखते हैं ... 1947 में हमको आजादी मिली.. 65 से ज्यादा साल हो गए। लेकिन आपने इतने से वक्त में पूरी मानवता का समझ लिया है कि हम समझ ही नहीं सकते? हिंदुस्तान में वही हो रहा है जो पूरे विश्व में हो रहा है। हम ये मान लेते हैं जो इतने साल में है वो बदल ही नहीं सकता। कि ये तो खराब होगा और। आप यही सोच रहे हैं ना..

जी..
ऐसा आर्टिस्ट नहीं सोचता। वो पूरा हिस्टोरिकल दृष्टिकोण में सोचता है न। 65 साल को आप बोलते हैं कि ये ही सच है। और तो कोई सच ही नहीं है, बस ये ही है। ऐसा ही होगा। कम्युनल ही होंगे। लोग मरेंगे। करप्शन होगा। तो अभी मैं क्या जवाब दूंगा? इसकी कीमत कोई न कोई तो चुका रहा है न। जब आपको पांच करोड़ की रिश्वत मिलती है, ओवरऑल इकोनॉमी में किसी से तो पांच करोड़ छिन रहे हैं न.. जो आपको ऐसे ही मिल गए। तो कोई तो तबका होगा जो इसकी प्राइस पे कर रहा है। इसकी कीमत अदा कर रहा है। आप समझ रहे हैं न। एक आर्टिस्ट के तौर पर हम तो ऐसे ही सोचेंगे न।

लेकिन आपके इतना पॉजिटिव होने की क्या वजह है .. कि अंततः चीजें हो सकता है ठीक हो जाएं।
अब मैं आपको उल्टा बात बोलूं? मैं टेलीविजन पर इतनी बार सुन रहा हूं कि अगर हम चेंज नहीं लाएंगे तो the country is driving for a revolution आपने सुना है ये। एम. जे. अकबर ने बोला है।

जी.. जो बीजेपी में आ गए हैं अब।
अब बीजेपी है या जो भी है, थोड़ा अकल वाला आदमी है। उसका लैंड एक्विजिशन (भूमि अधिग्रहण) के बारे में ये कहना था कि भई चलो हम आगे बढ़ते हैं, यार इंडस्ट्री को डालते हैं लेकिन वो जब बोलते हैं तो उसका मतलब क्या होता है। जब आदमी के पास रोटी नहीं रहेगी, कुछ नहीं रहेगा तो वो करेगा क्या। वो न्यूज़पेपर में नहीं आता है इतना। वो क्यूं बोल रहे हैं कि रेवोल्यूशन आएगा? किस आधार पर बोल रहे हैं?

जी..
नहीं नहीं वो क्या न्यूज़पेपर पढ़ के बोल रहे हैं?

वैसे वो न्यूज़ बिजनेस में ही हैं तो उस हिसाब से बोल रहे हैं
वो वो बोल रहे हैं जो न्यूज़ में नहीं आता है पर हकीकत है।

मैं यही तो बोल रहा हूं कि जब न्यूज में चीजें छप नहीं रहीं..
नहीं नहीं, आप हमसे ये हक मत छीनो कि हम क्या बोल सकते हैं या मॉरल स्टैंड लेना है या वैल्यू की बात ही करनी है।

नहीं नहीं मैं...
नहीं नहीं। आप मुझे टटोल रहे हैं तो मैं कहता हूं कि आज ऑनेस्ट रहना एक बहुत बड़ी लग्जरी है।अखबारों के मालिक कोल माइंस डालते हैं तो कॉरपोरेटाइजेशन से जुड़े हुए हैं न, उन चीजों से? क्या आप अपनी नौकरी छोड़ दोगे? अगर आप अवेयर हैं तो वही है। फ़िल्म आपको जागरूक करना चाहती है। कि भई हम ऐसे हैं तो क्या किया जाए? कैसे करें इसको?

मैं पूछता हूं ताकि या तो आशा मिल जाए या निराशा मिल जाए। क्योंकि सबसे जरूरी खबरें आज दबी हैं और जो नॉन-इश्यू है वो...
हां, अभी आप ही बोल रहे हैं...

मैं खुद बोल रहा हूं
जब हम न्यूज़पेपर पढ़ते हैं तो ये पढ़ते हैं कि लाइन्स के बीच में क्या है। तो लाइन्स के बीच में हमें तो हकीकत मिलने वाली नहीं है।

देखिए अन्य अखबारों की तो बात नहीं कर रहा लेकिन जैसे द हिंदु है। द इंडियन एक्सप्रेस है। द हिंदु में सबसे भरोसेमंद चेहरे थे वो चले गए। तीन-चार जो बेहद विश्वसनीय थे।
पी. साईंनाथ..

पी. साईंनाथ ने छोड़ दिया, प्रवीण स्वामी ने छोड़ दिया, उन लोगों ने छोड़ दिया

करेक्ट

वो कहते हैं कि अब प्रेस रिलीज बेस्ड हो गया है सारा। और प्रेस रिलीज ही लगानी है तो हमारी क्या जरूरत है। 8 रुपया 9 रुपया देकर भी द हिंदु मंगाने को तैयार हैं, दो रुपये का अखबार छोड़ के। इंडियन एक्सप्रेस में भी चीजें बदल चुकी हैं।
सही बात है आपकी लेकिन पी. साईंनाथ तो नहीं बदल गया है न।

वैकल्पिक मंच पर आ गए हैं
यार वो क्या है न, एक लग्जरी है मैं मानता हूं। लेकिन हम 70 साल को पूरी दुनिया के ये नहीं कह सकते कि ये ही सच्चाई है। आज की सच्चाई भी यही है और कल की सच्चाई भी यही रहेगी, ये सोचना गलत है।

उस संदर्भ में आप कह रहे हैं कि जैसे पूरी दुनिया हजारों साल से है तो हजारों बार उतार-चढ़ाव का चक्र रहा है.. ये प्रक्रियाएं रही हैं..
जब आफत आती है तो आप सोचते हैं लेकिन.. । मैं ये नहीं बोलता हूं कि नया सूरज उगेगा.. कम्युनिस्ट बातें नहीं कह रहा हूं लेकिन हम एक डार्क पीरियड को बोलते हैं कि यही सच्चाई है तो गड़बड़ हो जाते हैं। तो हम तो यही मानते हैं और कोशिश कर रहे हैं। एक नई चीज सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। और क्या कर सकता है आदमी। हमारे पास एक ही हथियार है ऑडियंस तक पहुंचने का वो है कॉमेडी।

पारंपरिक राजनीतिक दलों को लेकर व्यंग्य और उनकी हंसी-किरकिरी हम हमेशा देखते आए हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी की बात करें तो आप कैसे लेते हैं दो साल में इनकी मेकिंग...
आम आदमी पार्टी ने जो संसद व विधायी सीटें जीतीं वो आम आदमी पार्टी की जीत नहीं है, वो किसकी जीत है आप मुझे बताइए ना? वो लोगों की जीत है। पीपल। लोग। लोगों की जीत है। वो (पार्टी) फेल हुए, उन्होंने (लोगों) बोला “हम एक और चांस देंगे। आप ऑनेस्ट रहिए, पांच साल में कुछ मत करिए हम समझेंगे, लगेगा कोई और नहीं है तो हम आपको ही रखेंगे”। देखिए जनता ने कितना साफ-साफ बताया है यार। और न ही उसमें किसी ने मुसलमान के तौर पर वोट किया, न ही उसमें ईसाई के तौर पर किया, न ही उसमें सिख के तौर पर किसी ने वोट किया। Aam Aadmi is not Kejriwal alone, या प्रशांत भूषण या जो भी है। Aam Aadmi is the people yaar.. क्या.. क्या तमाचा मारा है यार लोगों ने? तो जीत लोगों की होनी चाहिए न? आपको एक उत्साह होना चाहिए, एक बहुत बड़ी आशा होनी चाहिए। हम समझते हैं बदलाव नहीं होगा, अब ये बीजेपी हिल गई न? नहीं, बीजेपी हिल गई या नहीं? और सब लोगों को सच्चाई मालूम पड़ गई क्योंकि लोग सच के साथ हैं। बहुत मुश्किल हो गया है यार लोगों के लिए। पानी टैंकर से आता है। माफिया है। ये लोग कैसे जिएंगे यार। हमारा जो वॉचमैन है वो पूछता है आज मोदी साहब ने क्या कहा? मोदी साहब उसके लिए खुदा बन गए हैं। मोदी हो या जो भी हो आप समझ रहे हैं न। कब वो आदमी ऐसा सवाल करता है जब बिचारा गिरा हुआ है।

Ravi Baswani as Sudhir & Naseer as Vinod in the film.
32 साल पहले सुधीर-विनोद हारे थे, तरनेजा-आहूजा जीते थे? अब 2015 में आपके जेहन में समाज कैसा है? वो ही लोग जीत रहे हैं, वो ही लोग हार रहे हैं?
तब क्या है, मैं नहीं कहता कि करप्शन अपवाद था। लेकिन अभी तो सब माहौल ही बदल गया है। ये फ़िल्म (जाने भी दो यारो) से बहुत-बहुत ज्यादा ब्लैक है। जो हम कहना चाहते थे तब वो बहुत ब्लैक था लेकिन अब तो आप बात करेंगे तो लोग आपका टेबल छोड़कर चले जाएंगे। वैल्यू की बात करते हैं लोग टेबल छोड़कर चले जाते हैं। कहते हैं, इस आदमी से क्या बात करें। आप समझ रहे हैं? आप समझ रहे हैं?

जी..
क्योंकि सब समझ रहे हैं, ऐसा ये 70 साल में हो गया तो अब वही चलेगा। मेरे ख़याल से ऐसा नहीं है। ये भी कि टेक्नोलॉजी अपना बदलाव ला रही है। अभी वो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस है जिससे बहुत बड़ा धक्का आने वाला है। ऑटोमेशन है। रोबोटिक्स है। उससे बिचारा वर्कर और भी रिडंडेंट (बेकार) हो जाएगा। तो जब तक उसके लिए चारा (रास्ता) और नहीं बनेगा तो ये समस्या है बहुत। भई, टेक्नोलॉजी अपने लेवल पर चलेगी। टेक्नोलॉजी को आप रोक नहीं सकते। देखो, इकोनॉमिक्स टेक्नोलॉजी से जुड़ा हुआ है। टेक्नोलॉजी और इकोनॉमिक्स फ़िल्म से जुड़ा हुआ है। उससे वो जो फ़िल्म बनाता है वो जुड़ा हुआ है। आज की तारीख में हम सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। वो ये फ़िल्म दिखा रही है। मुझे ये लगता है।

‘जाने भी दो यारो’ में हम बात करते हैं बिल्डर-राजनेता-पुलिस की आपराधिक गुटबंदी की। शहरी बसावट की बात करते हैं जो तेजी से बदल रही है। फ्लाइओवर बन रहा है। आर्थिक असमानता है। ईमानदारी कितनी मुश्किल है, बेईमानी कितनी आसान है। सिहर जाते हैं वो सब देख कर। हम जब इसे बता रहे हैं तो क्या ये इतना अनिवार्य है हम हंसा कर ही बताएं? क्योंकि जिस पर बीतती है उससे मिलकर जानें कि कितना क्रूर है मामला उसके साथ। मैं इसे गलत नहीं कह रहा लेकिन क्या ये दर्शक बहुत घमंडी है जो कहता है I don’t care? मैंने पैसा दिया है मुझे हंसा के ही ये चीज बताओ? जबकि उसी के काम की चीज बताई जा रही है।
 आपका सवाल बहुत वैलिड है लेकिन क्या होता है न कि अभी.. ये आपका सवाल बहुत ही वैलिड है.. पर आप ये सवाल पूछिए कि आपका न्यूज़पेपर ये काम क्यों नहीं करता? क्यों ये सवाल नहीं उठाता? आपका टेलीविजन ये क्यों नहीं करता? आपकी गवर्नमेंट ये क्यों नहीं करती? आपके मंत्री ये क्यों नहीं करते? तो क्या होता है न हम भी इन सबसे जुड़े हुए हैं। अगर ये पाबंदियां न होतीं तो शायद हम अपना एक्सप्रेशन बदल देते। आप ये कहना चाहते हैं कि क्यों डायरेक्ट नहीं हो सकते? क्यों ये एजिटेटेड प्रोपोगैंडा (गुस्सैल रवैया) आप नहीं कर सकते। एजिटेटेड हैं ना कि चेंज आना चाहिए? उसके लिए क्या करना चाहिए? सही है आपका सवाल। डॉक्युमेंट्री भी ऐसी बनती हैं। लेकिन जब आप फ़िल्म बनाते हैं तो अलग होता है। आप उसमें इतना पैसा खर्च करते हैं तो आपको वायेबल (व्यावहारिक) होना है। लोगों तक बात पहुंचानी है। .. डॉक्युमेंट्री आप फ्री में दिखाएंगे टेलीविजन पे। अगर फ़िल्म फ्री में दिखाएंगे तो मैं बना दूंगा ऐसी फ़िल्म।

‘जाने भी दो यारो’ के समय में कॉमेडी जो थी और लोगों ने खुद को जैसे एंटरटेन किया उससे, आज के दर्शक उस कॉमिक सेंस को उतनी ही ताजगी से लेंगे या उनमें कोई बदलाव 20-30 साल में आप पाते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है। ये सवाल, सवाल ही नहीं है। ऑडियंस हर चीज के लिए है भाई। जहां आप सच्चाई की बात करेंगे वहां ऑडियंस क्यों नहीं होगी? आप ये सोचते हैं कि जो डेविड धवन का दर्शक है वो ही आपकी फ़िल्म देखने आएगा? क्यों आप ऐसा मान लेते हैं? या ऐसा क्यों सोचते हैं कि जो डेविड धवन की फ़िल्म देख रहे हैं वो आपकी फ़िल्म देखकर एंजॉय नहीं कर सकते? सबसे प्योर चीज है ऑडियंस। अगर आपकी फ़िल्म फ्लॉप होती है किसी कारणवश। मैं ये नहीं कर रहा हूं कि हमेशा फ़िल्म खराब है इसलिए फ्लॉप होती है। लेकिन ऑडियंस बहुत प्योर होती है। वो बिचारी पैइसा देकर आती है तो वो करेगी वो। बहुत सी फ़िल्में हैं जो चलती हैं, बहुत सी फ़िल्में हैं तो तारीफ पाती हैं। अलग-अलग कारणों से।

अगर मैं गोविंदा की फ़िल्में देखकर हंसा, आपकी देखकर हंसा लेकिन जो घर के युवा बच्चे हैं उनका कॉमेडी को लेकर नया टेस्ट ऐसा है कि शायद हमें इस कंटेंट के लिए हेय दृष्टि से देखे। कि इतनी प्रिटेंशस चीजें आप क्यों देख रहे हो?
नहीं नहीं। वो बच्चे एंजॉय करेंगे। इन फैक्ट आज का स्टैंडर्ड मापने का पैमाना ‘सब टीवी’ हो गया है। SAB TV is becoming the definition of humor.. तो वो बहुत मुश्किल है न। कॉमेडी कॉमेडी होती है। वहां ‘सब टीवी’ तो आपको ठूंस रहा है। आपके मुंह के अंदर वो ठूंस रहा है। कि लो लो लो, ये कॉमेडी है। एक वीक में वो आपको छह बार वो प्रोग्राम दिखाते हैं। और ऐसे आठ प्रोग्राम रोज दिखाते हैं। बोलते हैं ये हम कॉमेडी कर रहे हैं आप हंसो। तो अभी क्या, ऑडियंस वही लेती है जो उनको मिलता है।

जैसे केले के छिलके पर फिसलकर कोई गिरता था तो उस पर हम हंसते थे? आज फ़िल्म में ऐसे दृश्य काम करेंगे? दूसरों के दुख का हमारा मनोरंजन हो जाना, क्या अब भी है?
नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। एक चीज रिपीट होगी तो वो काम नहीं करेगी। उसको अलग लेवल पे यूज़ करेंगे। अभी जब केले के छिलके का जिक्र ही कर दिया है तो मेरी फ़िल्म में (पी से पीएम तक) केले के छिलके हैं (खिलखिलाते हैं)।

मुझे नहीं पता था..
हां, मैंने यूज़ किए हैं छिलके। अभी वो अच्छे लगें, नहीं लगे वो मुझे नहीं मालूम। अलग तरीके से किया है। किसी को मजा आया तो ठीक है नहीं तो हम गलत है। ... अब जैसे परसाई (हरिशंकर) है। क्या परसाई को आज पढ़कर नहीं एंजॉय कर सकते। वो आज भी इतने वैलिड हैं यार। मुझे दूरदर्शन ने बोला था आप परसाई पर एक सीरियल बनाओ। तेरह कहानियां। उसमें एक कहानी में है कि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट घोषणा करता है जो भी राशन ब्लैक में रखेगा, जमा करेगा, उस पर हम छापा मारेंगे। तो परसाई जी का कैरेक्टर जाता है डीएम के पास और बोलता है सर ये आदमी है, इसने इतना माल अपने गोदाम में रखा है आप रेड कीजिए। बोले, “वैरी गुड, गुड इनफॉर्मेशन”। उसे बाद में मालूम चलता है कि गोदाम वाले को उन्होंने नोटिस भेजी है, “कि भई हमें खबर मिली है कि आपने इतना माल रखा है क्या ये सही है”? परसाई का किरदार बोला, “ये आप क्या कर रहे हो। माल हटा देगा वो”। तो डीएम बोलता है, “नहीं नहीं हमको तो प्रोसीजर से जाना पड़ेगा न”। तो अभी मुझे बताओ ये कैसे हो रहा है? ये दोबारा हो रहा है आपकी जिंदगी में। आप पत्रकार हैं मुझे बताइए कौन कर रहा है और कहां हो रहा है। मुझे बताइए..। फेल हो जाएंगे आप..

अ..
रोज आ रहा है यार। तो आप क्या पेपर पढ़ते हैं!

नहीं पढ़ता जी..
ये है ब्लैक मनी का। हम रेड कर देंगे, हम ये करेंगे, हम वो करेंगे। ये परसाई सामने आ रहे हैं आपके। आ रहे हैं कि नहीं? वो जेटली (अरुण) परसाई बन रहे है। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट। हंसी नहीं आती आपको? वो रोज बोल रहे हैं “हम ये कर देंगे.. उसके पास ब्लैक मनी है हम ऐसा करेंगे”। ये सब तुम ऐसे ही बोल रहे हो। कोई जेल नहीं जाएगा। कोई कुछ नहीं होगा। ये कॉन्ग्रेस को बोलते हैं क्रोनी कैपिटलिस्ट थी तो ये कौन से कम हैं यार। अभी पब्लिक को थोड़ा झांसे में रखना है तो अपने-अपने लेवल पर कर रहे हैं। उनका ये ... कौन सा स्वच्छ भारत हो रहा है डेढ़ साल में @#$*...

कुछ नहीं हुआ..
कुछ नहीं हुआ है एक साल में.. 2019-20 तक कर देगा क्या वो? बोलते हैं न कि सपने देखने में क्या बुराई है। मोदी जी तो यही बोलेंगे। कौन स्वच्छ.. पहले स्वच्छ दिमाग करो यार। ..खैर, फ़िल्म पर आते हैं। हमने दिल से बनाई है और ऑडियंस से कहते हैं कि प्लीज़ दिमाग साथ में लेकर आइए। हमारा मानना है कि जब थियेटर से बाहर जाएंगे तो फ़िल्म आपके साथ जाएगी। हमने कोशिश की है। एक बहुत छोटी फ़िल्म है। हमारे पास न ही स्टार हैं, न ही कुछ है। खाली कॉमेडी है, एक ही हथियार। आप आके देखिए क्या है। अरे प्रॉस्टिट्यूट को इसलिए सलेक्ट किया है कि वो हमारे समाज के सबसे नीचे के तबके की है। एकदम नीचे की है। जबकि पॉलिटिशियन कितने गंदे हैं ये दिखाने के लिए फ़िल्म है। रूपक के स्तर पर इस्तेमाल किया है। और वो प्रॉस्टिट्यूट है उसकी ट्रैजेडी है, क्योंकि हर प्रॉस्टिट्यूट की एक ट्रैजेडी है। उसके जीवन में इतना दुख भरा हुआ है। क्योंकि पॉलिटिकल मेटाफर यूज़ कर रहे हैं तो उससे कॉमेडी करवाई है, उससे स्लैपस्टिक करवाई है। और ट्रीटमेंट टोटल ब्राइट है। जितनी उसकी लाइफ डार्क है, जितना उसका सबजैक्ट डार्क है, जो हम कहना चाहते हैं डार्क है, उसी को दिखाने की कोशिश की है दोस्त।

‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ देखने गया था। दस मिनट हुए थे शुरू हुए। मेरे पास दो युवक बैठे थे। तभी टिकट वाला आया। छह-सात औरतों और बच्चों की सीटें दिखा रहा था। उसने उन लड़कों से कहा, “तुम अपने टिकट दिखाओ”। वो कहते हैं “तुमसे पहले एक आदमी था, उसने बोला था टिकट उसे दिखा दी, उसने हमको बिठा दिया”। तो उसने कहा “दोबारा दिखाओ मैं नया आदमी हूं अभी आया हूं”। तो टिकट वो धीरे-धीरे निकाल रहे थे। उसने पूछा “तुम कौन सी फ़िल्म देखने आए हो, तो कहते हैं हमको तो गब्बर देखनी है”। उसने कहा, “गब्बर देखनी है तो तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में क्यों बैठा है दस मिनट हो गए तेरा अक्षय कुमार दिखा क्या?”
(खिलखिलाते हैं)...

चौंक गया अपने साथी दर्शकों को देखकर ...
नहीं नहीं, इसमें सबको मत गिनो। एक अलग वाकया सबको डिफाइन नहीं करता। लेकिन अच्छा है ये वाकया अच्छा है। (हंसते हैं)

लेकिन फ़िल्मों से इतर भी हालात बहुत निराशाजनक हैं
नहीं, नहीं ठीक होगा। यहां मुंबई में तो हालात बहुत ही खराब हैं। मैं एक किस्सा बताता हूं। जब निर्भया वाला मामला हुआ तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक खबर छापी कि वडाला में – वडाला हमारा बंबई में एक सबर्ब है, जैसे बांद्रा है वैसे वडाला है – वहां एक लड़का और लड़की बस में ट्रैवल कर रहे थे। लड़के और लड़की में कुछ अनबन हो गई और लड़की नीचे उतर गई। पता नहीं वो बॉयफ्रेंड- गर्लफ्रेंड थे या दोस्त थे कॉलेज के .. वो बात मायने नहीं रखती .. तो लड़का उसके पीछे जा रहा था उसको मनाने के लिए। आगे पांच लोग खड़े थे। पांच लोग खड़े थे और वो देख रहे थे। वो लड़की को देख रहे हैं, फिर बोल रहे हैं.. “मान जा मान जा, हम भी तो खड़े हैं लाइन में, कमी है तो सिर्फ एक सरिए की”। ………..आप सुन रहे हैं।

…सुन रहा हूं बिलकुल सुन रहा हूं
“कमी है तो…” …ये लोग में इतनी सिकनेस (बीमारी) कैसे पैदा हो गई? आपने देखी निर्भया पर (लेस्ली उडविन की डॉक्युमेंट्री ‘इंडियाज़ डॉटर’).. आपको लिखना चाहिए उस पर। वो फ़िल्म सब स्कूल में दिखानी चाहिए ये मेरा मानना है। बैन कर दी गवर्नमेंट ने। लेकिन उसमें सबसे समझ वाली बात उस साइकेट्रिस्ट ने कही है। वो बोल रहा है कि यार ये लोग सिक नहीं हैं मेंटली, ये लोग एंटी-सोशल लोग हैं। ये जहां रहते हैं वहां औरतों को ऐसे ही ट्रीट किया जाता है। नॉट एग्जैक्टली ये.. पर वो जो देखते हैं वैसे ही ट्रीट करते हैं वो लोग एंटी सोशल हैं। वो जो साइकेट्रिस्ट ने बात कही वो किसी न नहीं छापी। ये क्राइम भी सामाजिक वजहों से आ जाता है। एक हर्ष मंदर का आर्टिकल आया था जब निर्भया का केस चल रहा था कि Who are these boys who did this? और ये डॉक्युमेंट्री कुछ तीन दृष्टिकोण से बताती है। कि बिचारी वो लड़की.. वो तो बहुत बड़ी ट्रैजेडी ही है यार। लेकिन क्यों हुआ ये? आप फांसी दे देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे.. उससे क्या। यार क्यों करते हैं लोग वो आप नहीं सोचते। “करेंगे तो हम मारेंगे..” ये सोचते हैं। क्राइम क्यों हो रहा है ये तो कहेंगे तो फंस जाएंगे क्योंकि इसमें फिर समाज को सुधारना पड़ेगा खुद को सुधारना पड़ेगा गवर्नमेंट को बहुत काम करना पड़ेगा। तो गवर्नमेंट छोटा काम कर देती है और चलो।

यहीं पर फ़िल्मों के लिए मन में बहुत सम्मान होता है। जैसे ‘आशीर्वाद’ (1968) फ़िल्म आपने देखी होगी अशोक कुमार की...
हां देखी है.. एक और फ़िल्म बनाई थी ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘सत्यकाम’। वो फ़िल्म देखकर मेरे दोस्त (रंजित कपूर, ‘जाने भी दो यारो’ के सह-लेखक) की जिंदगी बदल गई। वो क्राइम करने जा रहा था, उसको वो फ़िल्म देखनी ही नहीं थी उसको कोई एंटरटेनमेंट वाली देखनी थी। पर वो फ़िल्म देखी उसने तो बोला “ये मैं क्या करने जा रहा हूं?” पिक्चर देखके उसने रास्ता बदल लिया। और जब ऋषिकेश मुखर्जी को सालों बाद पता चला कि एक आदमी ने अपनी जिंदगी का रास्ता बदल लिया तो वो इतने खुश हो गए कि मैं क्या बताऊं आपको। और मेरा दोस्त इसके बाद ही फ़िल्म इंडस्ट्री में आया। तो आप सोचिए ...

आप देखिए ‘आशीर्वाद’ कितनी अकल देती है। उसमें प्रांगण में खुले घूमते या अन्यथा कैदियों के बारे में जेलर (अभि भट्टाचार्य) और डॉक्टर (संजीव कुमार) जैसे पात्र विचार रखते हैं कि वे कोई शेर भालू हैं जो पिंजरे में बंद रखे जाएं। जेल के बारे में ये ही तो भ्रांति है। जैसे शरीर के रोगों के लिए अस्पताल है, वैसे ही मानसिक बीमारी के लिए जेल है। आदमी यहां आता है ताकि समाज और परिवार से दूर अपने साथ एकांत में वक्त बिता सके और फिर समाज में लौट सके। कितनी सार्थक-सुलझी सोच देकर जाने वाले थे हमारे फ़िल्मकार...
ऐसी फ़िल्में बनना बहुत जरूरी है। जैसे देखो, एक शरीर को ख़ुराक़ चाहिए, रोटी चाहिए, दाल चाहिए। वैसे भी दिमाग को भी कुछ तो चाहिए न ख़ुराक़। तो ऐसी फ़िल्में बनना जरूरी है। ऐसे न्यूजपेपर की जरूरत है, ऐसे लोगों की जरूरत है। बहुत से लोग बिचारे काम कर रहे हैं यार। अब हम भी एक हैं यार। तुम बोलोगे बदलाव नहीं आया तो नहीं आया यार। कोशिश तो करते हैं।

 आप किसपे लिखते हैं? की-बोर्ड पर या पेन से?
अरे साब मैं बहुत फास्ट टाइपिस्ट हूं। मेरे पिताजी ने बोला था, “टाइपिंग सीखो भूखे नहीं मरोगे”। तब उस जमाने में सीखा। अब भी मैं हिंदी में भी टाइप करता हूं दोनों हाथों की पांचों अंगुलियों से। अच्छा टाइपिस्ट हूं। अच्छी स्पीड भी है। कंप्यूटर पर लिखता हूं।

आप कौन सी फ़िल्मों को देखकर सबसे ज्यादा हंसे हैं?
बहुत सी फ़िल्में हैं। एक है.. फ्रैंकली में पहली या दूसरी बार बता रहा हूं जहां से मुझे डेड बॉडी का आइडिया “जाने भी दो यारो” में आया था वो एक फ़िल्म है “डेथ ऑफ अ ब्यूरोक्रैट” (1966)। क्यूबन फ़िल्म है मेरे ख़याल से। उसमें क्या हो जाता है कि वो आदमी मर जाता है। तो उसका जो पेंशन कार्ड है वो दफनाते वक्त साथ चला जाता है। अब कार्ड चाहिए तो बोलते हैं कि दफनाया है उससे बाहर निकालना पड़ेगा। उसे बाहर निकालने का जो पूरा ब्यूरोक्रैटिक प्रोसेस है तो पूरी ब्यूरोक्रेसी है यार उसमें। इसे देखकर बहुत हंसा। बहुत सी और भी फ़िल्में हैं जो आपको हंसाती हैं साथ ही सोचने पे मजबूर करती हैं। एक और पुरानी फ़िल्म है स्टैनली कुबरिक की “डॉ. स्ट्रेंजलव ऑरः हाउ आई लर्न्ड टु स्टॉप वरिंग एंड लव द बॉम्ब” (1964)।

जो बच्चे एफटीआईआई (भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे) में एडमिशन नहीं ले सकते वो सेल्फ-स्कूलिंग कैसे कर सकते हैं?
आजकल तो फ़िल्म इंस्टिट्यूट इंटरनेट पर भी हैं। बहुत से लोग हैं जो फ़िल्मों से ही फ़िल्ममेकिंग सीखे हैं। जब आप फ़िल्म को देखते हैं फ़िल्म एप्रीसिएशन सीखना पड़ेगा। जैसे एक डॉक्टर डेड बॉडी लेकर परीक्षण करता है कि उसकी धमनियां कहां हैं, ये कहां है, वो कहां है? काट के वो देखते हैं। वैसे ही फ़िल्म का पूरा विश्लेषण करना पड़ेगा। कि ये सीन क्या करता है? ये डायलॉग क्यों है? ये पूरा डीटेल में खुद से पूछना पड़ेगा। फिर उसको मालूम पड़ेगा कि ये क्यों कैसे बनी है फ़िल्म? नहीं तो बस आप ऊपर से देख लेते हैं कि ये हो जाता है लेकिन फ़िल्म क्षेत्र में आने के लिए आपको पूरा फ़िल्म विश्लेषण करना पड़ेगा। ये सारी चीजें आज इंटरनेट पे हैं। बहुत सारे फ़िल्म इंस्टिट्यूट हैं इंटरनेट पर वो बताएंगे कि आपको क्या करना है। फिर आप करेंगे वो देखेंगे कि कैसा है।

लेकिन क्या वो महंगा नहीं होगा?
अरे वो फ्री है। मैं सब मोफत का बात कर रहा हूं। बहुत सारी हिंदी स्क्रिप्ट्स भी ऑनलाइन हैं अभी।

“जाने भी..” को छोड़ दें तो कौन सी पॉलिटिकल सटायर आपको पसंद आई है?
एक थी “तेरे बिन लादेन”। वो अच्छी है। उसमें मुझे सेकेंड हाफ में अच्छा लगा। कि वो पूरा सीआईए को इनवॉल्व करता है। एक झूठा लादेन पैदा करता है। वो फंस जाते हैं और सीआईए आ जाती है। बस अंत गड़बड़ था कि आप क्या कटाक्ष कर रहे हैं, व्यंग्य कर रहे हैं अमेरिका पर, लादेन के जरिए। और लादेन ही अमेरिका पहुंच जाता है। तो लगता है कि यार ये कहां हो गया।

“फंस गए रे ओबामा” ?
उसमें वो था न किडनैप, फिर और किडनैप। अच्छी है कॉमेडी के लेवल पर। मैंने देखी नहीं है। उसमें जो आर्टिस्ट है वो जबरदस्त है। संजय मिश्रा। जिन्होंने “आंखों देखी” की। जबरदस्त आर्टिस्ट है।

आर्टिस्ट आमतौर पर सनकी होते हैं। आपको दोस्त और परिवार वाले किस श्रेणी में रखते हैं?
ये तो उन्हीं से पूछना पड़ेगा। कभी-कभी परिचित या एक्टर या एक्ट्रेस बोल देते हैं कि सर तो वैसे हैं, पर मुझे लगता है मैं सही हूं। वैसे ये जवाब बहुत मुश्किल है।

जो युवा फ़िल्मों में आ रहे हैं उनके सामने क्या दो ही रास्ते हैं?
एक कमर्शियल फ़िल्में बनाओ या सार्थक फ़िल्में बनाकर भूखे रहो? कुछ और विकल्प है? देखो रास्ता तो अपना ढूंढ़ना पड़ेगा। सफलता की कोई गारंटी नहीं है। फ़िल्म लाइन में यही है। क्योंकि एक डायरेक्टर बनता है तो सौ खो जाते हैं। निर्णय तो आपको लेना पड़ेगा। कमजोर दिल वाले हैं वो खो जाते हैं। जो बनते हैं बन जाते हैं, जो नहीं बन सकते नहीं बनते। ये ट्रैजेडी ही है। क्या करें?

Kundan Shah is most known for his classic comedy Jaane Bhi Do Yaaro (1983). His other notable works are - TV series Wagle Ki Duniya (1988) and Nukkad (1986), Parsai Kehte Hain. He's also made Bollywood films such as Kya Kehna (2000) and Dil Hai Tumhara (2002). His most recent film P Se PM Tak released on 29 May. Like Jaane Bhi.. it is a political satire.
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बहुत विरोध हुआ घर पर, मैं आज्ञाकारी बेटी थी, पता नहीं कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं, मैंने पहली बार बग़ावत कीः नम्रता राव

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 Q & A..Namrata Rao, film editor .

Poster of 'Shuddh Desi Romance', a soon to be released Yash Raj film, edited by Namrata Rao.

मनीष शर्माकी फ़िल्म ‘शुद्ध देसी रोमैंस’ की एडिटिंग में व्यस्त नम्रता राव इससे पहले उनके साथ ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ कर चुकी हैं। दिल्ली की नम्रता ने आई.टी. की पढ़ाई और एन.डी.टी.वी. में नौकरी के बाद कोलकाता के सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान का रुख़ किया। वहां से फ़िल्म संपादन सीखा। 2008 में दिबाकर बैनर्जी की फ़िल्म ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ से उन्होंने एडिटिंग की शुरुआत की। बाद में ‘इश्किया’, ‘लव से-क्-स और धोखा’, ‘शंघाई’ और ‘जब तक है जान’ एडिट कीं। ‘कहानी’ में सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादन के लिए उन्हें इस साल 60वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया। फ़िल्म संपादन में रुचि रखने वाले युवाओं के लिए यह साक्षात्कार उपयोगी हो सकता है। जिन्हें रुचि नहीं भी है और फ़िल्म बनाने की कला को चाव से देखते हैं वे भी पढ़ते हुए नया परिपेक्ष्य पाएंगे। प्रस्तुत है नम्रता राव से विस्तृत बातचीतः

कहां जन्म हुआ? बचपन कैसा था? घर व आसपास का माहौल कैसा था?
त्रिवेंद्रम, कोचीन में हुआ जन्म। मैं कोंकणी हूं। केरल में ही हमारा घर है। मेरे पिता बी.एच.ई.एल. (Bharat Heavy Electricals Limited) में काम करते थे और दिल्ली में पोस्टेड थे, तो मैं दिल्ली में पली-बढ़ी। स्कूलिंग और ग्रेजुएशन वहीं से की। आई.टी. में मैंने ग्रेजुएशन किया था। उसके बाद मुझे उसमें उतना रस नहीं आ रहा था तो सोचने लगी कि आगे क्या करना है। इस तरह मैं इस माध्यम की ओर आई। मैं सत्यजीत रे फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट, कोलकाता गई और वहां से पोस्ट-ग्रेजुएशन इन सिनेमा किया। एडिटिंग में स्पेशलाइजेशन किया।

कैसी बच्ची थीं आप? कैसा व्यवहार था?
शांत, गुमसुम, सामान्य। मैं एक नॉर्मल और स्पोर्टी चाइल्ड थी। बहुत किताबें पढ़ती थी। बहुत खेलती थी। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी।

सबसे शुरुआती फ़िल्में कौन सी देखी थीं जो आपको सम्मोहित छोड़ गईं?
दरअसल, हम लोग बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। मेरी सबसे पुरानी याद्दाश्त है ‘राम तेरी गंगा मैली’ जो मैंने तब देखी जब बहुत छोटी थी। मेरे पेरेंट्स लेकर गए थे रात के शो में, कि “ये सो जाएगी, हम फ़िल्म देखेंगे”। सिनेमा का सबसे पहला आमना-सामना यही था। फिर ‘मिस्टर इंडिया’ देखने गए। वैसे बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। ज्यादातर तो दूरदर्शन पर ही देखी हैं जितनी भी मैंने देखी हैं। मतलब ये सिनेमा में और थियेटर में जाने का ज्यादा कुछ नहीं था। किताबें पढ़ने का था, इसे प्रोत्साहित किया जाता था। मैं बहुत पढ़ती थी, नॉवेल और कॉमिक्स। कहानियों का शौक मुझमें वहीं से आया। फ़िल्मों से कम, किताबों से ज्यादा आया। मतलब, फ़िल्मों तक पहुंचना मेरे लिए इतना आसान नहीं था। हमारे घर में वी.सी.आर. नहीं था। तब टेलीविज़न और इंटरनेट तो होते नहीं थे। थियेटर बहुत मिन्नत करने के बाद घरवाले कभी लेकर जाते थे।

ये एडिटिंग का कहीं उन कॉमिक्स से तो नहीं आया जो आप पढ़तीं थीं? जैसे, उनमें अलग-अलग हिस्से बने होते हैं हर पन्ने पर। सिलसिलेवार डिब्बे कहानी कहते जाते हैं एक-दूसरे में जुड़े हुए। सीन और कहानी की समझ कि कैसे सेट करना है, अनजाने में कहीं वहीं से तो नहीं आया?
बिल्कुल हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि कॉमिक्स भी बहुत एडिटेड होते हैं और बहुत लीनियर नहीं होते हैं, सुपर लीनियर और आपको पता चला है.. । मतलब वो इतना पर्याप्त होते हैं कि आप कहानी समझ सकें, कहानी का असर समझ सकें और इमोशनल इम्पैक्ट जो है वो करेक्ट रहे। फ़िल्मों में भी वही है, कि ये जरूरी नहीं आप हर चीज बोलें, हर चीज लीनियरली कही जाए लेकिन इमोशनल इम्पैक्ट होना जरूरी है और वो शायद बिल्कुल उसी तरह से आता है।

बढ़ने के दिनों में कौन से नॉवेल आपने पढ़े जिनका असर रहा, जो बेहद पसंद रहे?
सारे क्लासिक्स पढ़े मैंने। मतलब, एमिली ब्रॉन्ट (Emily Brontë) और जेन ऑस्टन (Jane Austen) से लेकर चार्ल्स डिकन्स (Charles Dickens) के और बाकी क्लासिक्स ‘द काउंट ऑफ मोंटे क्रिस्टो’ (The Count of Monte Cristo)... मतलब सारे इंग्लिश क्लासिक्स पढ़े। घर में कोंकणी ही ज्यादा चलती थी। हिंदी पढ़ने की ऐसी प्रथा नहीं थी, हां हम बोलते हिंदी थे। ऐसे में इंग्लिश में ही पढ़ते थे। फिर हमारे पड़ोस में किराए की कॉमिक्स मिलती थी। राज कॉमिक्स... 50 पैसे में... सर्कुलेशन में जो चलता है न...।

फेवरेट कौन सी थी इनमें से?
आई थिंक, मुझे फैंटम बहुत पसंद थी। फैंटम (Phantom), मैंड्रेक (Mandrake) मेरे फेवरेट थे। कैरेक्टर्स के हिसाब से बताऊं तो फैंटम मेरा पसंदीदा था। मतलब उसका बहरूपिया होना, एक तरफ वह सामान्य जीवन जीता है और दूसरी तरफ उसके एकदम उलट।

Namrata with Filmfare Trophy.
हाई-स्कूल और कॉलेज कहां से किया? उस दौरान फ़िल्में कितना देखना शुरू किया और तब चाव कितना बढ़ा?

दरअसल हाई स्कूल तो सेम ही स्कूल में था, कुछ बदलाव नहीं आया। दिल्ली में ही था। लेकिन कॉलेज में आकर दुनिया थोड़ी खुल गई। पहली बार मेरा सामना थियेटर से हुआ। मैंने ख़ुद थियेटर करना शुरू किया। ऐसे लोगों से मिली जो काफी फ़िल्में देखते थे तो उनके साथ मैंने भी फ़िल्में देखनी शुरू कीं। एक शंकुतला थियेटर है दिल्ली में। होता था, अब तो शायद बंद हो गया। वहां पर बहुत ही सस्ते में बहुत सारी फ़िल्में हमने देखी। हर फ्राइडे वहां जाते थे क्योंकि शनिवार-रविवार तो छुट्टी होती थी कॉलेज की, तो शुक्रवार को जरूर जाकर देखते थे। तब शायद मैंने इतनी फ़िल्में देखना शुरू किया। तब तक कंप्यूटर भी आ गए थे तो सीडीज भी मिलने लगी थीं। वह भी एक विकल्प हो गया था। मतलब फिर इतना कठिन नहीं था जितना बचपन में होता था। बचपन में तो आप निर्भर होते हैं अपने अभिभावकों पर। उन्होंने मना कर दिया तो फिर तब ऐसा तरीका नहीं है कि जाकर देख सकें। कॉलेज में आकर बहुत फ़िल्में देखीं, इंग्लिश फ़िल्में देखीं। तब रुचि जागने लगी इनमें। पर तब भी ऐसे नहीं पता था कि फ़िल्मों में काम करना है। तब थिएटर में ज्यादा इंट्रेस्ट था, लगता था यही करेंगे। मैं तब आई.टी. पढ़ रही थी। कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज है दिल्ली यूनिवर्सिटी में। चार साल का कोर्स किया। जमा नहीं तो फिर ढूंढने लगी कि क्या करना है, क्या नहीं करना है।

फिर फ़िल्म स्कूल आने का किस्सा क्या रहा? घरवालों ने आपको बोला नहीं कि ये सडन चेंज ऑफ माइंड है इसे छोड़ दो, सिक्योर जॉब है और उसी में आगे बढ़ते रहो?
हां बिल्कुल, बिल्कुल बोला उन्होंने। वे बहुत नाराज थे इसके बारे में। क्योंकि उन्हें लग रहा था कि फ़िल्में कौन पढ़ता है। और वो भी तीन साल का कोर्स है जिसे करते हुए चार साल हो जाते हैं। मैं तब 23 साल की ही थी और पेरेंट्स बहुत नाराज थे कि “उमर तुम्हारी बिल्कुल भी नहीं है ऐसे तीन साल के कोर्स की। इस वक्त तुम नौकरी कर रही हो”। तब मैं एन.डी.टी.वी. में काम कर रही थी। “अच्छी-भली नौकरी छोड़कर तुम क्यों जा रही हो” और ये सब...। तो बहुत ही विरोध हुआ घर पर। पता नहीं तब कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं। क्योंकि मैं बहुत ही आज्ञाकारी बेटी थी। पहली बार मैंने बग़ावत की। वहां पर जाकर मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। मैंने कभी भी इतना फ़िल्मों को सीरियसली नहीं लिया था। मैंने इतनी सारी फ़िल्में देखीं। कैसे-कैसे लोग काम करते है, ये देखा। कितनी बड़ी दुनिया है, ये वहां जाकर पता चला। इंडिया में तो ये सिर्फ मनोरंजन है लेकिन बाकी लोगों के लिए ये ख़ुद को अभिव्यक्त करने का एक तरीका है और ख़ुद को अभिव्यक्त करने के बहुत सारे तरीके हैं।

सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान में किन फ़िल्मों ने आपको एकदम हिलाकर रख दिया?
ऐसे तो याद नहीं लेकिन किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) एक पॉलिश फ़िल्ममेकर थे जिनकी फ़िल्म से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुई थी। अकीरा कुरोसावा (Akira Kurosawa ) हैं, उनकी ‘सानशीरो सुगाता’ (Sanshiro Sugata, 1943)। बहुत फ़िल्में थीं। इंडियन फ़िल्में भी थीं जिनके बारे में पहले मैंने सोचा भी नहीं था। फिर एक बहुत बड़ा प्रभाव था डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों का, जिनका पहले मुझे कोई एक्सपोजर नहीं था और मुझे अहसास हुआ कि वो कितनी ज्यादा... मतलब एक टाइम को कैप्चर करती हैं। आपकी जेनरेशन को कैप्चर करती हैं। समाज के एक विशेष पहलू को कैप्चर करती हैं। ये इतिहास का सच्चा दस्तावेज होती हैं। तो मैं इन्हें यहां देख पा रही थी और बहुत खुश थी।

संस्थान में रोजाना तीन-चार फ़िल्म दिखाई जाती होंगी और यूं आपने सैंकड़ों फ़िल्में देखी होंगी?
हां...।

तब आपने और आपके दोस्तों ने फ़िल्में बनाने का सपना साथ देखा होगा। आज आप लोग बना पा रहे हैं तो एक-दूसरे की सफलता देखकर कैसा लगता है? कौन दोस्त फ़िल्मों में आज सफल हो पाए हैं?
ये तो बहुत अन्यायपूर्ण बात होगी सफलता को ऐसे आंकना। सक्सेस और फेलियर तो बहुत सब्जेक्टिव हैं। तो मैं सफलता को यूं नहीं मापती हूं। अगर वे अपना काम करते हुए खुश हैं तो मेरे लिए वही सक्सेस है। पर जो करना चाह रहे थे और कर रहे हैं, उनमें बहुत हैं। जो डायरेक्टर होता है उसे वक्त लगता है, इसलिए जो डायरेक्टर्स हैं वो धीरे-धीरे कर रहे हैं, जो टेक्नीशियंस हैं उनके लिए थोड़ा सा आसान होता है क्योंकि उनके ऊपर लोगों को इतना पैसा नहीं लगाना पड़ता है जितना डायरेक्टर के ऊपर लगाना होता है। बहुत सारे लोग कर रहे हैं। बहुत सारे साउंड डिजाइनर्स हैं। बहुत सारे सिनेमैटोग्राफर्स हैं, राइटर्स हैं जो मेरे साथ वहां थे और अब यहां हैं। मतलब हम उतना बात अब नहीं कर पाते हैं, मिल नहीं पाते हैं, बहुत बिजी हैं, पर...। बहुत सारे डॉक्युमेंट्री मेकर्स हैं जो वही करना चाहते थे जो कर रहे हैं और बहुत खुश हैं। कमर्शियली सफल नहीं हैं लेकिन बहुत खुश हैं।

आप भी साउंड डिजाइनिंग करना चाह रही थीं?
हां, साउंड डिजाइनिंग में करना चाहती थी पर वो हो नहीं पाया लेकिन एडिटिंग में साउंड डिजाइनिंग बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

थियेटर आपने पहले किया, अभी एडिटिंग कर रही हैं, बीच में साउंड की रुचि कहां से आई?
मुझे लगता है ये सब चीजें बहुत अलग-अलग या स्वतंत्र नहीं हैं। एडिटिंग कहानी कहना होता है और साउंड डिजाइनिंग उस कहानी को या में जोड़ना होता है। मतलब बिना साउंड के ज्ञान के आप एडिट नहीं कर सकते और बिना एडिटिंग के ज्ञान के आप साउंड डिजाइनिंग नहीं कर सकते। तो ऐसा नहीं है कि ये सब बहुत अलग हैं। ये सब एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

क्या एडिटर बनने के बाद आप लाइफ की बाकी चीजों या बातचीतों को भी एक सेंस में एडिट करने लगती हैं? मतलब, क्या आपकी एडिटिंग क्षमताएं फ़िल्मों के बाहर की दुनिया को भी वैसे ही देखती या समझती है? आपकी पर्सनैलिटी में वो कहीं न कहीं आ गया है?
हां, बिल्कुल होता है। पहले तो बहुत ही ज्यादा होता था, अभी काफी कंट्रोल में है। अब मैं सोच-समझकर ही करती हूं। पहले तो बहुत ज्यादा होता था, मतलब बहुत ही ज्यादा होता था। अब शायद मैं टेक्स्ट मैसेज मैं बहुत बार एडिट करके भेजती हूं। बातें एडिट करना तो मैंने बंद कर दिया है लेकिन पहले बहुत होता था। कभी क्या होता है कि आप फ़िल्म देखने चले जाओ तो आपको सिर्फ शॉट्स नजर आते हैं। वैसे कोशिश करती हूं कि मेरी वो पर्सनैलिटी बिल्कुल अलग रहे। अब फ़िल्मों को आम दर्शकों की तरह देखने की कोशिश करती हूं। लोगों की बातें सुनूं तो मैं ऑब्जर्व करने की कोशिश करती हूं क्योंकि कभी पर भी कहीं भी यूज हो सकती है ये चीज।

जर्नलिज़्म में अगर कोई एडिटर है तो उसे सिनिकल या दोषदर्शी होना जरूरी है रिपोर्टर के प्रति भी, उसकी खबर के प्रति भी और जो कंटेंट सामने पड़ा है उसके प्रति भी। फ़िल्म एडिटर के लिए भी सिनिकल होना जरूरी है या कोई दूसरा ऐसा इमोशन उसमें होना चाहिए ताकि फ़िल्म आखिरकार बहुत बेहतर होकर निकले?
एक अच्छा ऑब्जर्वर होना तो बहुत जरूरी है। कौन डायरेक्टर किस तरह से बिहेव करेगा... क्योंकि कई बार ऐसा होता है फ़िल्मों में, सीन्स में, कि जो एक्टर्स करते हैं उनको कई बार आइडिया भी नहीं होता है सीन्स में कि उन्होंने क्या-क्या एक्सप्रेशन दिए हैं, एग्जैक्टली किस बात में क्या किया था। तो आप उस भाव को एडिट करके लाते हो। आप उस वक्त उसे सही करते हैं। मान लीजिए आप किसी की डेट एडिट कर रहे हैं। दो लोग पहली बार मिल रहे हैं कहीं पर। तो किस तरह का अजनबीपन रहेगा? किस तरह बात करेंगे? कितना बात करेंगे? कैसे करेंगे? जाहिर है कैरेक्टर की अपनी एक समझ होती है लेकिन उसमें अनुकूल हाव-भाव आप शामिल करने की कोशिश करते हैं। तो मेरे हिसाब से एक एडिटर के तौर पर आपकी सबसे बड़ी जरूरत है कि आप जिंदगी के बहुत बेहतरीन ऑब्जर्वर हों। आपको लाइफ को लाइक करना आता हो।

मान लीजिए आपके सामने बहुत धूसर या कच्चेपन वाली फ़िल्में आती हैं। जैसे ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ है या ‘शंघाई’ है। उनमें जो लोग हैं वो एक अलग ही भारत से नाता रखते हैं और उनको आपको एडिट करना होता है, तो क्या आपको लगता है आप पर्याप्त घूमी हुई हैं या आपने वैसे लोग पर्याप्त तौर पर देखे हुए हैं? या अगर प्रोजेक्ट ऐसा अलग आ जाए तो कैसे सामना करती हैं? आप जाकर देखती हैं या कैसे संदर्भ लेती हैं?
मैं इसी देश में पली-बढ़ी हूं। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी हूं। मुझे पर्याप्त आइडिया है। मैंने बहुत ट्रैवल किया है। आज भी करती हूं। मुझे लगता है कि मुझे अपने लोगों का एक निश्चित आइडिया है। और अगर कोई बहुत ही विशेष या तय विषय है जो मैंने कभी देखा नहीं है, जैसे मैंने कभी मर्डर होते हुए तो देखा नहीं और ना मेरी इच्छा है देखने की। अब अगर मुझे मर्डर का सीन एडिट करना है और मर्डरर का माइंडस्पेस दिखाना है तो उसके लिए मुझे एक निश्चित मात्रा में कल्पना की जरूरत होगी। आपके डायरेक्टर का भी यही रोल होता है कि आपको ठीक-ठीक बताए और आप सोचें। जैसे, हर तरह के दंगे अलग होते हैं। मैं जब दिल्ली में थी तो सिख दंगे देखे थे, उसके बाद मंडल कमीशन के दौरान देखे थे। लेकिन अब जो ‘शंघाई’ के दंगे थे वो बहुत ही अलग थे। मतलब वो बिल्कुल ही पॉलिटिकल दंगे थे। मैंने ऐसे कभी नहीं देखे थे। तो आप डील करते हैं। डायरेक्टर भी बताता है, ब्रीफ करता है। और डायरेक्टर ने भी दंगे देखें हों ये जरूरी नहीं। तो ऐसी चीजों को डॉक्युमेंट करने के लिए उनको अनुभव करना जरूरी नहीं है, उनके बारे में आपकी दूरदर्शिता या विज़न होना जरूरी है कि क्या सोचकर करें जो भी करें।

किस फ़िल्म के लिए अब तक सबसे ज्यादा रॉ मटीरियल आपको मिला है और कितनी दिक्कत आई? जैसे 20 घंटे का माल हो और उसे काटकर दो घंटे का करना हो। ऐसी फ़िल्में कौन सी रही हैं और ऐसा होता है तब क्या करती हैं?
ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है। काफी सारी फ़िल्मों में हुआ है। ज्यादा घंटे की शॉट फ़िल्म है और फ़िल्म दो घंटे की ही बनानी होती है। ये तो हर बार होता है। मेरा एक प्रोसेस है। मुझे जो चीजें अपील करती हैं उन्हें मैं रख लेती हूं और बाद में यूज़ करती हूं। जैसे, ‘बैंड बाजा बारात’ में मुझे पता था कि ये दो मुख्य किरदार हैं और इन्हें इस तरह प्रेजेंट करना है कि लोग इन दोनों से कनेक्ट करें और दिल्ली में शादी और वेडिंग प्लैनिंग का माहौल बने। मतलब सबकुछ रियल हो और आपको लगे कि ये हमारे पड़ोस में रहते हैं। मैंने एडिट पर यही कोशिश की। हमारे पास काफी सारा फुटेज था। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे ... मतलब मेरा सामना जब भी अत्यधिक फुटेज से होता है तो पूरी मुश्किल को मैं छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट देती हूं। मैं जितने छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों में फुटेज को बांट सकूं, बांट देती हूं। फिर इन छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों को हल करती चलती हूं। मतलब जब मैं छोटी चीज के बारे में सोच रही हूं तो मैं बड़ी चीज टालती हूं।

जैसे आप छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटती चलती हैं तो उस दौरान पूरा का पूरा मटीरियल अपने जेहन में याद रखती हैं? क्या एक खास सेक्शन को छोटे टुकड़ों में बांटती हैं, फिर उसे निपटाती हैं? फिर दूसरे पोर्शन को टुकड़ों में बांटती हैं और उसको निपटाती हैं? या पूरी फ़िल्म का फुटेज आपने छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया और फिर उसे हैंडल करती हैं?
ऐसा कोई तरीका नहीं होता है। हर फ़िल्म को हल करने या एडिट करने का एक सिस्टम होता है। पहले मैं सीन को टारगेट करती हूं। फिर उस सीन में भी बहुत सारी फुटेज है तो वन टू थ्री, अलग-अलग ब्लॉक में विभाजित करती हूं। मतलब जितना आप उसे छोटी-छोटी इकाइयों में बांट देते हैं न, तो समझना और सुलझाना आसान रहता है। जब फील्ड वर्क पूरा हो जाता है तो सबको पिरोकर एक पूरी फ़िल्म बनती है तो उसको भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटती हूं और स्टोरी फ्लो और दूसरे पहलुओं के हिसाब से तह करती हूं। कि फर्स्ट हाफ हो गया, सेकेंड हाफ हो गया, फर्स्ट हाफ में फर्स्ट रील हो गई, सेकेंड रील हो गई, थर्ड रील हो गई। फर्स्ड रील में भी पहले दस मिनट हो गए, फिर अगले दस मिनट हो गए। उसमें भी अगर यूं, कि अच्छा, कैरेक्टर का इंट्रोडक्शन ऐसे नहीं बैठ रहा है, या बैठ रहा है तो ... मतलब जितने भी छोटे हिस्सों में उसे विभाजित करें, आसान हो जाता है। सबकुछ एक साथ तो कर नहीं सकते।

ये तरीका आपका पहली फ़िल्म से रहा है या पहली-दूसरी फ़िल्मों के बाद अनुभव से सोचा कि मुझे इस तरह से अपने काम को अनुशासित और व्यवस्थित करना चाहिए?
नहीं, शुरू से तो नहीं था। ऑन द जॉब हुआ है धीरे-धीरे। लगा कि ये तरीका हो सकता है चीजों को डील करने का। शुरू-शुरू में बहुत घबरा जाती थी इतना मटीरियल होता था। अब मैं उसे अच्छे तौर पर या लाभ मानकर लेती हूं। क्योंकि मेरे पास इतना मटीरियल है तो उतना ही लचीलापन और उतनी ही स्वतंत्रता है, अपनी कहानी कहने के लिए। पहले मैं थोड़ा घबरा जाती थी कि भगवान! कैसे होगा, मुझसे तो नहीं होगा! लेकिन अब ऐसा नहीं। अब तो लगता है, नहीं, जितना मेरे पास मटीरियल है उतनी ही मेरे पास पावर है। ये तो कर कर के ही सीखा है। ... और हर डायरेक्टर से आप कोई नई चीज सीखते हैं। हरेक के साथ काम करते हुए उनके स्टाइल को देखती रही और सीखकर चीजों को अपने में जोड़ती रही। उससे भी बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि वे सभी बेहद विशिष्ट लोग हैं जिनका अपना-अपना नजरिया है, अपनी सोच है।

डायरेक्टर लोग भी तो आपसे सीखते होंगे? जैसे आप नई थीं तो अनुभवी लोगों से सीखा होगा लेकिन आज आपको बहुत सी फ़िल्मों का और सफल फ़िल्मों का अनुभव है तो कोई नया डायरेक्टर आता है वो भी आपसे काफी सीखता होगा?
मैंने दरअसल बहुत सारे फर्स्ट टाइमर्स के साथ काम किया है। ‘इश्किया’ अभिषेक (चौबे) की पहली फ़िल्म थी, ‘बैंड बाजा बारात’ मनीष (शर्मा) की पहली फ़िल्म थी। उसके बाद और भी दो-तीन छोटी फ़िल्में मैंने की हैं। अब भी कर रही हूं। मुझे लगता है कि एडिटिंग स्टोरीटेलिंग होती है और जो एक मूल स्टोरीटेलिंग होती है वो प्राकृतिक रूप से आप में होती है। कि या तो आप एक नेचुरल स्टोरीटेलर हैं। और जो दूसरी चीज होती है स्टोरीटेलिंग मं वो करत विद्या है, कि कर-कर के आपको समाधान आने लगते हैं। मतलब जब आपको समझ आने लगता है कि अच्छा अब ये समस्या आ रही है, कैरेक्टर का अब ये समझ में नहीं आ रहा है, इसका कैसे करूं। बोर हो रहा है, इसका मैं क्या करूं। तो ये चीजें आपको समझ में जल्दी आने लगती हैं। वो एक दूसरा पहलू है। जो दूसरी बेसिक स्टोरीटेलिंग वाला पहलू है, उसका और अनुभव का ज्यादा कनेक्शन नहीं है, सॉल्युशंस का कनेक्शन है। कि अगर स्टोरी काम नहीं कर रही है और आप अनुभवी हैं तो समाधान ज्यादा आने लगते हैं। चाहे पहली बार के निर्देशक ही क्यों न हो, मैं तो जितना ज्यादा सीख सकती हूं सीखती हूं। सब में कुछ न कुछ खास बात होती है। कुछ लोग बहुत अच्छा एक्टर्स के साथ व्यवहार करते है। यानी उन्हें इतनी बेहतरी से डायरेक्ट करते हैं। इतने आर्टिक्युलेट (स्पष्ट) होते हैं कि बहुत ही ग्रे इमोशन एक्टर्स को समझा पाते हैं। कि ये मुझे चाहिए और तुम इस तरह से निभाओ। कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत सारा शूट करते हैं लेकिन अच्छे से जानते हैं कि मुझे ये पीस चाहिए या मुझे ये सब चाहिए और ये सब नहीं चाहिए। तीसरी तरह के निर्देशक वे होते हैं जो कभी हार नहीं मानते हैं। चाहे उन्हें बहुत सारी आलोचना मिल रही है। जैसे फ़िल्म रिलीज होने से पहले काफी सारे लोगों को दिखाई जाती है तो कई लोग आलोचना करते हैं, कई लोग अच्छा कहते हैं। कुछ डायरेक्टर होते हैं जो कभी हार नहीं मानते, वो लगे रहते हैं। उन्हें आलोचना भी मिलती है तो बहुत शांति से स्वीकार करते हैं। ये सब चीजें मैंने बहुत से निर्देशकों से सीखी। वे कभी हार नहीं मानते, सुझावों को लेकर बेहद खुले मन के होते हैं।

फ़िल्म स्टॉक और डिजिटल पर एडिट करने में मूलतः क्या फर्क है?
डिजिटल में आपको पैसों के बारे में इतना ज्यादा नहीं सोचना पड़ता। आप थोड़ा अतिरिक्त शूट कर लेते हैं। क्वालिटी के लिहाज से भी डिजिटल वाले स्टॉक की बराबरी करने की कोशिश कर रहे हैं तो गुणवत्ता में भी बहुत फर्क नहीं है। जाहिर तौर पर टेक्नीकली तो है, पर आम गणित करें तो इतना फर्क नहीं है जब मिलाना है या विलय करना है। एडिटर के लिए डिजिटल में अनुशासन कम होता है। वो अनुशासन कम होने से शूटिंग ज्यादा होती है। सेटअप टाइम कम होता है। तो मुख्यतः अनुशासन का फर्क है।

दोनों के लुक में तो कोई फर्क रहा नहीं, क्योंकि जितने भी सॉफ्टवेयर हैं, उनसे डिजिटल भी फ़िल्म स्टॉक की तरह ही लगने लगता है।
जी, बिल्कुल।

अगर आम दर्शक को समझाना हो कि एडिटिंग की प्रक्रिया मोटा-मोटी क्या होती है?
फ़िल्में शॉट्स में शूट की जाती हैं। मतलब छोटे-छोटे टुकड़ों में शूट की जाती हैं। एडिटिंग करते वक्त आप उन छोटे-छोटे हिस्सों को मिलाकर एक कहानी कहते हैं। कहानी ऐसी जो आपको समझ में आ रही है, आपको रोक कर रख रही है, आपको कहीं बोर नहीं कर रही है, क्रम में चल रही है और आपको वो छोटे-छोटे हिस्से अलग से नजर नहीं आ रहे हैं। तो एडिटर का काम ये होता है। ये मोज़ेक जैसा है, कि आप एक-दूसरे के ऊपर छोटे-छोटे टुकड़े लगा रहे हैं लेकिन ऊपर से देखें तो ये एक सुंदर डिजाइन दिखता है। आपको वो छोटे-छोटे टुकड़े बहुत पास जाने के बाद ही दिखेंगे। तो फ़िल्म एडिटिंग में वो जो भी मोज़ेक है, उसका डिजाइन समझ आना चाहिए, वो अच्छा लगना चाहिए और उसका कुछ मतलब भी होना चाहिए।

आप किस सॉफ्टवेयर पर एडिट करती हैं? फ़िल्म उद्योग में अभी कौन सा चलन में है? दूसरा, कोई इंडिपेंडेट फ़िल्ममेकर अगर खरीद नहीं कर सकता और अपने बेसिक लैपटॉप पर ही एडिट करना चाहता है तो क्या करे और उसे कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
एविड (Avid) और एफटीपी (FTP) दो सॉफ्टवेयर हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में दोनों से काम हो रहा है। कई लोग एविड पर करते हैं, कई लोग एफटीपी पर करते हैं। दोनों के दोनों ही आजकल लैपटॉप पर इंस्टॉल हो सकते हैं। एविड थोड़ा सा महंगा पड़ता है निवेश के लिहाज से, एफटीपी थोड़ा सस्ता है। इंडिपेंडेंट फ़िल्ममेकर ज्यादातर एफटीपी को तवज्जो देते हैं क्योंकि खर्च कम आता है। मैंने अपनी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बनाई थी जो पूरी लैपटॉप पर एडिट की थी और मुझे कोई दिक्कत हुई नहीं। आजकल डिजिटल फॉर्मेट धीरे-धीरे भारी होता जा रहा है तो पता नहीं कैसे होता है, मुझे भी नहीं पता क्योंकि मैं अब लैपटॉप पर करती नहीं हूं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई भी मुश्किल होती होगी।

नए लड़के-लड़कियां एडिटिंग सीखना चाहें और किसी इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं मिला हो तो कैसे सीख सकते हैं और आगे काम पा सकते हैं?
देखिए, इंस्टिट्यूट का बड़ा लाभ तो होता ही है क्योंकि वो सिर्फ फ़िल्म स्कूल नहीं होता लाइफ स्कूल होता है। क्योंकि इसमें आप इतने सारे आर्ट से परिचित होते हैं और आपको उनके बारे में सोचने और समझने का समय मिलता है, वो एक लाभ है। अगर फ़िल्म इंस्टिट्यूट न जा सकें तो बदले में आप एक डिजिटल एकेडमी में जहां आपको सॉफ्टवेयर सिखाए जाएं, वहां जा सकते हैं। इसके बारे में ज्यादा तो नहीं कह सकती क्योंकि मैं डिजिटल एकेडमी गई नहीं हूं तो पता नहीं वहां क्या सिखाया जाता है और क्या नहीं सिखाया जाता है। आप और भी तरीकों से सीख सकते हैं। आप किसी एडिटर को असिस्ट कर सकते हैं। मुझे लगता है कि एडिटर को असिस्ट करके सीखना बहुत-बहुत अच्छा तरीका है। वहां आप बिल्कुल मामले के बीचों-बीच होते हो। आप वहीं पर रहकर सब देख और कर रहे होते हो।

फ़िल्म रिव्यू जब भी होता है तो उसमें बहुत से समीक्षक फ़िल्म एडिटर के बारे में लिखते ही नहीं हैं। और जब भी लिखते हैं तो समझ भी नहीं पाते हैं कि फ़िल्म एडिटर ने किया क्या होगा क्योंकि उसको पता नहीं है कि रॉ स्टॉक कब मिला था? ब्रीफ कैसे किया था? पहले दिन से एडिटर शूट पर साथ थे? या लास्ट में उनको मटीरियल ही सिर्फ दिया गया? क्या आर्ग्युमेंट उनके और डायरेक्टर के बीच हुआ? तो आपने जब असल में उस चीज को एडिट किया है और आप उन असल हालातों को जानती हैं और आप जब देखती हैं कि कहीं जिक्र हुआ है नाम और इस तरह से हुआ है और ये कमेंट है जो फिट ही नहीं बैठ रहा है, ऐसा कुछ था ही नहीं जो लिखा गया है, ये आलोचनात्मक रूप से सही ही नहीं बैठ रहा है...। तो इन लिखी चीजों को आप कैसे लेती हैं? हमारे यहां एडिटिंग को लेकर कितनी समझ है और उसको कितना सही लिखा जा रहा है?
नहीं, ज्यादातर तो सही नहीं लिखा जाता है। बहुत ही कम रिव्यूज मैंने देखे हैं जहां कुछ उपयुक्त होता है मूवी के बारे में। ज्यादातर समीक्षक फ़िल्म के पेस और एडिटिंग को कनेक्ट करते हैं। कि गति अच्छी है तो एडिटिंग अच्छी है, नहीं है तो अच्छी नहीं है। लेकिन एडिटिंग सिर्फ गति के बारे में ही नहीं होती है। न ही ये सिर्फ बड़े कट्स के बारे में होती है। जैसे, कह देते हैं कि बड़े से कट्स थे, यहां से वहां हो गया, फास्ट हो गया बहुत ही...। तो न तो सिर्फ कटिंग होती है और न ही महज पेसिंग होती है। जैसे मैंने ‘कहानी’ की थी तो इतने सारे रिव्यूज में लिखा गया कि बड़ी अच्छी कटिंग है, लेकिन कटिंग से ही नहीं होता है। कई जगह बोला गया था कि इतनी ज्यादा तेज गति है कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। मुझे नहीं लगता कि ये दोनों चीजें एडिटिंग में किसी भी चीज का सही प्रतिनिधित्व हैं। ठीक है, ये दोनों चीजें अपने आप में कुछ हैं, लेकिन इन्हें ही सिर्फ एडिटिंग नहीं बोल सकते हैं। मैंने कई जगहों पर तो यह भी पढ़ा है कि एडिटिंग खराब थी पर फ़िल्म बहुत अच्छी थी। ... अब ये कैसे हो सकता है मुझे तो नहीं पता। पर ठीक है, क्योंकि मुझे लगता है कि एडिटिंग एक ऐसी चीज है जिसके बारे में ज्यादा पता होना भी नहीं चाहिए। जिन्हें रुचि है सिर्फ उन्हीं को पता होना चाहिए। आम आदमी या दर्शक को इतना ज्यादा पता होने की जरूरत नहीं है। सिनेमा को इतना ज्यादा अगर हम डीकंस्ट्रक्ट कर देंगे न, कि हर चीज ऑडियंस को पता है, मुझे लगता है फिर उसका जादू नहीं रहता है। फिर सिनेमा एक अलग ही चीज हो जाएगी। मैजिक होना जरूरी है। कि अब पता नहीं क्या हो रहा है, किसने क्या किया है एग्जैक्टली पता नहीं लेकिन मैं एक्टरों में बिलीव करती हूं। जो एक्टर डायलॉग बोल रहा है मुझे लग रहा है कि बहुत ही सच है। उस जादू को बनाए रखने के लिए मुझे यकीन करना होगा कि ये जो भी हो रहा है, सच है। जितना ज्यादा मुझे पता होगा कि पीछे की तरफ ये लेंस लगाया गया था, यहां से लाइट मारी थी, तो फिर मजा नहीं रहेगा ऑडियंस के लिए। ठीक है, जो लिख रहे हैं उन्हें लिखने देना चाहिए। वो जो भी लिखें कोई फर्क नहीं पड़ता है।

लेकिन क्या ये संभव है कि एडिटर की वस्तुस्थिति जानी जा सके। क्योंकि फिल्म कैसे भी शूट हुई हो, कितना भी बुरा फुटेज हो, एडिटर उसे जादूगरी से बदल देता है। क्या उसका सही योगदान पता नहीं लगना चाहिए लोगों को। या बस एडिटर जानता है और डायरेक्टर उसे थैंक्स बोल देता है, इतना पर्याप्त है?
ये बहुत ही मुश्किल है कहना। मुझे लगता है कि अगर इंडस्ट्री में लोगों को पता चल जाए, इतना काफी है ताकि आपको और अच्छा काम मिलता रहे। उससे ज्यादा दर्शकों को बताना मेरे ख़्याल से इतना जरूरी नहीं है। सिडनी लुमिया (Sidney Lumet) ने कहा था या पता नहीं किसने कहा था कि, “एक संपादन कक्ष में क्या होता है, ये सिर्फ दो लोग जानते हैं, एक तो फ़िल्म का डायरेक्टर और एक एडिटर” (what happens in an editing room, only two people know, the director and the editor)। अगर आप बेहद अनुभवी एडिटर हैं तो फ़िल्म देखकर बता सकते हैं कि अच्छा ये हो सकता था और ये नहीं हुआ या ये बहुत अच्छा हुआ है। इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि कोई तीसरा पक्ष इस विषय के बारे में जान सकता है या टिप्पणी कर सकता है।

आपने जितनी फ़िल्में अभी तक एडिट की हैं और उनका जो अंतिम नतीजा रहा है, क्या उनको और भी बहुत सारे तरीकों से एडिट किया जा सकता था, या वो ही बेस्ट रास्ते थे एडिट करने के?
मेरे लिए तो वही बेस्ट रास्ते थे। पर मैं आश्वस्त हूं कि आप उसको एडिट करते तो वो अलग होते, तीसरा कोई करता तो वो अलग होते। ये तो बहुत ही वस्तुपरक (subjective) है। जैसे, मैं जब दूसरी फ़िल्में देखती हूं और कभी बोर हो रही होती हूं फ़िल्म से तो फिर मैं एडिटिंग देखने लग जाती हूं। सोचती हूं कि मैं ऐसे करती, वैसे करती। तो ये बहुत अलग है। कोई भी ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही तरह से एडिट करे। पर मेरे लिए एक ही तरीका होता है। जैसे, आप और मैं बात कर रहे हैं तो मैं किस टाइम पर आपको देखूं और किस टाइम पर किसी और चीज को देखूं, मुझे ये बहुत ही ऑर्गेनिक लगता है। शायद आपको कुछ और ही लगे ऑर्गेनिक। आप तो मुझसे बहुत अलग इंसान हैं न। अलग परवरिश है, अलग अनुभव हैं तो उनके हिसाब से आप अपनी स्टोरीज बताएंगे। मैं अपने हिसाब से बताऊंगी तो वो कहीं से भी सेम हो ही नहीं सकती हैं। पर बात ये है कि जो भी मैं करती हूं मुझे वो ऑर्गेनिक लगता है। जब भी मुझे लगता है कि ये (तरीका) जबरदस्ती है तो फिर मैं उसके बारे में ज्यादा सोचती हूं। कुछ ऐसे थीम होते हैं जो आपको ऑर्गेनिकली नहीं आते हैं, अगर आपको बार-बार उन पर काम करना पड़ता है तो।

मैं जैसे कोई स्टोरी एडिट करता हूं तो मुझे एडिट करने से पहले पता नहीं होता है कि एडिट करने के बाद उसका स्वरूप मैं कैसा बना दूंगा लेकिन मुझे पता होता है कि जब भी मुझे ऐसी मुश्किल आएगी तो मैं उसका सामना ऐसे करूंगा। क्या आपका दिमाग भी वैसे ही चलता है या आपको एकदम पता होता है कि फ़िल्म ऐसी नजर आएगी?
नहीं, मुझे बिल्कुल नहीं पता होता है कि क्या होने वाला है। मुझे कहीं-कहीं आइडिया होते हैं कि इसको यहां पर ऐसे बदलकर और इंट्रेस्टिंग बनाया जा सकता है, लेकिन एक सटीक विजुअल तो मेरे दिमाग में नहीं होता है।

कोई अगर एडिटिंग पढ़ना चाहे तो क्या किताबें हैं या सब कुछ प्रैक्टिकल खेल है? या फ़िल्में ज्यादा से ज्यादा देखी जाएं और सीखा जाए?
बुक्स तभी हेल्प करती हैं जब आपको कुछ प्रैक्टिकल अनुभव होता है। जब मैं फ़िल्म स्कूल में थी और किताबें पढ़ रही थी तो मुझे एडिटिंग एक अलग ही चीज लगती थी लेकिन एक बार जब मैंने प्रैक्टिस करना शुरू किया और काम हाथ में लिया तो जो किताबों में पढ़ा था वो बिल्कुल ही अलग दिखने लगा। सबके अलग-अलग मतलब निकलने लगे। मैं यही कहूंगी कि एडिटिंग करत विद्या है। आप जो भी किताबें पढ़ते हैं आपको हेल्प जरूर करेंगी, बिल्कुल करेंगी लेकिन प्रैक्टिकल अनुभव या अपने हाथ से की एडिटिंग का मुकाबला कोई ज्ञान नहीं कर सकता।

अब आपको मूवीज देखने के लिए टाइम मिलता है या एडिटिंग में व्यस्त रहती हैं?
फ़िल्म देखना बहुत जरूरी है, मेरे को तो लगता है कि वही बेस्ट लर्निंग है। जब आप ऑडियंस के साथ फ़िल्म देखते हैं, उससे अच्छी लर्निंग कोई दूसरी नहीं है। वो करना तो जरूरी होता है। बिल्कुल करती हूं मैं।

आप महीने या साल में कितनी फ़िल्में देख लेती हैं?
मैं कोशिश करती हूं रोज एक फ़िल्म देखने की, कभी-कभी नहीं हो पाता है। पर हफ्ते में दो, तीन, चार तो देख ही लेती हूं।

कौन से फ़िल्म एडिटर दुनिया में ऐसे हैं जिनकी आप बहुत प्रशंसा करती हैं?
थेल्मा शूनमेकर (Thelma Schoonmaker – ‘ह्यूगो’, ‘रेजिंग बुल’, ‘द डिपार्टेड’) मुझे बहुत पसंद हैं। वॉल्टर मर्च (Walter Murch – ‘द गॉडफादर’, ‘द कॉन्वर्जेशन’, ‘अपोकलिप्स नाओ’, ‘द इंग्लिश पेशेंट’) की एडिटिंग पसंद हैं क्योंकि वे बेहद आर्टिक्युलेट हैं। इसके अलावा कुछ फ़िल्में मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं जिनके एडिटर्स का नाम मुझे नहीं पता। ‘ब्लैक हॉक डाउन’ (Pietro Scalia) है, ‘डाउट’ (Dylan Tichenor) है और भी बहुत सी हैं। मुझे लगता है कि एडिटिंग में भी एक्सपेरिमेंट करना बहुत जरूरी है जिस किस्म की भी स्टोरी आपके पास हो। नया एक्सपेरिमेंट फ़िल्म में कहीं छिपा होना चाहिए, मतलब ऑडियंस को कुछ नया महसूस होना चाहिए पर उनको हर चीज दिखनी नहीं चाहिए।

आपके जो समकालीन एडिटर हैं भारत में, उनमें से किसका काम अच्छा लगता है, जो नया कर रहे हैं?
बहुत सारे हैं। श्रीकर सर (A. Sreekar Prasad – ‘राख़’, ‘वानाप्रस्थम’, ‘फिराक़’, ‘दिल चाहता है’) हैं। वो कितनी सारी अच्छी फ़िल्में कर चुके हैं। दीपा (Deepa Bhatia – ‘हज़ार चौरासी की मां’, ‘देव’, ‘तारे जमीं पर’, ‘काई पो चे’) है, आरती (Aarti Bajaj – ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘जब वी मेट’, ‘रॉकस्टार’, ‘पान सिंह तोमर’) है। ये बहुत अलग तरह का काम कर रही हैं। बहुत रोचक।

आपकी ऑलटाइम फेवरेट मूवीज कौन सी हैं, इंडियन और विदेशी?
ये तो बहुत ही मुश्किल सवाल है, इसका मेरे पास कभी कोई जवाब नहीं होता है क्योंकि ये नाम बदलते रहते हैं। मुझे बहुत सारी फ़िल्में अलग-अलग टाइम पर अच्छी लगती हैं। जैसे, मुझे ‘गरम हवा’ बहुत अच्छी लगी थी। जब देखी थी तो हिल गई थी। फिर कुछ और देखने की इच्छा बाकी न रही। मुझे ‘परिंदा’ बहुत अच्छी लगती है, ‘मिस्टर इंडिया’ बहुत अच्छी लगती है, ‘जाने भी दो यारों’, ‘अंदाज अपना-अपना’, फिर... ‘दीवार’ बहुत अच्छी लगती है। एक टाइम था जब ‘हम आपके हैं कौन’ बहुत अच्छी लगती थी। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ बहुत अच्छी लगती है। अलग-अलग फेज में अलग-अलग पसंद होती हैं। फ़िल्म स्कूल जाकर वर्ल्ड सिनेमा को देखा। किश्लोवस्की की फ़िल्में बहुत अच्छी लगने लगीं। तब कुछ खास किस्म की फ़िल्मों को ही मैं ज्यादा एंजॉय कर पाती थी। अब ऐसा है कि कोई भी फ़िल्म अगर मुझे एंगेज करती है तो मुझे अच्छी लगती है। कोई परवाह नहीं कि स्लो है या उसमें कुछ और है... अगर आप मुझे थाम कर रख सकते हो तो मुझे बहुत अच्छी लगती है। मैं किसी फ़िल्म को पसंद करने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करना पसंद नहीं करती हूं। फ़िल्म में कोई न कोई जुड़ाव होना चाहिए जो मुझे दिखा रही हो।

डायरेक्टर्स में अभी कौन अच्छा काम कर रहे हैं?
वे जिनके साथ आपने काम किया है और वे जिनका सिर्फ काम देखा है। मैं तो उन्हीं के साथ काम करती हूं जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं तो पूछना ही बेकार है। दिबाकर (बैनर्जी), सुजॉय (घोष), मनीष (शर्मा) जिनके साथ मैंने अब तक काम किया है। ‘इश्किया’ में अभिषेक चौबे।, मुझे मजा आया। अनुराग बासु का काम भी बहुत पसंद है। वह बहुत अच्छे डायरेक्टर और स्टोरी टेलर हैं। फिर अनुराग कश्यप हैं, जोया (अख़्तर) है... मुझे जोया का काम बहुत पसंद है।

सभ्यताओं के बसने के बाद से ही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आप प्रेरणा किसे मानते हैं? या इंस्पिरेशन होना कितना बुरा है या अच्छा है? जैसे आपने अनुराग बासु का नाम लिया तो ‘बर्फी’ को लेकर काफी रहा कि जो सीन्स थे वो दूसरी फ़िल्मों से थे। अभी स्पष्ट नहीं है कि डिबेट किस तरफ जानी चाहिए क्योंकि एक तरह से तो सारी फ़िल्में इंस्पायर्ड ही हैं। कुछ भी मौलिक या ऑरिजिनल तो एक लिहाज से है ही नहीं। ‘बर्फी’ आई तो कुछ लोग बिल्कुल सपोर्ट में खड़े हो गए कि नहीं, अनुराग ने पुरानी फ़िल्मों को श्रद्धांजलि दी, कुछ कहते हैं कि नहीं, उन्होंने अपनी तरफ से क्या प्रयास किया था। फ़िल्म स्कूल में ये डिबेट तीन सालों में जरूर रही होगी। आपकी सोच क्या है?
मैं निजी तौर पर दूसरे लोगों के काम से चीजें लेने के पक्ष में नहीं हूं। प्रेरणा अलग चीज होती है, ट्रिब्यूट अलग चीज होती है। जैसे ‘द अनटचेबल्स’ (The Untouchables, 1987) में ब्रायन डी पाल्मा ने ‘ओडेसा स्टेप्स सीन’ (फ़िल्म ‘बैटलशिप पोटयेमकिन’, 1925 का एक आइकॉनिक दृश्य) को ट्रिब्यूट दी थी। उस तरह के स्टेप्स लिए थे जहां उनकी फाइट होती है। वो अलग चीज है लेकिन कोई सीन कहीं से उठा लेना और उसे अपना बताना एक अलग चीज है। मुझे नहीं पता, पर ये ओपन डिबेट है। अगर मैं एक फ़िल्ममेकर हूं तो मैं ये नहीं करूंगी। मैं जानबूझकर या इरादतन किसी के सीन्स को उठाकर हूबहू वैसे यूज नहीं करूंगी। पर किसी फ़िल्ममेकर को मुझे ट्रिब्यूट देनी है तो.. जैसे ‘कहानी’ में सत्यजीत रे को ट्रिब्यूट है कि विद्या खिड़की के पास खड़ी हैं और वहां से देवी को गुजरते देखती हैं, वो बिल्कुल ट्रिब्यूट है ‘चारुलता’ को, लिफ्टेड नहीं है। जैसे खिड़की में चलकर मदारी को देखती है चारुलता और ऐसे ही विद्या देवी को गुजरते हुए देखती है। मेरे लिए ये उचित ट्रिब्यूट है। लेकिन मैं किसी पर टिप्पणी नहीं कर सकती क्योंकि ‘बर्फी’ के कौन से दृश्य कहां से हैं और क्या माजरा है, इसकी जांच मैंने की नहीं है इसलिए जानती नहीं कि उसमें जो है वो क्या है। लेकिन एक फ़िल्ममेकर के तौर पर और व्यक्तिगत रूप से मैं जानती हूं कि अनुराग बासु कहानी कहने की एक विशेषता रखते हैं।

फ़िल्म एडिटिंग में अभी क्या चुनौतियां हैं? क्या इनवेंशन और इनोवेशन की कमी हम में और हॉलीवुड में भी है, क्योंकि एक जॉनर की फ़िल्म आती है तो उनमें समान तरह का पेस और प्रस्तुति होती है? जैसे एक्शन और स्टंट वाली फ़िल्मों में एडिटिंग का उनका एक अलग ही फॉर्म्युला बना हुआ है। एडिटिंग की दुनिया में भीतरी बहस अभी क्या चल रही है?
सबसे बड़ी बहस तो यही होती है कि आधे लोग (एडिटर या फ़िल्ममेकर) ये यकीन रखते हैं कि दर्शकों को ये देखना है तो हम ये करेंगे और आधे लोग ये यकीन रखते हैं कि आपको क्या पता दर्शकों को क्या चाहिए, आप तो दर्शक क्रिएट कीजिए। एडिटिंग में भी सवाल आता है, मैं जिस सवाल का रोज सामना करती हूं कि ये फ़िल्म किसके लिए है? ये फ़िल्म डायरेक्टर अपने लिए बना रहे हैं कि दर्शकों के लिए बना रहे हैं? वो ऑडियंस कौन है? क्या मैं फ़िल्म रिलीज से पहले पता कर सकती हूं कि वो दर्शक कौन हैं? क्या मेरी ये रींडिग सही है या मैं सिर्फ अपने पास्ट एक्सपीरियंस से जा रही हूं। क्योंकि हम देखते हैं कि दर्शक हर बार अलग तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। तो आपकी जो स्टडी है, किस बात पर बेस्ड है। और सबसे ज्यादा मुझे लगता है कि फ़िल्मों में करप्शन भी इसी बिंदु पर प्रवेश करता है। क्योंकि आपको लगता है कि फ़िल्में ये बन रही हैं क्योंकि दर्शकों को ये देखना है, ये तो एक बहुत ही आसान-सहज सोच बना दी गई है। मतलब आप ये फ़िल्म बना रहे हैं क्योंकि आपको ये फ़िल्म बनानी है, कौन देखता है कौन नहीं देखता है ये तो बाद की बात है। ये जो ‘ऑडियंस’ शब्द है न जो फ़िल्मों को गवर्न करता है, सबसे बड़ी डिबेट तो यही चलती है, अंदरूनी भी और बाहरी भी। मतलब कि कौन है ये दर्शक, जिन्हें आप परोस रहे हैं। जैसे, अनुराग, दिबाकर या छोटी फ़िल्में जो बना रहे हैं, क्या ये किन्हीं दर्शकों को केटर कर रहे हैं या इन्होंने अपने दर्शक ख़ुद बनाए। क्योंकि ऐसी फ़िल्में भी पसंद करते ही हैं कुछ लोग। सिर्फ ऐसा नहीं है कि लोग बड़ी फ़िल्में ही पसंद करते हैं। ‘विकी डोनर’ जैसी फ़िल्म को भी तो दर्शक मिले हैं तो क्या उन्होंने पहले से सोचा होगा। क्या दर्शकों को पहले से पता होगा। ऐसा नहीं होता है तो मतलब ये एक आसान सी टर्म है जो फॉर्म्युला में डालकर यूज कर ली जाती है। मुझे लगता है कि ये सबसे बड़ी और मौजूदा वक्त में चल रही डिबेट है। मेरे को आज छह साल हो गए हैं कि छह साल में मेरे पास तो कोई जवाब आज तक नहीं आया है कि आप एडिटिंग जो कर रहे हैं तो किसके लिए कर रहे हैं? कि आप बोर न करें, तो किसको बोर न करें? मतलब कौन बोर हो रहा है? फ़िल्ममेकर बोर हो रहा है देखते हुए या ऑडियंस बोर होगी जिसने फ़िल्म अभी तक देखी ही नहीं है।

इतनी फ़िल्मों की एडिटिंग आपने की है तो आखिरी नतीजे के लिहाज से अपनी कौन सी फ़िल्म की एडिटिंग से आप बहुत खुश हैं, संतुष्ट हैं?
बहुत मुश्किल है कहना। ‘कहानी’ में काम करने में हम लोगों को बहुत मजा आया था क्योंकि ये वाकई में एक बहुत प्यारी और छोटी सी फ़िल्म थी। लेकिन मुझे उतना ही मजा ‘एलएसडी’ में आया था, मुझे उतना ही मजा ‘बैंड बाजा बारात’ में आया था, उतना ही मजा ‘इश्किया’ में भी आया था और ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ मेरी पहली फ़िल्म थी तो मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। अलग-अलग फ़िल्म से अलग-अलग याद जुड़ी हुई है। ‘जब तक है जान’ जब मैंने की थी तो यश जीके साथ काम करने का मेरा पहला अनुभव था। वो अपने आप में बहुत ही बड़ी बात थी मेरे लिए। मैं तो दूरदर्शन पर उनकी फ़िल्में देखकर बड़ी हुई हूं तो मैं तो कभी सोच ही नहीं सकती थी कि मेरे पास बैठकर वो मुझसे इस तरह से बात कर रहे होंगे। तो हर फ़िल्म की अपनी एक खुशी है। ‘कहानी’ में ये मजा आया कि इतनी सारी डॉक्टुमेंट्री किस्म की फुटेज थी। उसे शूट करके एक अलग ही परत बनाई गई फ़िल्म में, जिसका मुझे गर्व है।

संगीत का इस्तेमाल दर्शक को इमोशनली क्यू (उसके भावों को एक निश्चित दिशा में कतारबद्ध करना) करने के लिए किया जाता है। कुछ कहते हैं कि ये बहुत बासी तरीका है, वहीं सत्यजीत रे की फ़िल्में भी संगीत का जरा अलग लेकिन इस्तेमाल लिए होती थीं। जैसे फ़िल्म की कहानी में कोई बहुत बड़ी ट्रैजेडी हुई तो वीणा या सितार उसी भाव में बजकर क्यू करेगा कि भई बड़ा दुख का मौका है। क्या आप इसे बासी तरीका मानती हैं या नहीं मानती हैं? क्या ये हर फ़िल्म के संदर्भ पर निर्भर करता है?
बिल्कुल निर्भर करता है। जैसे अगर आप ‘एलएसडी’ जैसी फ़िल्म बना रहे हैं जो फाउंड फुटेज पर बनी है। कि ये किसी ने एडिट नहीं की है, ये किसी ने शूट नहीं की है। ये किरदारों ने ही शूट की है और उन्होंने ही बनाई है। उसमें अगर मैं बैकग्राउंड म्यूजिक डालती हूं तो अपने संदर्भ या कथ्य को ही हरा रही हूं। वहीं अगर मैं ऐसी फ़िल्म बना रही हूं जिसके बारे में मैं पहले बिंदु से ही कह रही हूं कि ये तो काल्पनिक है, कि मुझे तो पता नहीं है कि ये सच है कि झूठ है, जिसका किसी जिंदा व्यक्ति से किसी तरह का कोई लेना-देना नहीं है.. तो ऐसी स्थिति में संगीत के साथ मैं जैसा करना चाहूं कर सकती हूं। अगर मुझे किसी बिंदु पर लग रहा है कि यहां ये संगीत लाकर दर्शकों को मैन्युपुलेट कर सकती हूं और अगर उस मैन्युपुलेशन से मुझे कोई नैतिक दिक्कतें नहीं हैं तो करूंगी। इन दिनों मैं कई ऐसे निर्देशकों से मिलती हूं जिन्हें संगीत नैतिक तौर पर गलत मैन्युपुलेशन लगता है। मेरे लिए ये डिबेटेबल है। क्योंकि मुझे लगता है संगीत ही क्यों, आप डायलॉग्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं, आप कट्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं... मतलब कुछ खास कैमरा शॉट्स भी तो मैन्युपुलेशन है न। मुझे संगीत मैन्युपुलेशन नहीं लगता है, पर ये नहीं होना चाहिए कि पांच सौ वॉयलिन बज चुके हैं और जो इमोशन आपके विजुअल में नहीं है आप उसे ही अपने म्यूजिक में डाल रहे हैं तो उस पर मैं सवाल जरूर उठाऊंगी। अगर आप संगीत से किसी दृश्य को सहयोग कर रहे हैं, अगर संगीत से मुझे किसी और ही दुनिया में लेकर जा सकते हैं, विजुअल और म्यूजिक से अगर आप एक तीसरे दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे हैं तो कोई आपत्ति नहीं है।

Namrata Rao is an Indian film editor. She Started with Dibaker Banerjee's Oye Lucky! Lucky Oye! in 2008. Later on she edited films like Ishqiya (2010), Love Sex aur Dhokha (2010), Band Baaja Baaraat (2010), Ladies vs Ricky Bahl (2011), Kahaani (2012), Shanghai (2012) and Jab Tak Hai Jaan (2012). For Kahaani she received 60th National Film Award for Best Editing. Now she's doing the editing of Maneesh Sharma's Shuddh Desi Romance, slated to release on September 13, this year.
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अब तक जितना भी विकास (evolution) हुआ है विचार का, अगर एक फ़िल्म उसे एक कदम आगे नहीं ले जाती तो उसके होने का मेरे लिए कोई मतलब नहीं हैः आनंद गांधी

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 Q & A..Anand Gandhi, film director (Ship of Theseus).

Official poster of 'Ship of Theseus.'

आनंद गांधी कौन हैं?

इन फ़िल्मकार का एक रोचक रूप देखना हो तो आगे बढ़ने से पहलेDoppelgängerदेखें, हैरत होगी।

वह 1980 में पैदा हुए तो इस हिसाब से 32 के हो गए हैं। मराठी रंगमंच में उन्होंने कई नाटक लिखे। 2000 के बाद टेलीविज़न के लिए उन्होंने लिखना शुरू किया। वह ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ के डायलॉग और ‘कहानी घर घर की’ के स्क्रीनप्ले लिखने वाली टीम का हिस्सा थे। 2003 में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म ‘राइट हियर राइट नाओ’ (1, 2) बनाई। तीन साल बाद आनंद ने पांच अध्याय वाली फ़िल्म ‘कंटिन्युअम’ (हंगर, ट्रेड एंड लव, डेथ, एनलाइटनमेंट, कंटिन्युअम) बनाई।

पिछले साल वह अपनी पहली फीचर फ़िल्म ‘शिप ऑफ थिसीयस’ लेकर आए। एक ऐसी फ़िल्म जो विश्व के तमाम सम्मानित फ़िल्म समारोहों में जाकर आई है और सबको चौंका कर आई है। ‘धोबी घाट’ की निर्देशिका किरण राव और यूटीवी मोशन पिक्चर्स, आनंद की निर्माण कंपनी रीसाइकिलवाला फिल्म्स के साथ मिलकर इसे प्रदर्शित करने जा रहे हैं। मुंबई, दिल्ली, पुणे, कोलकाता और बेंगलुरु के सिनेमाघरों में फ़िल्म 19 जुलाई को लगेगी। अलग सोच वाली फ़िल्मों के प्रदर्शन में आने वाली समस्याओं को देखते हुए ‘शिप ऑफ थिसीयस’ के साथ एक नया रास्ता शुरू किया गया है। इसमें इस फ़िल्म को देखने के इच्छुक बाकी भारतीय शहरों के दर्शक-प्रशंसक इस फेसबुक पन्ने परजाकर अपना वोट डाल सकते हैं। अगर पर्याप्त मात्रा रही तो मांग आने वाले शहर में भी फ़िल्म लगाई जाएगी।

फ़िल्म तीन कहानियों और कई सारे प्रश्नों से मिलकर बनी है। इसके विजुअल और विचार मिलकर दर्शकों की नैतिकता, बुद्धिमत्ता, यथार्थ, विज्ञान और मानवीयता में जाते हैं। भारत में फ़िल्में तो हर किस्म और गुणवत्ता की बनी हैं, लेकिन ‘शिप..’ इस लिहाज से अनोखी है कि जो बातें और तर्क अब तक सिर्फ बुद्धिजीवियों की बैठकों, शैक्षणिक हलकों और बेहद एक्सपेरिमेंटल सिनेमा में आ पाती थीं, वे चुंबकीय स्वरूप में हमारे हिस्से आती है। इसके रचियता आनंद गांधी से ये बेहद विस्तृत बातचीत फ़िल्म के निर्माण पर तो बात करती ही है, उससे भी कहीं ज्यादा आनंद के निर्देशक मन के निर्माण की प्रक्रिया में जाती है। आप जानते हैं कि उनके ज़ेहन में क्या चलता है। उनकी सोच का स्तर क्या है। उनका समाज के लेकर नज़रिया क्या है। और आगे उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है।

और भी बहुत कुछ इस वार्ता में पाएंगे। प्रस्तुत हैः

अभी क्या करने में व्यस्त हैं?
मेरी जो दूसरी फ़िल्म है उसकी एडिटिंग और पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है। ‘तुम्बाड’ नाम है। मैंने प्रोड्यूस की है और राही बरवे ने डायरेक्ट की है। सोहम शाह जो एक्टर-प्रोड्यूसर हैं हमारी सारी फ़िल्मों में, हम लोगों ने मिलकर अपनी प्रोडक्शन कंपनी रीसाइकिलवाला फिल्म्स के अंतर्गत इसे बनाया है।

‘तुम्बाड’ कब तक रिलीज होगी?
शायद सितंबर तक।

‘शिप ऑफ थीसियस’ किन-किन फ़िल्म फेस्ट में जाकर आ चुकी है?
टोरंटो, लंदन, टोक्यो, ब्रिसबेन, मुंबई, दुबई, रोटरडैम, बर्लिन... और भी जगह गई है और सारे फेस्ट में कुछ न कुछ अवॉर्ड मिले हैं।

ये फ़िल्म है क्या?
‘शिप ऑफ थीसियस’ तीन कहानियों से बनी हुई है। फ़िल्म का शीर्षक एक थॉट एक्सपेरिमेंट है। इसका मूल प्रश्न यह है कि थीसियस ने एक जहाज बनाया था जिसका एक सदी के बाद हरेक पुर्जा बदल दिया गया था। जब हर पुर्जा बदल दिया गया है तो अब वह नया जहाज है कि पुराना वाला है? अगर कहें कि नया जहाज है तो वो कब शिप ऑफ थीसियस होना खत्म हुआ और कब नया जहाज होना शुरू हुआ? वो रेखा कहां बनाई जा सकती है? यही कॉन्सेप्ट इंसानों पर भी लागू करें और इस दृष्टिकोण से देखें तो सात साल में इंसान का हर पुर्जा भी बदल जाता है। हर सेल, हर कण रिप्लेस हो जाता है। ये बदलाव सिर्फ फिजीकल नहीं है, मटीरियोलॉजिकल, साइकोलॉजिकल हर प्रकार से इंसान बदलता है। हर सेल जो आपके शरीर में आज है वो सात साल पहले नहीं था, तो क्या आप अभी भी वही इंसान हो, ये प्रश्न उठता है। मूल प्रश्न फ़िल्म में आइडेंटिटी और परिवर्तन का है। आप कौन हो? क्या है जो सतत परिवर्तन में है? आप जो हो और आपके आसपास जो ब्रम्हांड है, उसके बीच का ये रिश्ता क्या है, ये संबंध क्या है? ये सारी बात तीन कहानियों के जरिए की गई है। पहली कहानी एक अंधी फोटोग्राफर के बारे में है। वह एक ईजिप्शियन लड़की है। मुंबई में रहती है। वह जीनियस है। बहुत ही खूबसूरती से अपने आसपास की दुनिया को तस्वीरों में उतार पाती है। हम उसे और उसके प्रोसेस को समझने की कोशिश करते हैं कि किस तरह वह उसमें खुद को ढाल पाती है। दूसरी कहानी एक साधु की है। वह शास्त्री ज्यादा और साधु कम है। वह पंडित हैं और बहुत पढ़े-लिखे, एकेडमिक हैं। उन्होंने पूरी जिंदगी एनिमल राइट्स वायलेशंस के खिलाफ याचिकाएं डाली हैं और लड़ी हैं। अभी वह खुद बीमार हैं और उनको वो दवाइयां लेनी हैं जो कहीं न कहीं पशु हिंसा से बनी हैं। तो अगर वह दवाइयां ले लेते हैं तो अब तक जो लड़ाइयां उन्होंने लड़ी हैं, वो सारी व्यर्थ हो जाती हैं। तो वो दवाइयां नहीं लेते हैं और कहीं न कहीं मृत्यु की ओर जाने लगते हैं। और जैसे ही मृत्यु नजदीक आती है, वो सारे विचार जो कहीं न कहीं स्थित हो चुके थे, वो एक बार फिर से प्रश्न बन जाते हैं। तीसरी कहानी एक स्टॉक ब्रोकर के बारे में है। उसकी दुनिया बहुत ही सिमटी है, वह बहुत ही सीमित है। उसका अपनी नानी मां के साथ बहुत ही अलग प्रकार का रिश्ता है। नानी मां की दुनिया बहुत ही विस्तृत है, उनकी दुनिया बहुत ही खुली हुई है और वो हमेशा चाहती हैं कि वह लड़का भी अपनी दुनिया खोले और जीवन के साथ जुड़े किसी तरह से। फिर एक मौका आता है जब पता चलता है कि इस स्टॉक ब्रोकर का किडनी ट्रांसप्लांट हुआ है। जब वह अपनी नानी मां का ख़्याल रख रहा होता है तो अस्पताल में एक ऐसे व्यक्ति से मिलता है जिसकी किडनी चुराई गई है। पहले उसे लगता है कि कहीं उसे ही तो चुराई हुई किडनी नहीं मिली। फिर डॉक्टर्स, एनजीओ और बाकी सब लोग उसे आश्वासन देते हैं कि उसे चुराई हुई किडनी नहीं मिली, उसे एक मरे हुए आदमी की किडनी मिली है। यहां उसमें जिज्ञासा हो उठती है कि फिर ये चुराई हुई किडनी किसे गई है। अब उस चुराई हुई किडनी को ढूंढने के लिए वह और उसका दोस्त एक पुलिस स्टेशन से दूसरे पुलिस स्टेशन जाते हैं। वहां उसे उस आदमी का पता मिलता है जिसे चुराई हुई किडनी मिली है। और उस आदमी से मिलने वह स्वीडन, स्टॉकहोम जाता है। वहां जाकर वह उस आदमी से मिलता है और उसके आमने-सामने होता है। उस आमने-सामने के बारे में ये तीसरी कहानी है। और ये तीनों कहानियां कहीं न कहीं एक जगह पर जाकर मिलती हैं। जहां ये सारे सवाल एक बड़ा सवाल बनते हैं।

जैसे मणिरत्नम की ‘युवा’ में भी था कि कुछ किरदारों की स्टोरी मिलती है। वासन बाला की ‘पैडलर्स’ में भी यूं ही कई किरदार और उनके मानसिक गलियारों में टहलते इंडिविजुअलिस्टिक सवाल हैं। इसी तरीके से निशिकांत कामत की ‘मुंबई मेरी जान’ में किरदारों की कहानियां भी इसी तरह की थीं। तो ये जो मल्टी स्टोरीज होती हैं ये क्यों आकर्षित करती हैं? हां, इनका रोचक होना और पसंद किया जाना तकरीबन निश्चित होता है। हमारी एक दर्शक के रूप में और आपकी एक फ़िल्मकार के रूप में इनके प्रति इस आकर्षण की वजह क्या होती है?
देखिए, मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी बात को परिपूर्ण तरीके से समझने और परिपूर्ण तरीके से कहने के लिए उसके आसपास की बहुत सारी कहानियों को कहने की जरूरत होती है। खासकर के अगर हम ओरिएंटल ट्रेडिशन देखें, जो पूरब का स्टोरीटेलिंग ट्रेडिशन है, उसके कोई भी नैरेटिव्ज़ देखें, तो वो सारे नॉनलीनियर मल्टी नैरेटिव्ज़ हैं। कि अगर पूछें कि महाभारत कहां से शुरू होती है, तो न मैं और न आप बहुत ही छाती ठोककर कह सकते हैं कि महाभारत यहां से शुरू होती है। उसका कारण ये है कि जैसे ही मैं आपको बताना शुरू करता हूं कि भारतवर्ष की कहानी ये है, कि एक राजा भारत हुआ करता था, तो आप कहोगे नहीं उससे पहले तो कहीं सूर्य की कहानी थी और सूर्य के पुत्र की कहानी थी, और आप कहोगे नहीं उससे पहले तो कुछ साधु बात कर रहे थे, वो बात करके बता रहे थे कि वेदव्यास नाम के एक ऋषि हैं जो एक कहानी लिख रहे हैं, तो आप कहोगे नहीं उससे भी पहले एक कहानी शुरू होती है जहां पर हजारों घोड़ों की बात कही गई है और हजारों हाथियों की बात कही गई है। तो बात हो ही नहीं पाएगी। इसका कारण यह है कि किसी भी चीज़ को ठीक तरह से समझने के लिए, एक होलिस्टिक व्यू लाने के लिए, मेरा मानना ये है कि बहुत सी कहानियों को कहना जरूरी होता है। किसी भी चीज का एक पूर्ण दृष्टिकोण प्राप्त करने के लिए, पूर्ण दर्शन प्राप्त करने के लिए ये बहुत जरूरी है कि हम बहुत सारे दृष्टिकोणों से उसे देखें। और जब हम इतने सारे एंगल से चीजों को देखते हैं तब कहीं न कहीं हम नजदीक पहुंचते हैं उस ... वो हाथी और सात अंधों की बात है कहीं न कहीं। कि हम वो सात अंधे लोग हैं और एक हाथी को समझने या देखने की कोशिश कर रहे हैं। अब अगर मैं उसका कान पकड़कर कह दूं कि हाथी तो पंखे जैसा प्राणी है, या उसका पैर पकड़कर मैं कह दूं कि यार ये तो खंभे जैसा प्राणी है, उसकी पूंछ पकड़कर कह दूं कि ये तो सांप जैसा प्राणी है। तो पूरा सच मैं कभी नहीं कह पाऊंगा। पर इन सारे सत्यों को मैं जोड़ लूं एक सत्य में, और मैं कहूं कि यार कान उसके पंखे जैसे हैं, पैर उसके खंभे जैसे हैं, पूंछ उसकी सांप जैसी है... तो कहीं न कहीं मैं हाथी का एक रूप प्रकट कर पाऊंगा। जो मल्टीपल नैरेटिव स्टोरी होती हैं वो इसलिए होती हैं कि वो हमें और नजदीक ले जाती है उस हाथी के रूप के।

थीसियस का पौराणिक संदर्भ फ़िल्म बनने के बाद आया या शुरू करने से पहले इसे आधार बनाया और ऊपर एक-एक चीज जोड़नी शुरू की? या ये बीच में आया या फ़िल्म बनने के बाद इसके नाम को आपने जोड़ा और आपको लगा कि इन सभी कहानियों में ‘शिप ऑफ थीसियस’ का दर्शन फिट हो रहा है?
नहीं, मेरे लिए हमेशा दार्शनिक बात (philosophical paradigm) पहले आती है। दर्शन का जो प्रश्न होता है वो सबके बीचों-बीच होता है, वहां से हमेशा मेरे लिए कहानी शुरू होती है। जो प्रश्न है और जो फिलोसॉफिकल प्रश्न है, वहां से मेरी कहानी शुरू होती है और फिर उसके आसपास हमेशा कहानियां बनती हैं। उन प्रश्नों को अच्छी तरह पूछने का तरीका क्या है, वो कौन से रूपक या मेटाफर हैं जिनके इस्तेमाल से मैं ये कहानी अच्छी तरह बता पाऊंगा, उस हिसाब से मैं आगे की कहानियां बनाता हूं। टाइटल सबसे पहले आया था, उसके बाद सारी कहानियां आईं।

बड़ी चौंकाने वाली चीज ये है कि ज़्यूस, थीसियस और पसाइडन को लेकर हॉलीवुड में इतनी स्टोरीज यूज़ हुई हैं कमर्शियल बिग बजट में, लेकिन उनकी मिट्टी पलीद कर दी गई है। जैसे तरसेम सिंह की ‘इम्मॉर्टल्स’ जो एक-दो साल पहले आई थी, उसमें कुछ था नहीं। वहीं आपकी इस फ़िल्म में इतनी चीजें और विचार हैं कि बैचेनी होती है। ये क्या वजह है कि अरबों रुपये लगाने के बावजूद एक ढेले भर का दर्शन उनमें नहीं आ पाता और आप बिना किसी मोटे पैसे के इतने विचार डाल देते हैं? ये क्यों होता है हमारी फ़िल्ममेकिंग में?
यार मुझे लगता है कि जितना ज्यादा पैसा लगाया जाए एक फ़िल्म में, उतना डर बढ़ जाता है। उतना ही स्टूडियो वाले आ जाते हैं, दुकानदार आ जाते हैं जो बड़ी-बड़ी दुकानें खोलकर बैठे हैं। जिनका कोई गहरा रिश्ता नहीं है विचार के साथ या कला के साथ या संस्कृति के साथ। मैं एक जगह पर बोलने गया था। कोमल नाहटा मॉडरेटर थे। प्रकाश झा और सुधीर मिश्रा भी बुलाए गए थे। और वहां कुछ ऐसा ही प्रश्न खड़ा हुआ कि ऐसा क्यों होता है? और क्यों ऐसी फ़िल्में बिकती भी हैं? तो मैंने एक प्रश्न पूछा कि आप में से कितने लोग ये कहेंगे कि आपकी मां मैकडॉनल्ड से बेहतर खाना बनाती हैं, और सबके हाथ खड़े हो गए। पर मैकडॉनल्ड सबसे ज्यादा बिकता है। तो हम सभी शिकार हैं निर्मित सहमति (manufactured consent) के। वो सहमति धीरे-धीरे कई सालों में मैन्युफैक्चर की गई है। उस सहमति के पीछे कोई सत्य नहीं है, उसके पीछे कोई तथ्य नहीं है। वो धीरे-धीरे दबा-दबाकर मैन्युफैक्चर की गई है, बहुत ही बेवकूफी से चीजें बेचने के लिए। एक देश जिसके ज्यादातर लोग ब्राउन हैं, उनको गोरापन बेचने के लिए, उनको तेल वाला सड़ा हुआ खाना बेचने के लिए, उनको शक्कर वाले चीज़ बेचने के लिए जो उनकी सेहत के लिए बहुत हानिकारक हैं। वो सारी चीजें जो सामाजिक सेहत के लिए, वैचारिक सेहत के लिए, आध्यात्मिक सेहत के लिए हानिकारक हैं उन्हें बेचने के लिए सारी की सारी चीजें मैन्युफैक्चर की गईं हैं। तो जो ये अरबों रुपये लगाकर बेचते हैं, उनको वही बेचते रहना पड़ता है, जो आसान है और हानिकारक हैं। उनको पॉपकॉर्न ही बेचना है, वो गाजर का जूस या करेले का जूस नहीं बेच पाएंगे। तो एक तो ऐसे में इस सत्य के नजदीक जाना उनके लिए बहुत मुश्किल हो जाता है, बहुत हानिकारक हो जाता है और बहुत ही डरावना हो जाता है। जो हमारे जैसे लोगों के लिए बिल्कुल भी डरावना नहीं होता। हमारी तो खोज ही वही है, हम तो सिर पर कफन बांधकर निकले हैं तो हमें तो ढूंढना है। हमें तो खोजकर रहना है कि यार ये क्या है और क्यों है? मेरा मानना है कि अगर बुद्ध जिंदा होते तो शायद वो भी फ़िल्म बनाते। क्योंकि ये बहुत-बहुत पावरफुल टूल है सत्य की खोज के लिए। ये एक बहुत ही परफैक्ट प्रतिबिंब खड़ा करता है अपने जीवन का और अपने ब्रम्हांड का। ये इतना शक्तिशाली टूल है कि इसके अंदर सब आ जाता है। साहित्य आ जाता है, विचार आ जाता है, संगीत आ जाता है, रंग आ जाता है, इसके अंदर विज्ञान आ जाता है, अध्यात्म आ जाता है, सबकुछ आ जाता है, एक-एक चीज आ जाती है। इसे मैं जीवन का बहुत ही जबरदस्त शक्तिशाली टूल कह सकता हूं। अब तक जितना भी विकास (evolution) हुआ है विचार का, पिछले तीन-चार हजार साल में, अगर एक फ़िल्म उस इवोल्यूशन को एक कदम आगे नहीं ले जाती है तो उस फ़िल्म के होने का मेरे लिए कोई मतलब नहीं है। मुझे लगता है कि एक फ़िल्ममेकर का काम या मेरा काम है कम से कम कि बुद्ध से लेकर, डार्विन से लेकर, आइंस्टाइन से लेकर, डॉकिन्स तक जिन लोगों ने भी काम किया है उन सारे लोगों का काम एक कदम आगे ले जाऊं मैं।

इतनी अलग सोच वाला फ़िल्ममेकर होने के नाते आपके सामने दिक्कत ये आ जाती है कि आपके समकालीन जो बना रहे हैं, जो कमा रहे हैं, जिस तरह का रहन-सहन शुरू कर रह हैं, वही आपको भी करना पड़ता है। क्योंकि मैंने बहुत से फ़िल्ममेकर्स देखें हैं जिनकी दाढ़ी अजीब सी बढ़ी होती है लेकिन जैसे-जैसे वो आगे बढ़ते जाते हैं उनकी दाढ़ी सैटल होने लगती है, एकदम सेट करवा लेते हैं और उनके चश्मे अलग हो जाते हैं, उनकी जैकेट्स अलग हो जाती हैं, और वो, वो सारी बातें कहना छोड़ देते हैं जो उन्होंने कहनी शुरू की थी।
जी बिल्कुल...

आप कब तक संघर्ष करते रहेंगे इस तथ्य के साथ कि जिस क्षेत्र में आप हैं, उसमें पैसा तो आपको खींचेगा ही खींचेगा। कि भई एक एपिक बनानी है और फिलोसॉफिकल एपिक बनानी है, लेकिन पैसा चाहिए और वो ही दुकानदार आ जाएंगे जैसे ही आप इस बारे में सोचेंगे या बताएंगे। उसमें कैसे आप डिगेंगे नहीं, उसके लिए क्या जाब्ता किया है अब तक?
आपकी बात बिल्कुल सही है। कई बार इस पड़ाव और दोराहे पर आकर मैं रुका हूं। ये पहली बार नहीं है। मैं 19 की उम्र से लिख रहा हूं। हर बार कोशिश की है कि जो मेरा उच्चतर उद्देश्य है... और ये बात भी है कि मेरा संघर्ष आसान होता गया है। ये अपनी बात पर जिद्दी होकर अड़ने से भी आसान हुआ है। जो अब से छह-सात साल पहले का संघर्ष था मेरा, वो आज नहीं है। चीजें आसान हुईं हैं। लोगों ने देखा है मेरा काम और कहा है कि हां यार, इसे पैसे दे दो, ये कुछ न कुछ कर लेगा। आज से 10-12 साल पहले मैं टेलीविज़न के लिए लिखता था। टेलीविज़न सीरियल लिखता था। तब लिखते-लिखते ये ख़्याल आया कि जो मैं कर रहा हूं उससे कहीं न कहीं अपनी समग्र बुद्धि (collective intelligence) को हानि पहुंचा रहा हूं। पहले ही हमारी कलेक्टिव इंटेलिजेंस पर सवाल खड़े हैं। पहले ही हमारे यहां पब्लिक डिस्कोर्स नहीं है। पहले ही हमारे यहां एक सामाजिक डिबेट नहीं है, एक वार्तालाप नहीं है। मुझे कहीं न कहीं लगने लगा कि जो कर रहा हूं वो गलत कर रहा हूं। जो कलेक्टिव इंटेलिजेंस है इस मुल्क की, उसे मैं छिछला कर रहा हूं, बेइज्जत कर रहा हूं और उस निर्मित सहमति को बढ़ाने में योगदान दे रहा हूं। तो मैंने वो काम छोड़ दिया। तब से मैंने नहीं किया है वो काम वापस। मैंने 19 की उम्र में लास्ट किया था, फिर कई ऑफर आए लेकिन कभी नहीं किया वापस। उसके बाद ऐसे वक्त भी आए जब बहुत ही गरीबी रही और लगा कि इससे अच्छा तो कर लेता। पर कहीं न कहीं वो फैसला ले पाया हूं और खुश होकर ले पाया हूं। आज से सात-आठ साल पहले जब मैंने टेलीविज़न छोड़ दिया था और कहा था कि अब कभी नहीं करूंगा टेलीविज़न तो मेरे आसपास दोस्त थे जो कर रहे थे। टेलीविज़न, कमर्शियल फ़िल्में कर रहे थे, ऐसी सभी चीजें कर रहे थे जिनसे मुझे सिर्फ सिरदर्दी ही नहीं थी बल्कि दुख भी था। मैं अपने सिद्धांतों की वजह से नहीं कर पा रहा था। जो सिर्फ मेरे सिद्धांत थे, उसमें कोई बहुत बड़ी महान बात नहीं कह रहा हूं। ये बस मेरे लिए जरूरी था।

और मैंने कहीं न कहीं अपनी बोली लगाई कि यार मेरे सामने जिंदगी के ये 10 साल हैं जिनमें मैं खोज कर पाऊंगा, विचार कर पाऊंगा, एक्सप्लोर कर पाऊंगा, इन्वेंट कर पाऊंगा और अपने आप को एनलाइटन (प्रकाशमान) कर पाऊंगा, मैं घूम पाऊंगा, लोगों से मिल पाऊंगा, वो सब कर पाऊंगा जो मुझे करना है। मैं बेहतर कलाकार बन पाऊंगा, बेहतर इंसान बन पाऊंगा, बेहतर लोगों से मिल पाऊंगा। एक तरफ ये है और दूसरी तरफ ये है कि वो सब काम करता रहूंगा जो बाकी सब कर रहे हैं और अंत में मैं कुछ पैसे कमा लूंगा। तो मैंने जिदंगी के इन दस सालों की बोली लगाई दिमाग में। मैंने कहा क्या होगी इनकी बोली। पांच करोड़, सात करोड़, दस करोड़। सोचा, यार पचास करोड़ भी इसके लिए काफी नहीं हैं। बहुत ही हल्का लगा वो पचास करोड़। तो उसे मैं बहुत फायदा समझता हूं, खुशकिस्मती समझता हूं अपने लिए कि मैं वो ऐसा कर पाया। जो नहीं कर पाते हैं मैं उन पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं कर सकता हूं क्योंकि उनमें बहुत सारे तो मेरे दोस्त ही हैं जो नहीं कर पाए। नहीं ले पाए वो फैसला। मेरी खुशकिस्मती थी कि ले पाया। कि मैं उस संघर्ष में से निकल आया। अभी जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो मेरे पास वो दस साल का खजाना है जिसका हर एक दिन मैं जिया हूं। जिसके हर एक दिन में मैंने संशोधन किया है, प्रयास किया है। मैं घूमा हूं, बहुत ही अद्भुत लोगों के साथ उठा हूं बैठा हूं, मैंने चीजें इन्वेंट की हैं, मैं चीजें समझ पाया हूं। ये तो बहुत ही बड़ा खजाना है जिसके सामने आज की तारीख में मेरे पास पांच-सात करोड़ ज्यादा कम होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। और आज की तारीख में मेरे पास सबकुछ है। मेरे पास बढ़िया सा घर है, गाड़ी है, सब चीजें लोगों ने दे दी हैं। कहीं न कहीं वो फकीरी वाली पैदाइश और परवरिश है। मैं 14 साल की उम्र तक एक झोंपड़े में रहता था। उसकी वजह से कहीं न कहीं वो अपरिग्रह रहा है। चीजों को लेकर एक फकीरी रही है। खुशनसीब हूं कि वो मुझे मिली है। मैं चीजों के साथ आसानी से अटैच नहीं होता हूं। मेरे लिए चीजों को छोड़ना बहुत ही आसान होता है।

मुझे डर है कि कहीं इनटू द वाइल्ड (Into the Wild, 2007) वाले लड़के (क्रिस्टोफर) की तरह आप निकल न जाएं कभी और मिले न आपकी लाश कभी...
हा हा हा... नहीं यार मैं काम करना चाहता हूं, बहुत काम करना चाहता हूं। मैं अपना रोल प्रासंगिक बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि थोड़ी चीजें बदल पाऊं। मैं चाहता हूं कि थोड़ी सी खूबसूरती ला पाऊं, थोड़ा सा विचार ला पाऊं। आसपास में बहुत गंदगी है। मैं चाहता हूं कि थोड़ा सा उसमें बदलाव ला पाऊं।

फ़िल्ममेकिंग के अरविंद केजरीवाल बनना चाहते हैं आप? कोशिश कर रहे हैं?
बिल्कुल, बिल्कुल।

कितना हो पाएगा?
केजरीवाल से मैं सहमत हूं यार। मैं चाहता हूं कि ऐसे चार-पांच लोग खड़े हो जाएं तो मजा आ जाएगा।

हालांकि सोशल मीडिया में लोग उनकी टांग खींचते हैं...
मैं भी बीस चीजें ढूंढ सकता हूं जिनसे असहमत होऊंगा। ठीक है यार, डिसअग्री करेंगे हम। असहमत होने के लिए वो प्लैटफॉर्म तो बनाने दो उसे। अभी तो प्लैटफॉर्म ही नहीं है, हम किससे असहमत हों। मनमोहन सिंह से क्या असहमत होंगे। उनका तो एग्रीमेंट ही डिसअग्रीमेंट है। नरेंद्र मोदी के साथ क्या डिसअग्रीमेंट करेंगे हम लोग, है न। केजरीवाल से साथ असहमत भी हो सकते हैं हम लोग, ठीक है। हम असहमत होकर भी साथ एक प्लैटफॉर्म बना सकते हैं। जिसमें अलग-अलग विचार खड़े करके एक प्लैटफॉर्म तो बनाए वो। तो टांग खींचना तो बहुत ही आसान है। चार कमियां हैं तो बहुत ही आसान हैं देख पाना। मुझे लगता है कि अभी बहुत ही ज्यादा जरूरत है उन चीजों की। खासकर के प्रशांत भूषण। प्रशांत भूषण पर मुझे पूरा भरोसा है।

अच्छा, लौटते हैं ‘शिप ऑफ थीसियस’ पर। कब शुरू की? कितना वक्त लग? और क्या मुश्किलें पेश आईं?
2008 से शुरुआत हुई। उस साल कुछ दूसरे कॉन्सेप्ट भी थे जो मैं बनाना चाहता था। 2009 में इसकी राइटिंग शुरू हुई। 2010 में शूट हुई। 2011 में पोस्ट प्रॉडक्शन हुआ जो अगले साल तक चलता रहा। 2012 में टोरंटो फ़िल्म फेस्टिवल में इसका प्रीमियर हुआ। बनाने में वही प्रॉब्लम आए तो हर इंडि (Independent) फ़िल्ममेकर को आते हैं और शायद थोड़े ज्यादा, क्योंकि मुश्किल फ़िल्म थी। सिर्फ हिंदुस्तानी ऑडियंस के लिए ही नहीं पर बाहर की ऑडियंस के लिए भी मुश्किल ही है, इतनी आसान फ़िल्म नहीं है। ये फ़िल्म आपकी हिस्सेदारी चाहती है, आपको बिल्कुल पैसिवली पॉपकॉर्न नहीं खिलाती है। आपको सीधे बैठकर ढाई घंटे इसमें हिस्सा लेना होता है, मेडिटेट करना पड़ता है। एक किस्म से योग है। तो जाहिर तौर पर मुश्किलें थीं। सबसे पहली तो यही थी कि इसके लिए पैसे कौन देगा। फिर कहूंगा, मैं बहुत ही प्रिविलेज्ड हूं। दुनिया के चंद आर्ट फ़िल्ममेकर इतने खुशकिस्मत होंगे जितना मैं हूं। मुझे बहुत ही आसानी से इतने अच्छे पार्टनर मिल गए, सोहम शाह जैसा पार्टनर बहुत आसानी से मिल गया। कहीं न कहीं हम दोनों एक-दूसरे को तुरंत समझ गए और तय किया कि जिंदगी भर साथ में फ़िल्में बनाएंगे। सोहम का काम जिसने भी देखा है मेरी फ़िल्म में, उसके साथ काम करना चाहता है। दीपा मेहता ले लो, अशीम अहलुवालिया (Miss Lovely) ले लो, सब ने मैसेज किया... अनिल कपूर ले लो, हर किसी ने कहा कि सोहम बहुत ही कमाल का एक्टर है। आमिर ने तारीफ की सोहम की। इससे उसके लिए फ़िल्में बना पाना और उनमें काम कर पाना आसान होगा। उसकी और भी फ़िल्में आ रही हैं। ‘तुम्बाड’ में भी उसने मुख्य भूमिका निभाई है, राही की फ़िल्म में। मेरे लिए आसान यह हुआ कि सोहम जैसा कमाल का पार्टनर मिल गया इसलिए मैं बहुत चीजों से बच गया। बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउस के बच गया, बड़े प्रोडक्शन हाउस से बच गया, जो शायद इस ‘शिप ऑफ थिसीयस’ को उस वक्त नहीं समझ पाते। अब ये फ़िल्म बन गई है तो वो सब समझ पा रहे हैं, सब खुश हैं और आनंद लेकर देख रहे हैं। अच्छी बातें कह रहे हैं फ़िल्म के बारे में। नहीं बनी होती तो शायद बहुत कम लोग जान पाते कि ये कैसी फ़िल्म बनती और क्या बनती। मुश्किल यही थी, क्योंकि बहुत ही नई भाषा बनानी थी फ़िल्म की, वो सिर्फ हिंदुस्तान की ही नहीं, अगर आप वर्ल्ड सिनेमा को भी देख लो तो उनके लिए भी नई भाषा है। एक इन्वेंशन के साथ जो मुश्किलें आती हैं, वही यहां भी थीं।

Anand & DoP Pankaj. Photo: Shriti Banerjee
फ़िल्म में जितने भी विजुअल हैं उन्हें पन्नों पर लिखने के बाद व्यवस्थित तौर पर शूट करना शुरू किया था, या चार-पांच साल में अलग-अलग मौकों पर उन्हें आपने दिमाग में सोच लिया था?
डीओपी (director of photography) पंकज कुमार बहुत ही करीब से जुड़ा हुआ है मेरे साथ। हम हमेशा साथ में सोचते हैं, बहुत सारा वक्त बिताते हैं, विचारों को एक-दूसरे से बांटते हैं, एक-दूसरे को चैलेंज करते हैं, सवाल करते हैं, तर्क करते हैं, फ़िल्में डिकंस्ट्रक्ट करते हैं, समझते हैं। साथ में ये हमारी बहुत ही लंबी यात्रा रही है। मेरी शॉर्ट फ़िल्म ‘कंटिन्यूअम’ भी पंकज ने शूट की थी। ‘कंटिन्यूअम’ के बाद से ही हम विचारों और कहानियों को बांटते थे। बहुत ही शुरुआती स्तर पर यह होता है कि जब मैं स्क्रिप्ट लिखता हूं, उसमें सारे के सारे विजुअल्स समाहित होते हैं। तो जो विजुअल लैंग्वेज है स्क्रिप्ट की, वह लिखने के दौरान आधी तो तैयार हो गई होती है, क्योंकि उसे डीओपी के साथ डिस्कस करके ही लिखता हूं। उसके बाद हम लोग रिहर्सल्स करते हैं, एक्टर्स कास्ट होना शुरू होते हैं, लोकेशन ढूंढना शुरू करते हैं... तो बाकी जो विजुअल लैंग्वेज है वो बनना शुरू हो जाती है।

‘शिप ऑफ थीसियस’ में आप जिस प्लेन पर जाकर बात कर रहे हैं चाहे फोटोग्रफिक लाइट हो, रिएलिटी का एग्जिस्टेंस हो, मृत्यु हो... वो धरातल आपकी सोच में कब आया, क्यों आया और कैसे आया?
ये बहुत ही लंबी यात्रा रही है। बचपन से शुरू हो गई थी। सेक्युलर परिवार में पैदा हुआ। काफी सादे लोअर-वर्किंग-मिडिल क्लास मूल्य और विचार थे। 12-13 की उम्र में वास्ता धर्म से, ईश्वर से हो गया था। बहुत सारे प्रश्न उठ रहे थे, बहुत सारे विचार क्लियर हो रहे थे। जैसे, पता चल गया था कि ये जो पूरी माइथोलॉजी है, उसके पीछे इंसानों के डर हैं। उन डरों ने भगवान को जन्म दिया है। जिन विचारों या डरों ने इस सारे कॉन्सेप्ट को जन्म दिया है। बहुत शुरुआती उम्र में मैंने सोचना शुरू कर दिया था कि जो ट्रांससेंडेंस है, अमरत्व के जितने विचार हैं, वो उस डर की पैदाइश हैं। उस मृत्यु के भय की पैदाइश है जो मानव, ईश्वर, नरक, स्वर्ग, पुनर्जन्म... जैसे विचारों को जन्म देता है। क्योंकि मृत्यु का जो भय है वो बहुत ही भयानक है। 13-14 की उम्र से ही मृत्यु के भय को मैंने सींगों से पकड़ा है। उससे टकराया हूं। अमरत्व के कॉन्सेप्ट से बहुत जुड़ा रहा हूं। मैं एक फ़िल्म बना रहा हूं इस विषय पर जिसका वर्किंग टाइटल है, ‘अ बैटर प्लेस’। उसका केंद्रीय विचार यही है कि पिछली 13,000 साल की सिविलाइजेशन में, सभ्यता में, एक झूठ जो बार-बार बोला गया है, दोहराया गया, जिस झूठ के लिए लाखों लोगों की बलि दी गई है, वो झूठ है ‘अ बैटर प्लेस’। कि इससे ज्यादा बेहतर एक जगह कहीं और है। उससे बड़ा कोई झूठ नहीं बोला गया है। और कहीं न कहीं ये सारे प्रश्न मेरे मन में उठने लगे थे। यात्रा तब से शुरू हो गई थी। 16-17 साल की उम्र में मैंने हिंदुस्तान के बाहर के कुछ फिलॉसफर पढ़ लिए थे और एक स्पिरिचुअल शॉपिंग पर निकल पड़ा था, देश भर। अलग-अलग जगहों पर जाकर रहा था। कुछ आश्रमों में रहा था, कुछ लोगों से मिला था। इस वजह से यात्रा तो बहुत पहले शुरू हो गई थी। कॉलेज छोड़ दिया क्योंकि कॉलेज एजुकेशन बहुत ही असंतुष्टिदायक थी। यह तय किया कि मैं अपनी एजुकेशन खुद डिजाइन करूंगा। इस वजह से बहुत जल्दी अपनी एजुकेशन डिजाइन कर पाया। जो सारी चीजें सीखना चाहता था सीख पाया। ज्यादा ध्यान दिया मैंने इवोल्यूशनरी साइकॉलजी पर, फिलॉसफी पर। ये सोच मेरे पहले के नाटक बने, मेरी पहले की शॉर्ट फ़िल्में बनी और अभी ‘शिप ऑफ थीसियस’।

आप कभी आश्रमों में रहे, लोगों से बात की... तो एक बहुत बारीक रेखा है, धार्मिक होने में, धर्म का ज्ञान ढूंढने में और ऐसा करते हुए उसके साथ रहने में... जैसे आप आश्रम में रह भी रहे हैं लेकिन मूर्ति पूजा हुई या लोगों को बरगलाने वाला धर्म हुआ या भगवान का अस्तित्व हुआ, इन सबका विरोध भी कर रहे हैं या उसी जगह रहकर उस चीज को भीतर से जानने की कोशिश भी कर रहे हैं। तो उस दौर में जब आप रह रहे थे या लोगों से मिल कर या उनका हिस्सा बनकर उनसे मिल रहे थे तो ऐसा नहीं था कि यार कुछ करप्ट तो नहीं हो जाएगा थोड़ा सा मेरे भीतर या मुझे वो थोड़ा सा उस तरफ खींच लेंगे या कहीं भिड़ जाऊंगा उनसे मैं, गुस्सा हो जाऊंगा...?
मेरे लिए समझना और चीजों को बहुत ही शैक्षणिक तरीके से तोड़ना, उनके सत्य के पीछे के सत्य के पीछे के सत्य तक पहुंचना... बहुत ही जरूरी था। मैं जब किसी को भी पढ़ना शुरू करता तो मानकर चलता था कि सत्य यहां से मिलेगा मुझे। मैंने जब पहली बार जे. कृष्णमूर्ति को पढ़ा तो ये सोचकर बिल्कुल नहीं पढ़ा कि यार इस सत्य में मुझे बहुत सारी खामियां मिलेंगी, या इस सत्य में मुझे बहुत सारी धोखाधड़ी मिलेगी। मैंने ये सोचकर पढ़ा कि यार शायद इस बंदे को कुछ पता था और शायद इससे मुझे कुछ पता चल जाएगा। जब भी मैं कुछ पढ़ाई करता था या लिखाई करता था या सोचता था या लोगों से मिलता था तो बहुत ही समर्पण के साथ और बहुत ही ईमानदारी के साथ और बहुत ही विनम्र जिज्ञासा के साथ मिलता था। और उस प्रोसेस में प्योरिटी भी रहती है क्योंकि मुझे अंततः जब-जब लगा कि इसमें ये-ये खामियां हैं, ये गलतियां हैं उनके प्रति आत्मानुभूति (empathy) रही है। जो मेरी फ़िल्मों में भी दिखेगी आपको। उन सारे लोगों के लिए आत्मानुभूति रही है जिन्होंने सत्य खोजने की कोशिश की है और उसके बाद भले ही फेल हुए हैं। मेरी नजरों में वो फेल हुए हैं लेकिन उनके लिए बहुत आत्मानुभूति है। इस वजह से कि यार उसने कोशिश की और उस वजह से वो दो कदम आगे बढ़ पाया। मैं एक इकोनॉमिस्ट को पढ़ रहा था, मैट रिडली। वह एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स को गालियां दे रहा था, सबको गालियां दे रहा था। और एक बिंदु पर आकर उसने बहुत ही इंट्रेस्टिंग बात कही। उसने कहा कि “मैं ये दावा नहीं कर रहा हूं कि आई एम स्मार्टर देन एडम स्मिथ, पर एडम स्मिथ के ऊपर मुझे एक बेनिफिट ये है कि मैंने एडम स्मिथ को पढ़ा है। एडम स्मिथ के पास वो लाभ नहीं था कि उन्होंने एडम स्मिथ को पढ़ा हुआ था”। तो मेरे पास वो बेनिफिट है, बुद्ध के ऊपर, महावीर के ऊपर, आइंस्टाइन के ऊपर, डार्विन के ऊपर, डॉकिन्स के ऊपर... कि मैंने इन लोगों को पढ़ा है। तो अभी मुझे पहिया बनाने की जरूरत नहीं है, अब मुझे साइकिल बनाने की जरूरत नहीं है, मुझे मर्सिडीज बनाने की जरूरत नहीं है, मुझे जेट बनाने की जरूरत नहीं है। ये सब बन चुका है। इनके बाद जो आएगा उसे बनाने में मैं अपना पूरा प्रयास लगा सकता हूं।

क्या जो आपने कहा है या जो विचार बताए हैं, फ़िल्म के संदर्भ में उनको जानने के लिए हमको भी उन्हीं किताबों और विचारों में डूबना होगा जिनमें आप डूबे कभी?
मुझे लगता है उन किताबों में डूबे होंगे तो फ़िल्म के और पहलू आपको दिख पाएंगे। अगर नहीं भी डूबे होंगे तो कोई बात नहीं। जैसे, अभी जो लोग देख रहे हैं। लंदन में सदरलैंड ज्यूरी ने स्पेशल अवॉर्ड दिया, टोकयो में बेस्ट आर्टिस्टिक फ़िल्म का अवॉर्ड दिया, मुंबई में टेक्निकल एक्सिलेंस का अवॉर्ड दिया, दुबई में बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड दिया। पूरी दुनिया में फ़िल्म को पसंद किया गया है। रिव्यूअर्स ने पूरी दुनिया में अच्छी रेटिंग दी है। दर्शकों ने आकर मुझे गले लगाया है। मुझे लगता है कि ये एक आसान फ़िल्म भी है और एक मुश्किल फ़िल्म भी है। आपकी जितनी यात्रा रही होगी, आप उतना गहराई में कनेक्ट कर पाओगे फ़िल्म के साथ। और आपकी वह यात्रा नहीं भी शुरू हुई होगी तो मेरा मानना ऐसा है, इसमें मैं शायद गलत भी हो सकता हूं हालांकि कहीं न कहीं मेरा ये मानना मुझे भी सही लगने लगा है, कि ये फ़िल्म उस यात्रा की वो शुरुआत हो सकती है।

ऐसे अनूठे धरातल वाली कौन सी फ़िल्में और फ़िल्मकार आपको बहुत पसंद हैं?
बेला तार (Béla Tarr) हैं, निश्चित तौर पर। रॉय एंडरसन (Roy Andersson) स्वीडन के फ़िल्ममेकर हैं जो इस सूची में पक्के तौर पर हैं। उनकी ‘सॉन्ग्स फ्रॉम द सैंकेड फ्लोर’ (Songs from the Second Floor, 2000) बहुत ही प्रचंड अद्भुत फ़िल्म है। माइकल हेनिके (Michael Haneke) जाहिर तौर पर, खासकर के उनकी ‘द सेवंथ कॉन्टिनेंट’ (The Seventh Continent, 1989) जो बहुत ही नजदीक है मेरे सवालों के। वह और उनकी ‘द वाइट रिबन’ (The White Ribbon, 2009) मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्मों में से हैं। बेला तार की जो ‘द टुरिन हॉर्स’ (The Turin Horse, 2011) थी वो मेरे ख्याल से प्रचंड अद्भुत फ़िल्म थी। और जो साउंड डिजाइनर हैं ‘द टुरिन हॉर्स’ के गाबोर इरदेई (Gábor ifj. Erdélyi), वो ही मेरी फ़िल्म के भी साउंड डिजाइनर हैं। गाबोर का ऐसा कहना है, अगर आप गाबोर से बात करेंगे तो वो आपको बता पाएंगे क्यों, कि “द टुरीन हॉर्स एक प्रश्न है और शिप ऑफ थिसीयस उसका जवाब है”। मेरे लिए ये बहुत बड़ी तारीफ है। इसे सीधे-सीधे स्वीकार कर लूं तो मेरा बहुत घमंडी होना होगा। पता नहीं स्वीकार करना चाहिए कि नहीं। पर ऑब्जेक्टिवली बताऊं तो कहीं न कहीं सच भी है कि ‘शिप ऑफ थिसीयस’ में ऐसे बहुत से जवाब हैं जिनके प्रश्न ‘द टुरिन हॉर्स’ में होते हैं। किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) का सारा ही काम मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मेरी फेवरेट किश्लोवस्की फ़िल्म ‘अ शॉर्ट फ़िल्म अबाउट किलिंग’ (A Short Film About Killing,1988) है। उसे जितना छीलो उतनी ही परतें निकलती हैं। किश्लोवस्की की ह्यूमैनिटी, उसकी ऑब्जर्वेशन, उसका छोटे-छोटे किस्सों में अध्यात्म बुनना, मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा है। तारकोस्की (Andrei Tarkovsky) के वातावरण में अध्यात्म ढूंढना मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा है। बर्गमैन (Ingmar Bergman) की कहानियां बहुत महत्वपूर्ण रही हैं। बर्गमैन अपने पात्रों को जैसे ट्रीट करते हैं, उनके भीतर से जैसे संवाद आते हैं, उसके साथ मुझे बहुत दिक्कत है, क्योंकि ऐसा करते हुए वो बहुत ही आसान तरीका ढूंढते हैं चीजों को बताने का। मुझे पसंद नहीं जब चीजों को इतनी आसानी से बता दिया जाए। पर उन्होंने जैसे विषयों को लिया है, जिस तरह से मुश्किलों को पर्सोनिफाइ किया है, जिस तरह से किस्से सुनाए हैं, वो मुझे बहुत पसंद हैं। बहुत कंटेंपरेरी फ़िल्ममेकर्स में लार्ज वॉन् त्रियेर (Lars von Trier) की फ़िल्में मुझे हिट एंड मिस होती हैं जो कई बार बहुत अंदर तक पहुंचती है और कई बार बाहर से ही टकराकर चली जाती हैं। उनकी ‘डॉगविल’ (Dogville, 2003) मुझे बहुत पसंद है जो बहुत ही आध्यात्मिक तौर पर काम करती है मेरे लिए।

कोरियन फ़िल्ममेकर्स में...
यार कोरियन फ़िल्ममेकर्स मुझे इतने ज्यादा पसंद नहीं हैं सच बताऊं तो। वो अच्छा बैलेंस ले आते हैं, कमर्शियल फ़िल्मों को थोड़ा और ठीक बना देते हैं ताकि शर्मिंदा करने वाला न हो, ऑफेंडिंग न हो, पर इनका कोई बहुत फैन नहीं हूं। न किम कि-डूक (Ki-duk Kim) का इतना बड़ा फैन हूं, न ही जॉन हू बॉन्ग (Bong Joon-ho) का फैन कह सकता हूं। उनकी वैसे दो-तीन चीजें अच्छी दिखीं है, पर ऐसी एक भी फ़िल्म नहीं है जो मुझे पूरी तरह से पसंद हो। ‘स्प्रिंग समर...’ (Spring, Summer, Fall, Winter... and Spring, 2003) के कुछ-कुछ हिस्से पसंद हैं पर वो पूरी तरह से पसंद नहीं है मुझे। क्योंकि बनाने की बहुत ही कोशिश होती है उसमें। जॉन हू बॉन्ग का जो ह्यूमर है, जिस तरह से वो विडंबना ढूंढता है ‘मेमोरीज ऑफ मर्डर’ (Memories of Murder, 2003) में, वो विडंबनाएं दरअसल पसंद हैं मुझे, लेकिन वो विडंबना तो आज हर कोई कर ही रहा है। अभी मैंने किम कि-डूक की नई फ़िल्म ‘पिएटा’ (Pietà) देखी। ठीक लगी, तो दो-चार आइडियाज उसमें अच्छे थे। उसमें जो लैंडस्केप रचा था वो ठीक था, लेकिन इतनी गज़ब नहीं थी।

इंडिपेंडेंट सिनेमा पर बीते एक-दो साल के जिन नए फ़िल्ममेकर्स से बात हुई है, उन्हें निराशा है कि कोई सपोर्ट नहीं है, बन जाए तो वितरण में हजार झंझट, लोग लेते नहीं हैं, फिर उन्हें किन सिनेमाघरों में लगाएं क्योंकि अलग से हॉल नहीं हैं। स्वतंत्र सिनेमा को भारत में प्रोत्साहित करने की क्या कोशिश हो सकती है? कैसे मदद कर सकते हैं, क्या ढांचा बना सकते हैं?
मैं बहुत आशावादी हूं तो निराशा के साथ खुद को ज्यादा जोड़कर भी नहीं देखता हूं। ये तो जाहिर है, कि हां भई मुश्किल है, पर वो इतनी बड़ी निराशा नहीं है। वो इतना भी मुश्किल नहीं है कि सिर्फ उसके ही बारे में बात की जाए। मुझे थोड़ा सा गुस्सा आने लगता है जब इंडि फ़िल्ममेकर्स सिर्फ यही बात करते हैं। पैसा नहीं है, डिस्ट्रीब्यूटर्स नहीं हैं, ये नहीं है... नहीं है तो फ़िल्में भी कहां आती हैं। फ़िल्में भी तो नहीं थीं अब तक। ये तो पहली बार है कि दो-चार फ़िल्में आई हैं। बीस-चालीस फ़िल्में आएंगी तब हम बात कर पाएंगे इस बारे में। दर्शकों को हमें बताना पड़ेगा, घर-घर जाकर। मेरा ये मानना है कि बहुत प्रचंड ऑडियंस है इंडिया में जो तरस गई है ऐसा सिनेमा देखने के लिए जो उनके लिए प्रासंगिक है, उनके लिए अच्छा है। मैंने तो आज तक जितने भी लोगों से बात की है, उनकी ये प्रतिक्रिया रही है कि यार हमें तो ऐसी फ़िल्म देखनी है। जब प्रोड्यूसर और वितरक यह कहते हैं कि “ये उन लोगों को समझ में नहीं आएगी” तो ये पता नहीं किन लोगों की बात करते हैं। किन लोगों को समझ में नहीं आएगी? क्या वो मानते हैं कि उनको समझ में नहीं आएगी? और क्या वो ऐसा मानते हैं कि वो पूरे हिंदुस्तान की जनता से ज्यादा बुद्धिमान हैं, ज्यादा ज्ञानी हैं। ये जो पूरा चक्कर चला हुआ है न कि यार समझ में नहीं आएगा, लोग स्वीकार नहीं करेंगे.. इस बात को मैं थोड़ा चेतावनी के साथ देखता हूं। लोग तो देखना चाहते हैं, निश्चित तौर पर देखना चाहते हैं, अब ये हमारे सिर पर है कि लोगों तक कैसे पहुंचाएं। इसके लिए हम नहीं निर्भर रह सकते उन लोगों पर जो... अब जैसे हमने आईफोन अगर बनाया है तो उसे उन जगहों पर तो नहीं लेकर जा सकते न जहां एमटीएनएल के फोन बिकते हैं, उसके लिए तो एक नई चेन की बनानी पड़ेगी, उसके लिए एक नए तरीके से लोगों तक पहुंचना पड़ेगा। अगर एक नए तरीके का प्रोडक्ट बन रहा है तो उसका वितरण भी नए तरीके से करने पड़ेगा। वो ढूंढना पड़ेगा। हम सबको मेहनत करके वो बनाना पड़ेगा।

आपने शुरू में कहा कि अपनी एजुकेशन को खुद डिजाइन किया। वो डिजाइनिंग कैसी रही? कितना वक्त लग गया फ़िल्मों से जुड़ी सारी तपस्या करने में?
कुल मिलाकर उतना ही टाइम लगा जितना एक सर्जन को लगता है, या किसी आर्किटेक्ट को तैयार होने में लगता है। जिंदगी के 10 साल लगते हैं मुझे लगता है तकरीबन, जिसमें आपको तपस्या करनी पड़ती है, अभ्यास करना पड़ता है। मेरी जिदंगी में भी संभवतः वह 10 साल का अभ्यास रहा है। 16 की उम्र में मैंने निश्चय किया कि फ़िल्में बनानी हैं जिंदगी में। 19 की उम्र में कुछ नाटक बनाए और कुछ टेलीविज़न सीरीज लिखी। 20-21 साल की उम्र में कुछ और पढ़ाई की। 22 की उम्र में पहली शॉर्ट फ़िल्म बनाई। उसके साथ ही दुनिया घूम पाया। 26 की उम्र में दूसरी शॉर्ट फ़िल्म बनाई। यहां आते-आते थोड़ी दुनिया और घूम पाया, देख पाया। इस दौरान सिर्फ फ़िल्मों का ही नहीं हर चीज का अभ्यास रहा। जैसे आपने मल्टीपल नैरेटिव की बात कही, तो एक मल्टी फेसेटेड एजुकेशन भी रही। मेरा ये मानना है कि एक फ़िल्ममेकर की बहुत सारी-बहुत सारी स्पेशलाइजेशन होनी चाहिए। सोशयोलॉजी में, साइकोलॉजी में, एन्थ्रोपोलॉजी में, इकोनॉमिक्स में, पॉलिटिक्स में... इन सभी चीजों में उसका बहुत ही गहरा अभ्यास होना चाहिए। उसके अलावा जाहिर तौर पर क्राफ्टमैनशिप में। सिनेमैटोग्राफी में, फोटोग्राफी में, आर्ट में, पेंटिंग में, थियेटर में, इन सारी चीजों में एक फ़िल्ममेकर का अभ्यास बहुत पक्का होना चाहिए। मेरा वो 10-12 साल का अभ्यास रहा जिसमें एक-एक करके चीजें जुटती गईं। लगता है कि थोड़ी सी तैयारी हो रखी है जिससे मैं फ़िल्में बनाऊंगा।

आपने इतने विषयों का नाम लिया, क्या 12 साल पर्याप्त थे क्राफ्टमैनशिप और उन तमाम विषयों के लिए? क्योंकि हरेक की इतनी ज्यादा ब्रांचेज खुलती जाती हैं कि...
जैसे-जैसे मैं बनाता गया, तैयार होता गया। जैसे, मेरी पहली फ़िल्म देखोगे तो पाओगे कि मैं बहुत सारी चीजों के लिए तैयार नहीं था। मैंने 22 साल की उम्र में बनाई ‘राइट हियर राइट नाओ’। उसमें फिर भी आपको लगेगा कि थोड़ा कच्चापन है। एक यंग आदमी वाला कच्चापन है। मैं बस उसे ही पक्का करता गया।

आनंद गांधी को जिंदगी में आगे कैसे विषयों पर फ़िल्में बनानी हैं?
ऐसे ही सब्जेक्ट जो अब तक एक्सप्लोर किए हैं। ट्रांसेंडेंस (अमरत्व) के बारे में, उन कॉन्सेप्ट्स के बारे में जो मेरे लिए बहुत ही प्रासंगिक हैं, मृत्यु के बारे में, रोगों के बारे में, उम्र के बारे में, बढ़ती उम्र के बारे में, संस्थानों के बारे में, शासनों और सत्ताओं के बारे में। मैं बहुत ही उत्सुक हूं उन विषयों को लेकर जिन पर अभी स्क्रिप्ट्स लिख रहा हूं। उनमें एक है कि क्या हम एक ग्रैंड यूनफाइड थ्योरी (grand unified theory) कभी ढूंढ पाएंगे? बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसका जवाब ढूंढना चाहता हूं। इस बारे में बहुत आकर्षित हूं। इल्यूजन (भ्रम/भ्रांतियां) कैसे बनाए गए, उनसे बहुत प्रभावित हूं। मैं अपने आप को विज्ञान और फिलॉसफी दोनों का स्टूडेंट मानता हूं तो जो भी विषय मुझे ये दोनों और भी पढ़ा पाएं और ज्यादा समझा पाएं, विज्ञान के दृष्टिकोण से चीजों को, उन सारे सब्जेक्ट्स को मैं ज्यादा एक्सप्लोर करना चाहूंगा।

दीर्घकाल में बॉलीवुड होना चाहेंगे या हिंदी सिनेमा ही कहलाना पसंद करेंगे खुद को?
अपने आप को न मैं भाषा में सीमित कर पाता हूं, न बजट में सीमित कर पाता हूं। मैं खुद को बस सब्जेक्ट्स में सीमित कर पाता हूं कि ये सारे विषय हैं जिनको लेकर फ़िल्में बनाऊंगा। अभी मैं दो-तीन स्क्रिप्ट डिवेलप कर रहा हूं जिनके बजट 20 से 40 करोड़ के होंगे। तो जब ये फ़िल्में बनेंगी तो निश्चित तौर पर न हिंदी होगी न इंडि होगी। ये वैश्विक और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्में होंगी जिनमें इंग्लिश भाषा होगी, यूरोपियन भाषाएं होंगी, हिंदी होगी। जैसे ‘शिप ऑफ थिसीयस’ है। वो 40 प्रतिशत हिंदी है, 40 प्रतिशत अंग्रेजी है और बाकी 20 प्रतिशत अरबी और स्वीडिश हैं। मैं हमेशा मानता हूं कि जो भी किरदार बना रहा हूं उसे अपनी भाषा में बोलना चाहिए। मुझे हमेशा से खटका है कि आप एक तमिल कैरेक्टर दिखाते हो जो अपने ही एक्सेंट में हिंदी में बात करता है। ऐसा मैं कभी नहीं करूंगा। आपने ‘राइट हियर राइट नाओ’ देखी है, मेरी पहली शॉर्ट फ़िल्म, मैं तब से ही यह करता आया हूं और वो ही मैं जिंदगी भर करता रहूंगा कि जहां का पात्र होगा वो वहीं की भाषा बोलेगा। अगर स्वीडन का पात्र होगा तो वो स्वीडिश में बात करेगा, अगर बिहार का पात्र है तो वो छोटा नागपुरी में बात करेगा या भोजपुरी में बात करेगा।

आपने वैसे बता दिया है कि 16 की उम्र में फ़िल्में बनाना तय किया, थोड़ा सा उस साल के बारे में बताएं कि ऐसा क्या था कि कह दिया फ़िल्में ही बनानी हैं? क्योंकि वो एक मुश्किल टाइम होता है तय करना।
बचपन से ही तय कर लिया था कहीं न कहीं। बचपन से दो-चार चीजें तय की थीं। 4-5 साल की उम्र में यह कर लिया था कि जोकर बनना है। ‘मेरा नाम जोकर’ देखकर तय किया था कि जोकर बनना है। फिर ये तय किया था कि वैज्ञानिक बनना है। बहुत ही समर्पण के साथ एक वैज्ञानिक बनना चाहता था। दिन-रात उसी के सपने देखता था और हर वक्त वैज्ञानिक बनने की ही बातें करता था। और बहुत समर्पण के साथ जादूगर बनना था। उसके बाद बहुत साल तक स्कूल टाइम में एक्टर बनने का समर्पण था। ये सब एक साथ था। वैज्ञानिक भी बनना था, एक्टर भी बनना था, जोकर भी बनना था, जादूगर भी बनना था, फिलॉसफर भी बनना था, कलाकार भी बनना था। जब 14-15 का हुआ तो समझ में आने लगा कि यार फ़िल्म एक जगह है जहां पर आप वैज्ञानिक, फिलॉसफर, कलाकार, लेखक, सबकुछ बन सकते हो। तो 16 की उम्र तक वो विचार स्थापित हो गया कि सबकुछ यहीं बन सकते हो।

घरवाले नहीं कहते कि ये फील्ड छोड़ दो, कुछ और ढंग का कर लो? कौन हैं परिवार में?
मेरी माताजी बहुत ही बड़ी दीवानी रही हैं पॉपुलर कल्चर की। मेरी परवरिश रंगमंच पर हुई। बहुत रंगमंच दिखाया गया है बचपन से। माताजी रंगमंच, सिनेमा, साहित्य और खासकर पापुलर साहित्य बहुत पसंद करती हैं। वो जब पढ़ती और देखती थीं तो मुझे साथ-साथ दिखाती थीं। बचपन से बड़े होते वक्त तक हमेशा मेरे हीरोज वैज्ञानिक थे और पोएट्स थे। उन्हें बहुत ही ऊंचे दर्जे पर देखा जाता था। मेरी मां लेखकों, कवियों और कलाकारों को विस्मय के साथ देखती थीं। लगता है वो सेलिब्रेशन मेरे अंदर गया है। मेरी नानी मां और मां ने मुझे बड़ा किया है। मां सिंगल मदर रहीं। जब मैं 7 साल का था तब वह पिता से अलग हो गईं। मुझे बड़ा करते वक्त नानी और मां के हीरोज बड़े इंट्रेस्टिंग किस्म के लोग होते थे। मेरी नानी मां के सारे के सारे हीरो साधु और संत थे, दुनिया भर के, जिनको वह पढ़ती थीं और जिनके बारे में वह हमेशा बातें करती थीं। मां के हीरो बहुत सारे हुआ करते थे, खासतौर पर पोएट्स और राइटर्स। तो बचपन से वो बात अंदर चली गई कि कूल होता है ऐसा बनना। प्रैक्टिकली मेरी मां और नानी मां यही चाहते थे कि बड़ा होकर कुछ सी.ए. – एम.बी.ए. टाइप बन जाऊं। लेकिन जो अंदरूनी तौर पर बनने-बनता देखने की ख्वाहिश थी वो पहले ही अंदर जा चुकी थी। कोई मुश्किल नहीं हुई जब मैंने तय किया कि इस ओर जाने वाला हूं। मेरे पर विश्वास बहुत था सबका। ऐसा हमेशा माना गया कि मुझे पता है मैं क्या कर रहा हूं। क्योंकि मैं सिंगल चाइल्ड था, जिसे सिंगल मदर ने पाला-पोसा था और आर्थिक दरिद्रता में। इस वजह से मैं 7 की उम्र में ही मैच्योर हो गया था। चीजों को समझने लगा था। इस वजह से सब को मेरे ऊपर विश्वास भी जल्दी आ गया था। इसलिए जब मैंने फैसला लिया तो इतनी दिक्कत नहीं हुई। थोड़े-बहुत सवाल उठे कि क्या करेगा कैसे करेगा। थोड़ी शंकाएं उठीं, पर उन शंकाओं के लिए ज्यादा जगह नहीं थी। वो निगोशियेबल ही नहीं था।

इस उम्र के बाद अपने पिता को एक व्यक्ति के तौर पर आप कैसे याद करते हैं? क्या रुचियां थीं उनकी?
मैं उनको ज्यादा जानता नहीं था। मैं 6-7 साल का था जब माता-पिता अलग हो गए। जब मैं 12-13 का था तब वो चल बसे किसी जेनेटिक डिसऑर्डर की वजह से। मुझे कुछ-कुछ चीजें पता हैं उनके बारे में। 6-7 साल तक की कुछ याद्दाश्त है। तो मेरी दुनिया मेरी माताजी, मेरी नानी मां और नाना थे। फिर जब मैं 15 का था तो मेरी माताजी ने पुनर्विवाह किया तो मेरे ये डैड भी इस दुनिया का हिस्सा बन गए। मैं खुशकिस्मत था कि पैसे की तंगी होते हुए भी बहुत सी दूसरी चीजें आस-पास थीं। विचार था, खुद्दारी थी।

लेकिन अगर जिदंगी में वो चीजें नहीं होती तो आज हम ऐसे होते ही नहीं, जो हैं, बिल्कुल सतही हो जाते...
बिल्कुल। ... मेरी नानी मां ने तो मेरे सीरियल्स में एक्ट करना भी शुरू कर दिया और वो बहुत फेमस हो गईं। वो जब भी गांवों या छोटे शहरों में जाती हैं तो लोग जमा हो जाते हैं, उनकी तस्वीरें खींचने के लिए।

आपके लिखे कौन से सीरियल में उन्होंने एक्ट किया है?
सीरियल तो मैंने बहुत ही घटिया लिखे तो आप मेरी नानी मां को देखिए। एक तो ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ में। और भी एक-दो सीरियल में जिनका नाम मुझे याद नहीं है। ‘क्योंकि सास...’ में उन्होंने गोदावरी दादी का रोल किया था, जो कॉमिकल रिलीफ के लिए आती थीं। वह जरा ऊंचा सुनती थीं या कुछ अजीबोगरीब सुनती थीं।

निराशा के पल आते हैं क्या? आते हैं तो कौन सी फ़िल्में देखते हैं जो सब भुला देती हैं?
4-5 साल से तो मैं बहुत व्यस्त रहा हूं अपनी फ़िल्मों पर काम करने में। ऐसी किताबें कुछ जरूर हैं। कुछ लेखक हैं जिनसे मैं बहुत प्रेरित हो जाता हूं। रिचर्ड डॉकिन्स हैं, उनके विचारों से बहुत प्रेरित हो जाता हूं और लगता है फिर से लिखने लगूं। एक फ़िल्म है जो मैं बार-बार देख लेता हूं और जो मेरा गिल्टी प्लेजर है, कोई 30-35 बार जिंदगी में अब तक देख ली होगी, जिसकी एक-एक लाइन मुझे याद है, जो मैं अकसर देख ही लेता हूं... वो है ‘द मेट्रिक्स’ (The Matrix, 1999)। कुछ बहुत ही हल्की-फुल्की सी हैं और मुझे पसंद हैं, कैमरन क्रो (Cameron Crowe) की ‘ऑलमोस्ट फेमस’ (Almost Famous, 2000)। वो कहीं न कहीं मेरी मां की कहानी है इसलिए मुझे बहुत पसंद आती है। ‘गुड विल हंटिंग’ (Good Will Hunting, 1997) मुझे बहुत पसंद आई है। वो मुझे बहुत एंटरटेनिंग लगती है। मुझे मेरे और मेरे दोस्तों की कहानी लगती है।

‘द मेट्रिक्स’ की तर्ज पर क्या ‘लूपर’, ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ और ‘द डार्क नाइट राइजेज’ पसंद आई?
‘द डार्क नाइट राइजेज’ तो मुझे बहुत घटिया लगी थी...

पर उसमें जो ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ वाला विचार था...
लेकिन वो ऐसी इमेज छोड़ती है न, कि बहुत आसान होता है आजकल करना। और हर कमर्शियल फ़िल्म इतना तो कर ही लेती है। वो भाषा तो पहले से ही सेट कर दी गई है। इतना टिपिकल रहा नहीं है। ‘लूपर’ मैंने देखी नहीं है। देख लेता हूं अगर आप कह रहे हैं तो। ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ भी नहीं देखी है क्योंकि अपनी फ़िल्म को लेकर बहुत बिजी था।

‘इनसेप्शन’ कैसी लगी?
‘इनसेप्शन’ तो बहुत ही घटिया है यार। बहुत आसान है।

लेकिन नोलन की फ़िल्म जब भी आती है, विश्व भर में उनके प्रशंसकों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं?
क्या पता, लेकिन ‘इनसेप्शन’ एक वैसी फ़िल्म है कि देखने के बाद आपको लगता है कि आप इंटेलिजेंट हो लेकिन क्या पता आप इंटेलिजेंट हो कि नहीं, क्योंकि उसमें इतना आसान करके दिया जा रहा है सबकुछ। इतना परोसा गया है। ऐसे कोई उसमें कठिन कॉन्सेप्ट नहीं हैं, पर ऐसा बनाया गया है कि लगता है आप बहुत की कठिन कॉन्सेप्ट को समझ रहे हो और उस बात की आपको खुशी होती है। तो वो मैनप्युलेटिव स्ट्रक्चर बनाना तो मुझे बहुत ही आसान लगता है। वो मैं बचपन में बहुत बनाता था अपने नाटकों में। जिससे दर्शकों को लगे कि यार मैंने कुछ बहुत ही अद्भुत देख लिया है, बहुत ही इंटेलिजेंट देख लिया है जबकि वो बहुत ही आसानी से परोसा गया होता है आपको। ‘इनसेप्शन’ में कोई भी कॉन्सेप्ट जो खोला गया था उसे पूरा नहीं किया गया था। कॉन्सेप्ट को पूरा करना ही मुश्किल होता है, खोल देना तो बहुत ही आसान बात होती है। ‘इनसेप्शन’ में जिस पैराडॉक्सिकल आर्ट की बात की गई थी उसका कुछ यूज नहीं था। दिखाया गया कि वो बस घूम रहे हैं, घूम रहे हैं। वो तो बहुत ही आसान होता है। कोई चीज अंदर फैंक देना और दर्शक को लगता रहे कि यार कुछ प्रचंड अद्भुत देख लिया है और उसी कॉन्सेप्ट को बार-बार फ़िल्म में घुमाते रहना ताकि आपको लगे कि हां, आपने कोई कॉन्सेप्ट समझ लिया है। ज्यादा मुश्किल होता है उनको जोड़ना, उनको एक कॉहरेंट (सुसंगत) फ़िल्म में तब्दील कर पाना।

अडूर गोपालकृष्णन, रे, बेनेगल, निहलाणी, जैसे जितने भी हिंदी, मलयाली, मराठी, बांग्ला, कन्नड़ फ़िल्मकार हुए हैं, आप इन लोगों के काम को कैसे देखते हैं? क्या आज उनकी प्रासंगिकता उतनी ही है?
मैं जब यंग था तब ये लोग मेरे लिए बहुत जरूरी थे। पर कुल मिलाकर औसत ही रही हैं उनकी फ़िल्में। दुर्भाग्य से एक भी फ़िल्ममेकर ऐसा नहीं है जिसके काम को देखकर कह सकूं कि ये मेरे लिए आदि और अंत है। सत्यजीत रे अकेले ऐसे हैं जो उस क्षेत्र में कुछ नजदीक आते हैं। उनकी चार-पांच फ़िल्में ऐसी रही हैं जिनका मेरी परवरिश, पढ़ाई और सिनेमा की क्राफ्टमैनशिप सीखने में योगदान रहा है। बाकी किसी हिंदुस्तानी फ़िल्ममेकर से मेरा ऐसा रिश्ता नहीं बन पाया है, जो मैं बहुत मिस करता हूं। मैं 16-17-18 की उम्र में प्रभावित था, इन लोगों के काम को देखता था, निहलाणी और श्याम बेनेगल और अडूर गोपालकृष्णन और जॉन अब्राहम और कुमार साहनी और मणि कौल के। मैंने पहली बार जब कमल (स्वरूप) का काम देखा था, जब पहली बार ‘ओम-दर-ब-दर’ (1988) देखी तो लगा कि ये क्या अद्भुत फ़िल्म है। इन सब चीजों से मैं प्रभावित था एक जमाने में। 20 साल की उम्र तक। पर वो संबंध टिक नहीं पाया है। किसी इंडियन साहित्यकार और फ़िल्मकार के साथ मेरा ऐसा संबंध हो, इसे बहुत मिस करता हूं।

बचपन की सम्मोहक फ़िल्में जो अब भी याद हैं। आज भले ही बचकानी लगती हैं पर उस बचकानेपन को आप दरकिनार करते हैं क्योंकि उन फ़िल्मों को आपने उस वक्त देखा था जब आप कुछ नहीं जानते थे?
अभी मैं इन्हें देख पाऊंगा कि नहीं, पर बचपन की मेरी फेवरेट फ़िल्में थीं, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘जागते रहो’, ‘उत्सव’ (गिरीष कर्नाड), ‘दीवार’ और ‘कर्मा’। ये सारी बचपन की फेवरेट फ़िल्में थीं जिनको देखकर लगता था कि यार ऐसी होनी चाहिए फ़िल्में।

सर्वकालिक पसंद वाली भारतीय और विदेशी फ़िल्में जो सभी को देखनी चाहिए।
इंडियन फ़िल्मों में तो सर्वकालिक ‘अप्पू ट्रिलजी’ (The Apu Trilogy, 1955-1959) ही रहेगी। उनको एक फ़िल्म बनाकर देखना चाहूंगा। दुनिया भर की फ़िल्मों में बता सकता हूं जो कभी हिली नहीं ज़ेहन से, जब से देखी तब से वैसी ही प्रभावशाली बनी हुई हैं। ‘अ शॉर्ट फ़िल्म अबाउट किलिंग’ (A Short Film About Killing,1988) किश्लोवस्की की, तारकोवस्की की ‘सोलारिस’ (Solaris, 1972), रॉय एंडरसन की ‘सॉन्ग्स फ्रॉम द सैकेंड फ्लोर’ (Songs from the Second Floor, 2000), माइकल हेनिके की ‘द वाइट रिबन’ (The White Ribbon, 2009) और बेला तार की ‘वर्कमाइंस्टर हार्मनीज’ (Werckmeister Harmonies, 2000)।

वैसे तो आपने नाम लिया डॉकिन्स का लेकिन फिलॉसफी में ओशो या कृष्णमूर्ति या गीता या एल्डस हक्सले या दीपक चोपड़ा... किसको आपने पढ़ा है?
इन सभी को पढ़ा है। 16-17 साल की उम्र में उठता था कृष्णमूर्ति (Jiddu Krishnamurti) के साथ, बैठता था हक्सले (Aldous Huxley) के साथ और रसल (Bertrand Russell) और स्पेंसर (Herbert Spencer) के साथ। ये सभी बहुत बड़े प्रेरणास्त्रोत थे। बहुत महत्वपूर्ण प्रेरणाएं थी ये। 15 साल की उम्र में कुछ और लोग थे, उस उम्र में फिलोसॉफिकल प्रेरणा अयान रेंड (Ayn Rand), गांधी (Mahatma Gandhi) और जॉन डॉनी (John Donne) थे। फिलॉसफी की प्रेरणा फिक्शन से शुरू हुई थी, फिर नॉन-फिक्शन पर गई। जहां हक्सले, कृष्णमूर्ति और ओशो को कुछ-कुछ पढ़ा था। ओशो के साथ संबंध पहले से ही ठीक-ठाक था क्योंकि 17 की उम्र तक जो मैं पढ़ चुका था उससे कहीं न कहीं जानता था वो क्या कह रहे थे। ओशो को पढ़कर कभी ये नहीं लगा कि यार कुछ ऐसा सुना या देखा है जो पहले नहीं पता था। यानी तब तक वो बातें मेरे लिए ज्यादा नई नहीं रही थीं। पर कबीर के साथ का रिश्ता हमेशा कायम रहा है। अभी भी उनसे कुछ मिल जाता है। क्योंकि वो कविता है, रूपक है। क्योंकि वो उसका विस्तार है, वो खुला हुआ है वो कहीं पर भी जा सकता है। कबीर से वो इक फकीरी वाली दोस्ती भी है। यहां तक कि डॉकिन्स (Richard Dawkins) को भी जब तक पढ़ा, ईमानदारी से बताऊं तो तब तक फिलोसॉफिकली कोई ऐसी बात नहीं रही थी जो बाकी रह गई थी। डॉकिन्स को पढ़कर जो माइक्रोबायोलॉजी और इवोल्यूशनरी साइकोलॉजी के बारे में चीजें समझ में आईं और उसकी वजह से बाद में डेनिस ब्रे (Dennis Bray) से जो इवोल्यूशनरी साइकोलॉजी के बारे में चीजें समझ में आईं। तो डॉकिन्स से ज्यादा महत्वपूर्ण मेरे लिए डेनिस ब्रे हैं जिन्होंने ‘वेटवेयर’ (Wetware: A Computer in Every Living Cell, 2009) नाम की किताब लिखी है। डेनिस भी माइक्रोबायोलॉजिस्ट हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं मेरे लिए। लुई थॉमस (Lewis Thomas) बहुत महत्वपूर्ण हैं उन्होंने ‘द लाइव्ज ऑफ अ सेल’ (The Lives of a Cell: Notes of a Biology Watcher, 1974) नाम की किताब लिखी थी। तो डॉकिन्स, डेनिस और लुई फिलॉसफी में एक विज्ञान वाला हिस्सा भरते हैं जो कॉन्सेप्चुअल आइडिया है क्योंकि फिलोसॉफिकली आइडिया तो मैं एक्सप्लोर कर चुका था।

इन जितने भी दार्शनिकों को पढ़ते हैं तो कई बार ऐसा हो जाता है कि आदमी का दिमाग खराब हो जाता है, कि यार ये क्या बात कर रहे हैं, इतना ठगा गया हूं क्या मैं? इनके पीछे चलूं क्या मैं? या क्या वो पहुंचाएगा या वो नहीं पहुंचाएगा? या उसके बीच जोन्सटाउन जैसी घटना भी हो जाती है और आदमी को लगता है कि यार ये तो कुछ और ही चीजें हैं, ये तो कहीं और ही ले जा रहे हैं। क्या ये उलझाते ज्यादा हैं या रास्ता ज्यादा दिखाते हैं?
रास्ता तो यार मैं खुद ही ढूंढ रहा था अपना, खुद ही बना रहा था। मेरे लिए तो प्रासंगिक था ही नहीं कि कौन क्या दिखा रहा है मुझे। मेरे लिए तो प्रासंगिक ये था कि तथ्य कौन बता रहा है मुझे। जो चीजें तथ्यपरक (फैक्चुअल) नहीं थीं उन्हें मैं निकालता चला गया। जो चीजें तथ्यपरक थीं उन्हें रखता गया और अपनी खुद की फिलॉसफी बनाता गया। वैसे भी मैंने कभी भी किसी को फॉलो नहीं किया था। संस्थानों के साथ मुझे बचपन से ही दिक्कत रही है। मेरी एक दोस्त हाल ही में एक कहानी लिख रही थी कि जिसमें वह एक ऑब्जर्वेशन कर रही थी कि सार्त (Jean-Paul Sartre) से लेकर नीत्शे (Friedrich Nietzsche) से लेकर सुकरात (Socrates) जैसे महान फिलॉसफर्स में एक चीज कॉमन रही है कि इनमें से किसी के भी बाप नहीं थे। ये सभी या तो अनाथ थे या सिंगल मदर द्वारा पाले-पोसे गए थे। तो इस वजह से हुआ होगा कि बचपन से ही उनमें एक फादर फिगर या संस्थान के आगे आज्ञाकारी होने की आदत नहीं रही होगी। माता भी संस्थान होती है, बहुत बड़ी संस्थान होती है पर बहुत अलग प्रकार की होती है, पर बहुत ही फ्लूइड होती है। तो हो सकता है मनोवैज्ञानिक रूप से मेरे साथ भी वही हुआ हो। एस्टैबलिशमेंट के साथ कभी कोई रिश्ता बना नहीं पाया हूं मैं। इसलिए ऐसा कभी रहा नहीं है कि कोई मुझे गुमराह कर देगा या कोई मुझे रास्ता दिखा देगा। बेहद स्वतंत्र रहा हूं मैं।

आपने कहा कि जो तथ्यपरक आपको मिला उसे पकड़ा और बाकी छोड़ा, इसे किसी उदाहरण के साथ समझाएं...
जैन विचार और बौद्ध विचार, ये दो 17 की उम्र में मेरे विचारों को आकार देने में बहुत मददगार रहे। अभी जैन विचार में बहुत से ऐसे विचार हैं जो फैक्चुअल हैं, बहुत से ऐसे विचार हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। उस माइथोलॉजी को बनाने के पीछे दूसरे कारण हैं। सोशल बैलेंस लाना कारण है, पॉलिटिकल बैलेंस लाना कारण है। जैसे, जैन विचार में ये भी बात है कि प्रकृति की ओर जिम्मेदार होना एक कॉज-कॉन्सीक्वेंस रिलेशनशिप (cause-consequence relationship) बनाएगा, नहीं करेंगे तो आप पर प्रकोप होंगे, जो तार्किक तौर पर जांचा जा सकता है, समझा जा सकता है। अब इसमें ये विचार भी है कि भई मेरू पर्वत हैं और उसके इर्द-गिर्द पूरी पृथ्वी घूम रही है, पूरा ब्रह्मांड घूम रहा है, जहां सात नरक हैं सात स्वर्ग हैं। तो ये बिल्कुल ही तथ्यपरक बात नहीं है। ये एक मेटाफर है, एक रूपक है जिसका एक संबंध रहा होगा तब के विचारकों के पास। लेकिन इसका मेरे साथ कोई संबंध नहीं है तो मैं इसे छोड़ सकता हूं। उसमें मेरे लिए जब जो वैलिड था, साबित करने योग्य था, उसे मैं लेता गया। उसके बाद उस पूरे विचारशास्त्र की ही जरूरत नहीं रही मुझे। उसमें से जो सत्य था वो मैंने ले लिया था और मैं आगे बढ़ चला। यात्रा हमेशा ये वाली रही है। मैंने खुद को न कभी जैन कहा है, न बौद्ध कहा है, न हिंदु कहा है, न वैदिक कहा है। संस्थानों के साथ मुझे बचपन से ही दिक्कत रही है। न मैं कभी ओशो पंथी बना हूं न जे. कृष्णमूर्ति का अनुयायी बना हूं। मैं पहली बार कृष्णमूर्ति की बायोग्राफी पढ़ रहा था पुपुल जयकर की लिखी। तब 16-17 साल का था। उसमें कृष्णमूर्ति ने एक बात कही थी जो मुझे लगा कि यार ये तो बढ़िया है, इस आदमी ने कह दी। उन्होंने कहा था कि “अगर आप मेरे पीछे आओगे तो सत्य के पीछे नहीं जा पाओगे” (If you follow me, you’ll cease to follow the truth)। जब उन्होंने खुद ने ये बात कह दी तो मेरी ही बेवकूफी होगी अगर फॉलो किया तो। ओशो आश्रम गया था, वही अपने स्पिरिचुअल शॉपिंग के दिनों में। वहां मैंने एक टेप निकालकर सब को दिखाई, वह वीडियो टेप आज भी उस आश्रम में है, जिसमें ओशो ने कहा है कि “ये तो प्रेम मिलाप है, हम लोग साथ में मिलकर मजे ले रहे हैं, मस्ती कर रहे हैं। मेरे जाने के बाद, अगर मुझसे प्यार है आपको तो आप एक चीज मेरे लिए कर लेना, (If you really love me then just do one thing for me when I die, disperse…) ...सब अपने-अपने घर बोरिया-बिस्तरा बांधकर चले जाना। कोई आश्रम मत करना कोई दुकान मत खोलना”। तो ये बात तो जो आधे भी समझते हों उनके लिए उसने कह दी कि मेरे बाद कोई दुकानें मत खोलना। क्योंकि उसमें कहीं न कहीं सड़न आ जाती है, कहीं न कहीं विचार इवॉल्व होना थम जाता है। थ्योरी ऑफ ग्रैविटी गलत नही है। अगर सेब जमीन पर गिर रहा है तो क्यों गिर रहा है, वो प्रश्न सही है। उस प्रश्न के तुरंत बाद जो जवाब आता है कि भई क्योंकि ये गुरुत्वाकर्षण है। जो बड़ी बॉडी है वो छोटी बॉडी को अट्रैक्ट करती है इसलिए। वो गलत नहीं है पर वो अधूरा है। वो क्यों अधूरा है ये आइंस्टीन बताता है। उस प्रश्न का जवाब गुरुत्वाकर्षण होने में नहीं है। गुरुत्वाकर्षण जवाब होना ऐसा मान लेना है कि ये फंडामेंटल लॉ है प्रकृति का। जबकि वो फंडामेंटल लॉ नहीं है। प्रकृति का फंडामेंटल लॉ रिलेटिविटी है। शायद वो भी नहीं है, पर रिलेटिविटी ज्यादा क्रिस्पर लॉ है। रिलेटिविटी ने हमें कई दूसरी चीजें समझाईं। उससे ग्रैविटी गलत साबित नहीं होती है बल्कि वह इनकॉरपोरेट (समाहित) होती है। तो जो मैं मैट रिडली की बात बता रहा था कि मैं ये नहीं कहता कि कृष्णमूर्ति से स्मार्टर हूं पर मेरे पास ये फायदा है कि मैंने कृष्णमूर्ति को पढ़ा है। और मैं ये कह सकता हूं कि ये सब चीजें छोड़कर के एक बड़ा सच बनता हैं।

फ़िल्म ‘गाइड’ में आखिरी दृश्यों में राजू भगवा ओढ़े दर्शन वाली बातें कहता है। ‘शिप ऑफ थिसीयस’ से पहले कौन सी हिंदी फ़िल्मों में प्रभावी दर्शन आपको याद आता है?
दुर्भाग्य से मैंने ‘गाइड’ देखी नहीं है और ‘गाइड’ शायद वो फ़िल्म हो सकती हो, चूंकि देखी नहीं है तो ज्यादा क्या कह पाऊंगा। ऐसी अन्य कोई फ़िल्म मेरे ध्यान में आ नहीं रही है। अगर आप याद दिलाओ तो शायद बता सकूं। ऐसी कोई याद नहीं आ रही है जहां पर कोई बहुत ही महान संवाद हुआ हो।

‘सारांश’ में आखिरी दृश्य में जब पार्क में वह बूढ़ा जोड़ा बैठा होता है और कहता है कि “मौत आती है लेकिन जिंदगी चलती रहती है”, बेहद महीन स्तर पर वह है...
उस महीन स्तर पर तो तकरीबन हर हिंदी फ़िल्म में है। राज कपूर की फ़िल्मों में है। जो मैंने बचपन की फेवरेट्स बताईं ‘मेरा नाम जोकर’ या ‘उत्सव’... उतना तो उनमें और हर फ़िल्म में था। हर अच्छी फ़िल्म में कहीं न कहीं। मतलब वो गानों में भी जीवन के पहलू आ जाते हैं। जैसे हरियाली और रास्ता। फ़िल्म बहुत वाहियात थी पर गानों में बातें थीं। उतनी फिलॉसफी तो हिंदी फ़िल्मी गानों में अकसर रहती ही थी।

मैं कुछ शब्द बोलूंगा, आप उनसे क्या समझते हैं, एक शब्द में उत्तर दें...
मौत– चैलेंज
जिंदगी - प्रोसेस
पैसा– इररेलेवेंट टूल
नग्नता - सच्चाई
गालियां - जरूरी
खून– बहता लाल
दोस्ती - गहराई
फांसी– रिवेंज ऑफ स्टेट
फलसफा– लगातार बदलता

अपनी जिंदगी के फलसफे को थोड़ा और बताएं।
मैं मीनिंग ढूंढना चाहता हूं। फलसफा मेरा यही है कि मैं फलसफा ढूंढना चाहता हूं। चाहता हूं उसे इस तरह ढूंढ लूं कि इस्तेमाल हो सके जिदंगी बरकरार रखने में। जिदंगी से मेरा मतलब है कॉस्मिक लाइफ। मैं चाहता हूं कि जिंदगी बरकरार रहे, ब्रम्हांड में। और मुझे लगता है कि सही तरीके से उस फलसफे को ढूंढने से हम ऐसी जिंदगी बरकरार रख पाएंगे।

‘शिप...’ अब तक इतने फ़िल्म समारोहों में गई है, इतने लोगों ने देखी है तो फ़िल्म को लेकर सबसे खास तारीफ आपको किन-किन ने दी, जो छू गई?
फेसबुक पर किसी ने टिप्पणी की थी, हालांकि वो मेरे मुंह से मेरी ही तारीफ हो गई लेकिन उसे लेकर मैंने गर्व महसूस किया, कहीं न कहीं गाबोर वाली ही बात उसमें थी, जिसमें उसने कहा था कि “ये कमेंट उन सभी लोगों के लिए है जो आंसू बहा रहे थे ये सुनकर कि बेला टार रिटायर हुए हैं, उन्हें ग़मज़दा होने की जरूरत नहीं है क्योंकि अभी आनंद गांधी फ़िल्म बना रहे हैं”। ये मुझे बहुत ही प्रचंड बात लगी थी कि ये क्या कह दिया।

‘शिप...’ लोगों तक पहुंचेगी या इस फ़िल्म तक लोगों को खुद पहुंचना होगा?
दोनों। मुझे लगता है बीच में आना पड़ेगा। मैं लेकर आ रहा हूं लोगों तक। इस महीने रिलीज कर रहे हैं और अच्छी तरह रिलीज कर रहे हैं ताकि ऐसा न हो कि कुछ लोग ही देख पाएं। अब तक जितनी भी आर्ट हाउस फ़िल्में हुई हैं हमारे देश में, उनमें संभवतः ये सबसे बड़ी रिलीज होगी। हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि बीच तक आएं, बाकी रास्ता तय करने की मेहनत लोगों को करनी पड़ेगी।

क्योंकि अगर ज्यादा लोगों को नहीं दिखा पाए तो दोनों ही पक्षों को हानि होगी...
मुझे लगता है कि अंततः लोग देखेंगे ही देखेंगे। अंततः जिसको देखनी है वो फ़िल्म देख ही लेगा किसी न किसी तरह से। इस फ़िल्म की शेल्फ लाइफ भी बड़ी है। थोड़े सालों तक ये जीती रहेगी और लोग तब तक देख लेंगे।

Still from 'Ship of Theseus.' The movie is shot entirely on Canon EOS 1D MK4 DSLR Camera.
Anand Gandhi's 'Ship of Theseus' has surprised many prominent filmmakers and viewers in India. It has changed the perception of Indian films across the world via many International Film Festivals. Title of the movie is a thought experiment. It alludes to Theseus’ paradox, most notably recorded in Life of Theseus, wherein the Greek philosopher Plutarch inquires whether a ship that has been restored by replacing all its parts, remains the same ship.

Behind the movie is An unusual photographer grapples with the loss of her intuitive brilliance as an aftermath of a clinical procedure; an erudite monk confronting an ethical dilemma with a long held ideology, has to choose between principle and death; and a young stockbroker, following the trail of a stolen kidney, learns how intricate morality could be. Following the separate strands of their philosophical journeys, and their eventual convergence, Anand's movie explores questions of identity, justice, beauty, meaning and death.

Anand began his writing career in 2000 with popular TV show ‘Kyunki Saas Bhi Kabhi Bahu Thi’ (dialogues) and ‘Kahaani Ghar Ghar Kii’ (screenplay). Before 'Ship...,' Anand made 'Right Here, Right Now' (2003) and 'Continuum' (2006). Now, 'Ship of Theseus' is slated to release on July 19, 2013.
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भाग मिल्खा भागः राकेश मेहरा और फरहान अख़्तर से बातें

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 Q & A..Rakeysh Mehra (director)& Farhan Akhtar (actor),Bhaag Milkha Bhaag.

Farhan Akhtar with Rakeysh Omprakash Mehra, both looking at Milkha Singh. Photo:Jaswinder Singh

राकेश मेहरा से पिछली मुलाकात दो साल पहले हुई थी, तब वह अपनी निर्माण कंपनी की फिल्म ‘तीन थे भाई’ पर बात करने आए हुए थे। बातें बायोपिक बनाने के पीछे चलने वाले विचारों और ‘मिल्खा सिंह’ बनाने को लेकर उनकी सोच पर हुई। उसका संक्षिप्त अंश यहांपढ़ सकते हैं। जब उन्होंने मिल्खा सिंह की भूमिका के लिए फरहान अख़्तर का चयन कर लिया तो संयोग से कुछेक दिनों में फरहान से भी मुलाकात हुई। वे उस वक्त अपने निर्देशन में बनी 'डॉन-2'पर बात करने आए थे। बातचीत यहांपढ़ सकते हैं।

खैर, ‘भाग मिल्खा भाग’ आज रिलीज हो चुकी है। उससे एक दिन पहले राकेश और फरहान से बातचीत हुई। चंडीगढ़ में अपनी फिल्म का विशेष प्रीमियर मिल्खा सिंह और उनके परिवार की उपस्थिति में भारतीय सेना के लिए करने हेतु वे आए थे।पढ़ें कुछ अंशः

इस कहानी की कहानी

राकेश ओमप्रकाश मेहराःमिल्खा सिंह जी की जिंदगी से प्रेरित है ये कहानी। बचपन में मिल्खा सिंह की गाथा सुन-सुन के हम बड़े हुए। दो नाम होते थे, मिल्खा सिंह और दारा सिंह। आगे चलकर मौका मिला कि फ़िल्म बनानी है। तो मेरे एक मित्र हैं, उनके पास एक ऑटोबायोग्राफी मिली जो गुरुमुखी में थी और गुरुमुखी मुझे आती नहीं थी। हमारे प्रोड्यूसर हैं राजीव चंदन, उनके अंकल को आती थी पढ़नी। उन्होंने पहले दो-तीन पन्ने जब पढ़े, तो उसी में आग लग गई। मैंने कहा, यार रोक दीजिए। अपने दोस्त से मैंने कहा कि क्या मिल्खा सिंह से मिलवा सकते हैं। उन्होंने मीटिंग फिक्स करवाई। चंडीगढ़ आए, एक दिन बिताया। निम्मी आंटी (निर्मल कौर, मिल्खा सिंह की पत्नी) ने ऐसे घर पर रखा जैसे हम घर के ही हैं। पूरे दिन बातचीत हुई। जब मैं मुंबई के लिए वापस निकला तो अगले दो-चार महीने नींद उड़ गई थी क्योंकि मेरे लिए ये फैसला लेना बहुत मुश्किल काम होता है कि अगली फ़िल्म कौन सी बनेगी। जेहन में बातें चलती रहीं। फिर हम वापस आए मंजूरी लेने। उस वक्त जीव मिल्खा सिंह जी वहां थे। मिल्खा सर को बहुत सारे ऑफर आए, 50-50 लाख, एक-एक करोड़, डेढ़-डेढ़ करोड़। अब मिल्खा सर तो पिक्चर देखते नहीं, पर जीव रोज शाम को एक पिक्चर देखते हैं। उन्होंने बोला कि ये कहानी जाएगी तो राकेश को ही जाएगी और हम देंगे भी तो एक ही रुपये में देंगे। वो एक रुपया दस करोड़ रुपये से ज्यादा है, मेरी नजर में। उसके बदले भले आप सारा कुबेर का खजाना दे दो, वो भी कम है क्योंकि उस लाइफ की कोई कीमत लगाई नहीं जा सकती। हम 1960 का एक रुपये का नोट लेकर आए, वो मिला बड़ी मुश्किल से लेकिन मिल गया। उन्हें दिया। खैर, सारी बातों की एक बात ये है कि हमने फ़िल्म बनाई। फरहान ने एक्टिंग की, प्रसून ने लिखी। फिर भी हमने कुछ नहीं किया है। हमें ये मौका मिला, हमारे को चुना गया है, ये हमने नहीं चुना है। ये अपने आप हो जाती हैं चीजें, जबकि हमें लगता है हम कर रहे हैं। ये मौका मिला हमें, ये ही बड़ी बात है। हो सकता है कि हमसे कुछ छोटी-मोटी गलतियां हुई हों, पर हमने जान लगा दी है।

समयकाल

राकेशः ये कहानी 1947 से लेकर 1960 तक जाती है, फिर वहां रुक जाती है।

कितनी हकीकत, कितना फसाना

राकेशःएक फ़िल्म एक विजन होती है, संयुक्त प्रयास होता है। पहले उसे लिखा जाता है। जब गरम-गरम स्क्रिप्ट हाथ में आती है तो उसमें तस्वीरें डाली जाती हैं। वो कहते हैं न अंदाज-ए-बयां। एक शेर होगा तो आप अलग तरीके से पढ़ेंगे और मैं अलग तरीके से पढूंगा। फिर आर्ट डायरेक्टर के साथ और कैमरामैन के साथ बैठकर बात करने से स्पष्टता आ जाती है। स्क्रिप्ट फिर एक्टर्स को दी जाती है और एक्टर आकर सब बदल देते हैं। वो अपना लेकर आते हैं। ये मानवीय भावों का काम है। दर्शक सिनेमाघर आते हैं तो अपने इमोशन लेकर आते हैं और फ़िल्म में जोड़ते हैं। हम गाड़ियां तो बना नहीं रहे हैं कि एक गाड़ी बनाई और चल पड़ी तो वैसी ही दस लाख और बना दीं। तो मैं स्क्रिप्ट एक्टर के हाथ में देता हूं और तीन कदम पीछे होते हुए कैमरे के पीछे चला जाता हूं। एक्शन बोलता हूं और फिर सब उन पर है। इसमें अब वे अपना इंटरप्रिटेशन लाते हैं। कैमरामैन उसे अपनी नजरों से देखते हैं। फिर माल एडिटर के पास जाता है, वो अपने नजरिए से उसे काटता है। फ़िल्म बन जाती है तो ऑडियंस के सामने जाती है। अब हरेक ऑडियंस का हरेक मेंबर उसे अपनी अलग नजरों से देखता है। पूरी फ़िल्म के जितने दर्शक होते हैं उतने ही मायने हो जाते हैं।

मिल्खा सिंह निभाने का डर

फरहान अख़्तरःडर और नर्वसनेस जरूरी फैक्टर हैं। हम डरते हैं कि अनुशासन में रहें, चूकें नहीं। ये फिलॉसफी उन्हीं से ली। मिल्खा सिंह जी ने कहा कि मेहनत करो, काम करो। इसके अलावा जब आप ज़ोन में आ जाते हैं तो सब होता जाता है। डर को आप एक्साइटमेंट बना लेते हैं। मिल्खा सिंह दौड़े नहीं उड़े थे, वो इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने डरों को पीछे छोड़ दिया था।

किरदार के साथ कोशिशें

फरहानःइस किरदार से न्याय करने की कोशिश तो पूरी की है, और एक एक्टर का काम ही होता है कि कहानी के इमोशनल कंटेंट को, चाहे वो फिक्शनल हो या नॉन-फिक्शनल, परदे पर ऐसे दर्शाए कि लोगों को लगे कि परदे पर भावों का पूरा बहाव देख रहे हैं। इस फ़िल्म में अपनी खुद की कल्पना के अलावा मैं मिल्खा सिंह जी से बात करके पहलू और भावनाएं डालता था। किसी एक्टर की जिंदगी में ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब ऐसे किसी इंसान पर फ़िल्म बने और वो रोल आप करें। ये लाइफ एक्सपीरियंस है। मिल्खा सिंह और उनकी जिंदगी से बहुत कुछ सीखने को मिला है।

निर्देशक का निर्देशन करना

राकेशःये तो आप उल्टा बोल रहे हैं। देखिए न कि मैं कितना अक्लमंद था कि मैंने अपना सारा काम आसान कर लिया। जैसे, मैथ्स का पेपर देने जा रहा हूं और जो टीचर है उसको बोल दिया कि आप लिख दो पेपर। बतौर निर्देशक मेरा काम करने का स्टाइल ये है कि मैं किसी के काम में दखल नहीं देता। मैं ये नहीं कह सकता कि ये मत कीजिए, मैं कहता हूं कि ये करिए। क्योंकि इंटरप्रिटेशन तो एक्टर का ही होगा। मैं हर फैसला इंस्टिंक्ट से लेता हूं। मेरे अंदर की आवाज मुझे दिशा दिखाती है। फिर भी अगर कभी मुझे ऐसा लगा कि मेरे इंस्टिंक्ट मेरे से दूर हैं और मेरी अंदरूनी आवाज जवाब नहीं दे रही तो फरहान से अच्छा बाउंसिंग बोर्ड और क्या हो सकता था। उनसे बहुत मदद मिलती थी। ये बहुत अच्छी बात है कि आपकी टीम में एक ऐसे मेंबर भी हैं जो मेंबर ही नहीं है बल्कि स्तंभ हैं।

प्रोफाइल बेहतर होगा कि जिंदगी

राकेशःये करियर डिफाइनिंग फ़िल्म नहीं है, ये तो लाइफ डिफाइनिंग फ़िल्म है। मेरी जिंदगी बदल गई है इस फ़िल्म से। फिर से परिभाषित हुई है।

वस्तुपरकता रखी कि भावावेश में छोड़ दी

राकेशःमैं इसके बारे में बहुत कुछ बोल सकता हूं। पर मेरी गुजारिश है कि आप फ़िल्म देखें, आपको सारे जवाब मिल जाएंगे। शॉर्ट में ये कहना चाहूंगा कि किरदार इतने असल हैं जितने हो सकते थे। जिंदगी के करीब हैं। वे ब्लैक एंड वाइट नहीं हैं, ग्रे हैं। पक्का ग्रे हैं। होना भी चाहिए। हम सभी होते हैं।

शारीरिक कोशिशें/मुश्किलें

फरहानःकाम मुश्किल तब होता है जब करने में आपको मजा नहीं आ रहा हो। मजा आ रहा होता है तो कोई दिक्कत ही नहीं, सब हो जाता है। फ़िल्म का और मिल्खा जी का कद इतना बड़ा है कि उसके लिए कुछ भी करना पड़े तो कम है, इसलिए जितना भी किया कम ही था।

इस किरदार से निकलने की प्रक्रिया

फरहानःमुश्किल है, क्योंकि बहुत इमोशनल इनवेस्टमेंट हुआ है। जिन लोगों के साथ काम किया है, उन्हें मिस करूंगा। लेकिन ये भी जरूरी है कि आप हमेशा अपने आप को याद दिलाएं कि इन सब चीजों के बाद आप एक कलाकार हैं , एक एक्टर हैं। आगे बढ़ने के लिए आपको कुछ ऐसी चीजें पीछे भी छोड़नी पड़ेंगी। अगर आप वहीं रह गए इमोशनली, तो आगे कैसे बढ़ेंगे, कुछ नया करने की कोशिश कैसे करेंगे, कुछ और पाने की कोशिश कैसे करेंगे। ये लड़ाई है और लड़नी पड़ती है इसलिए मैंने इसके बाद एक फ़िल्म की है ‘शादी के साइड इफेक्ट्स’। उसने भी मेरी बड़ी मदद की आगे बढ़ने में क्योंकि बहुत ही अलग किरदार था और दूसरे कास्ट और क्रू के साथ काम करने का मौका मिला। लेकिन ‘भाग मिल्खा भाग’ दुर्लभ अनुभव है। किरदार और फ़िल्म से लगाव का ऐसा अनुभव इससे पहले मेरे साथ ‘लक्ष्य’ के टाइम पर हुआ था। उस वक्त भी यादें और भाव मेरे साथ ही रुक गए थे। इस फ़िल्म में भी ऐसा ही हुआ। आशा करता हूं कि जिंदगी में ऐसी स्क्रिप्ट या कहानी फिर से आ सके जो मुझे ठीक वैसा ही महसूस करवाए जैसा ‘भाग मिल्खा भाग’ ने करवाया है।

सेना और मिल्खा सिंह

राकेशःमिल्खा सर की जिंदगी का बहुत अहम हिस्सा सेना रही। बचपन में उनके सिर के ऊपर न तो मां-बाप का साया था, न रहने को जगह थी, न पहनने को कपड़े थे, हाथ में चाकू था, कोयला-गेहूं-चीनी चुराते थे। तिहाड़ तक गए। पर उन्होंने एक मकसद बनाया कि इज्जत की रोटी खानी, मेहनत की कमाई खानी। तिहाड़ जेल में उनके सामने डाकू और खूनी भी आए और वो उनके साथ भी जा सकते थे, पर उन्होंने तय किया कि आर्मी में जाना है। तीन साल उन्होंने कोशिश की और चौथे साल में उनका चयन हुआ। आर्मी ने मिल्खा सिंह को पहचाना और हीरे को तराशा। बाद में दुनिया में जाकर मिल्खा सर ने अपना परचम लहराया, तिरंगा लहराया। वो हर बात में कहते हैं कि मैं जो भी हूं आर्मी की वजह से हूं। ये हम सब की खुशनसीबी है। ये बोलते हुए मेरे रौंगटे खड़े रहे हैं कि जहां से हमने शुरू की थी ये जर्नी। आज हम उसी शहर (चंडीगढ़) में वापस हैं। और इस बात के कितने बड़े मायने होते हैं ये मैं बोल तो गया हूं पर मुझे भी नहीं मालूम। बोलते-बोलते मुझे बड़ी अजीब सी फीलिंग आ रही है, दिल भी थोड़ा बैठ रहा है। ये फ़िल्म हम आर्मी को समर्पित कर रहे हैं।

Rakeysh Omprakash Mehra is an Indian filmmaker. He has directed Bhaag Milkha Bhaag (2013), Rang De Basanti (2006), Delhi-6 (2009) and Aks (2001). Farhan Akhtar is an Indian film director and actor. He made his directorial debut with Dil Chahta Hai (2001). Then he directed Lakshya (2004), Don (2006), and Don-2 (2011). He has acted in Rock on!! (2008) and Zindagi Na Milegi Dobara (2011). In Bhaag Milkha Bhaag he has portrayed Milkha Singh, an athlete.

Bhaag Milkha Bhaag released on July 12, 2013.
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मेरा प्रोसेस बस इतना है कि पहले कुछ सोचता हूं और जब किसी चीज के प्रति एक्साइटेड होने लगता हूं तो अपने आप एक अनुशासन आ जाता हैः रितेश बत्रा

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 Q & A..Ritesh Batra, film director (Dabba/The Lunchbox).
 
Irfan Khan, in a Still from 'Dabba' (The Lunchbox).
‘डब्बा’ या ‘द लंचबॉक्स’ के बारे में सुना है?
… झलक देखें यहां, यहांभी

इस साल कान अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव-2013 में इस फ़िल्म को बड़ी सराहना मिली है। वहां इसे क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। रॉटरडैम अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के सिनेमार्ट-2012 में इसे ऑनरेबल जूरी मेंशन दिया गया। मुंबई और न्यू यॉर्क में रहने वाले फ़िल्म लेखक और निर्देशक रितेश बत्रा की ये पहली फीचर फ़िल्म है। उन्होंने इससे पहले तीन पुरस्कृत लघु फ़िल्में बनाईं हैं। ये हैं ‘द मॉर्निंग रिचुअल’, ‘ग़रीब नवाज की टैक्सी’ और ‘कैफे रेग्युलर, कायरो’। दो को साक्षात्कार के अंत में देख सकते हैं। 2009 में उनकी फ़िल्म पटकथा ‘द स्टोरी ऑफ राम’ को सनडांस राइटर्स एंड डायरेक्टर्स लैब में चुना गया। उन्हें सनडांस टाइम वॉर्नर स्टोरीटेलिंग फैलो और एननबर्ग फैलो बनने का गौरव हासिल हुआ।

अब तक दुनिया की 27 टैरेटरी में प्रदर्शन के लिए खरीदी जा चुकी ‘डब्बा’ का निर्माण 15 भारतीय और विदेशी निर्माणकर्ताओं ने मिलकर किया है। भारत से सिख्या एंटरटेनमेंट, डीएआर मोशन पिक्चर्स और नेशनल फ़िल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएफडीसी) और बाहर एएसएपी फिल्म्स (फ्रांस), रोहफ़िल्म (जर्मनी), ऑस्कर जीत चुके फ़िल्मकार दानिस तानोविक व फ्रांस सरकार ने इसमें वित्त लगाया है। ‘पैरानॉर्मल एक्टिविटी-2’ (2010) में सिनेमैटोग्राफर रह चुके माइकल सिमोन्स ने ‘डब्बा’ का छायांकन किया है।

कहानी बेहद सरल और महीन है। ईला (निमरत कौर) एक मध्यमवर्गीय गृहिणी है। भावहीन पति के दिल तक पेट के रस्ते पहुंचने की कोशिश में वह खास लंच बनाकर भेजती है। पर होता ये है कि वो डब्बा पहुंचता है साजन फर्नांडिस (इरफान खान) के पास। साजन विधुर है, क्लेम्स डिपार्टमेंट में काम करता है, रिटायर होने वाला है। मुंबई ने और जिंदगी ने उससे सपने और अपने छीने हैं इसलिए वह जीवन से ही ख़फा सा है। अपनी जमीन पर खेलते बच्चों को भगाता रहता है और शून्य में रहता है। जब ईला जानती है कि डब्बा पति के पास नहीं पहुंचा तो वह अगले दिन खाली डब्बे में एक पर्ची लिखकर भेजती है। जवाब आता है। यहां से ईला और साजन अपने भावों का भार लिख-लिख कर उतारते हैं। इन दोनों के अलावा कहानी में असलम शेख़ (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) भी है। वह खुशमिजाज और ढेरों सपने देखने वाला बंदा है। रिटायर होने के बाद साजन फर्नांडिस की जगह लेने वाला है इसलिए उनसे काम सीख रहा है।

‘डब्बा’ हमारे दौर की ऐसी फ़िल्म है जिसे तमाम महाकाय फ़िल्मों के बीच पूरे महत्व के साथ खींचकर देखा जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय निर्माताओं के साथ भागीदारी के लिहाज से ‘डब्बा’ नई शुरुआत है। उच्च गुणवत्ता वाली एक बेहद सरल स्क्रिप्ट होने के लिहाज से भी ये विशेष है। भारतीय फीचर फ़िल्मों के प्रति विश्व के नजरिए को बदलने में जो कोशिश बीते एक-दो साल में कुछ फ़िल्मों ने की है, उसे रितेश की ‘डब्बा’ मीलों आगे ले जाएगी। पूरे विश्व सहित फ़िल्म भारत में भी जल्द ही प्रदर्शित होगी। जब भी हो जरूर देखें, अन्यथा आज नहीं तो 15-20 साल बाद, देरी से, खोजेंगे जरूर।

रितेश बत्रा से तुरत-फुरत में बातचीत हुई। बीते दिनों में जितने भी फ़िल्म विधा के लोगों से बातचीत हुई है उनमें ये पहले ऐसे रहे जिनका पूरा का पूरा ध्यान स्क्रिप्ट पर रहता है, फ़िल्म तकनीक पर या भारतीय, गैर-भारतीय फ़िल्मकारों की शैली के उन पर असर पर आता भी है तो बहुत बाद में, अन्यथा नहीं आता। प्रस्तुत हैः

फैमिली कहां से है आपकी? आपका जन्म कहां हुआ?
बॉम्बे में ही पैदा हुआ हूं, यहीं बड़ा हुआ हूं। मेरे फादर मर्चेंट नेवी में थे, मां योग टीचर हैं। बांद्रा में रहता हूं। बंटवारे के वक्त लाहौर, मुल्तान से मेरे दादा-दादी और नाना-नानी आए थे।

फ़िल्मों की सबसे पहली यादें बचपन की सी हैं? कौन सी देखी? लगा था कि फ़िल्मकार बनेंगे?
फ़िल्मों में काम करने की कोई संभावना नहीं थी। फ़िल्में अच्छी लगती थीं, लिखना अच्छा लगता था। लेकिन आपको पता है कि 80 और 90 के दशक में भारत में फ़िल्मों में आगे बढ़ने और रोजगार बनाने की कोई संभावना कहां होती थी। पर जो भी आती थी देखते थे। गुरु दत्त की फ़िल्में बहुत अच्छी लगती थीं। ‘प्यासा’ हुई, ‘कागज के फूल’ हुई, उनका मजबूत प्रभाव था। वर्ल्ड सिनेमा की तो कोई जानकारी थी ही नहीं बड़े होते वक्त। हॉलीवुड फ़िल्में जो भी बॉम्बे में आती और लगती थीं, वो देखते थे। जब 19 साल का था तब भारत से बाहर पहली बार गया, इकोनॉमिक्स पढ़ने। वहां जाकर पहली बार सत्यजीत रे की फ़िल्में देखीं तो उनका बड़ा असर था। वैसे कोई इतना एक्सपोजर नहीं था यार ईमानदारी से। जो भी हिदीं फ़िल्म और इंग्लिश फ़िल्म आती वो देखते थे।

बचपन में क्या लिखने-पढ़ने का शौक था? उनके स्त्रोत क्या थे आपके पास?
बहुत ही ज्यादा पढ़ता था मैं। आप ‘लंच बॉक्स’ में भी देखेंगे तो साहित्य का असर नजर आएगा। मैं बचपन से ही बहुत आकर्षित था मैजिक रियलिज़्म से, लैटिन अमेरिकन लेखकों से, रूसी लेखकों से। मेरी साहित्य में ज्यादा रुचि थी और मूवीज में कम। अभी भी वैसा ही है, पढ़ता ज्यादा हूं और मूवीज कम ही देखता हूं।

जब छोटे थे तो घर पर क्या कोई कहानियां सुनाता था?
सुनाते तो नहीं थे पर मेरे नाना लखनऊ के एक अख़बार पायोनियर में कॉलम लिखते थे। वो बहुत पढ़ते थे और मुझे भी पढ़ने के हिसाब से कहानियां या नॉवेल सुझाते थे। पढ़ने को वो बहुत प्रोत्साहित करते थे।

स्कूल में आपके लंचबॉक्स में आमतौर पर क्या हुआ करता था?
हा हा हा। मेरे तो यार घर का खाना ही हुआ करता था। थोड़ा स्पाइसी होता था। चूंकि मेरी मदर बहुत स्पाइसी खाना बनाती हैं इसलिए मेरे लंच बॉक्स में से क्या है कि कोई खाता नहीं था। सब्जियां, परांठे और घर पर बनने वाला नॉर्मल पंजाबी खाना होता था। पर मिर्ची ज्यादा होती थी।

साहित्य और क्लासिक्स पढ़ते थे? क्या साथ में कॉमिक्स और पॉपुलर लिट्रेचर भी पढ़ते थे?
कॉमिक्स में तो कोई रुचि नहीं थी कभी भी, अभी भी नहीं है।

Ritesh Batra
घरवालों के क्या कुछ अलग सपने थे आपको लेकर? या वो भी खुश थे आपके फ़िल्ममेकर बनने के फैसले को लेकर?
उन्हें तो मैंने बहुत देर से बताया था। पहले तो मैंने तीन साल इकोनॉमिक्स पढ़ा। बिजनेस कंसल्टेंट था डिलॉयट के साथ। मैंने बाकायदा नौकरी की थी। बाद में वह नौकरी छोड़कर जब फ़िल्म स्कूल गया तब उन्हें बताया। जाहिर तौर पर उनके लिए तो बहुत बड़ा झटका था। उन्होंने सोचा नहीं था कि मैं ऐसा कुछ करूंगा।

कब तय किया कि फ़िल्में ही बनानी हैं?
मैं 25-26 का था तब तय किया कि मुझे कुछ करना पड़ेगा मूवीज में ही। तब मुझे राइटर बनना था। फ़िल्म राइटर बनना था। मुझे पता था कि जब तक पूरी तरह इनवेस्ट नहीं हो जाऊंगा, नहीं होगा। बाकी सारे दरवाजे बंद करने पड़ेंगे। उसके लिए एक ही रास्ता बचा था कि जॉब छोड़कर फ़िल्म स्कूल जॉइन कर लूं। न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के टिश स्कूल ऑफ आर्ट्स फ़िल्म प्रोग्रैम में दाखिला लिया। पांच साल की पढ़ाई थी और बड़ा सघन और डूबकर पढ़ने वाला प्रोग्रैम था। उसे सिर्फ डेढ़ साल किया। सेकेंड ईयर में था तब एक स्क्रिप्ट मैंने लिखी थी जो सनडांस लैब (2009) में चुन ली गई। ये संस्थान बहुत पुराना है। स्टीवन सोडरबर्ग और क्वेंटिन टेरेंटीनों जैसे नामी फ़िल्मकारों की स्क्रिप्ट भी इस लैब से ही गई थी। तो राइटर्स लैब और डायरेक्टर्स लैब दोनों में चुन ली गई मेरी स्क्रिप्ट। इसमें टाइम लग रहा था और पढ़ाई करिकुलम बेस्ड हो रही थी तो मैंने फ़िल्म स्कूल छोड़ दिया। शॉर्ट फ़िल्में बनाने लगा।

यूं नौकरी छोड़ देने से और पढ़ने लगने से पैसे की दिक्कत नहीं हुई?
मेरी सेविंग काफी थी। तीन साल काम किया हुआ था, उस दौरान काफी पैसे बचाए थे। फिर फ़िल्म स्कूल भी तो एक-डेढ़ साल में ही छोड़ने का फैसला कर लिया था, इससे आगे की फीस पर खर्च नहीं करना पड़ा। मेरी वाइफ मैक्सिकन है। वो बहुत प्रोत्साहित करती थी। पेरेंट्स भी प्रोत्साहित करते कि लिखो। कहते थे कि जॉब होनी जरूरी है, फैमिली का ख़्याल रखना जरूरी है। अवसरों के लिहाज से लगता था कि जॉब नहीं छोड़ी होती तो इतने कमा रहा होता, इतना कम्फर्टेबल होता, या ट्रैवल कर पा रहा होता। तो वो सब नहीं कर पा रहा था लेकिन खाने और रहने के पैसे थे।

फ़िल्म स्कूल से निकलने के बाद शॉर्ट फ़िल्म और डॉक्युमेंट्री से कुछ-कुछ कमाने लगे थे या अभी भी आपको वित्तीय तौर पर स्थापित होना है?
नहीं यार, ये शॉर्ट फ़िल्म वगैरह बनाने में तो कोई कमाई नहीं होती। बस सनडैंस लैब का ठप्पा लग गया था तो मुझे बहुत सी मीटिंग लोगों से साथ मिलने लगी। तो मौके थे, टीवी (न्यू यॉर्क में) के लिए लिखने के, लेकिन मैंने वो सब किया नहीं क्योंकि मुझे मूवीज में ही रुचि थी। रास्ते से भटक जाता तो वापस पैसों के पीछे या किसी और चीज के पीछे भागने लगता। इसलिए तय किया कि शॉर्ट्स बनाऊंगा और अपनी लेखनी पर ध्यान केंद्रित करूंगा। तो ऐसी कोई कमाई नहीं हो रही थी, सिर्फ तीन-चार साल पहले मैंने एक शॉर्ट फ़िल्म बनाई थी, ‘कैफै रेग्युलर कायरो’ (Café Regular, Cairo)। उस शॉर्ट से मेरी कमाई हुई, उसे फ्रैंच-जर्मन ब्रॉडकास्टर्स ने खरीद लिया। तो उससे अर्निंग हुई, वैसे इतने साल कोई कमाई नहीं हुई।

पहली बार कब कैमरा हाथ में लिया और शूट करना शुरू किया?
फ़िल्म स्कूल के लिए 2005-06 में अप्लाई किया तो एप्लिकेशन के लिए एक शॉर्ट बनाई। तब पहली बार कुछ डायरेक्ट किया था। उसके बाद मैंने पांच और शॉर्ट बनाईं। एक फ़िल्म स्कूल में रहकर बनाई और चार स्कूल छोड़ने के बाद बनाईं।

न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में फ़िल्म स्कूल वाले दिन कितने रचनात्मक और कितने तृप्त करने वाले थे?
काफी फुलफिलिंग थे। गहन (इंटेंस) थे। लेकिन राइटिंग करने का टाइम मिल नहीं रहा था और मेरे लिए सबसे जरूरी था कि लिखता रहूं और बेहतर लिखता रहूं। इसलिए मुझे जमा नहीं और छोड़ दिया। दूसरा बहुत ही महंगा भी था।

सनडांस का और फ़िल्मराइटिंग का आपको अनुभव है, तो बाकी राइटर्स या आकांक्षी लेखकों को काम की बातें बताना चाहेंगे?
सबसे बड़ी टिप तो मैं यही दूंगा कि किसी की सलाह नहीं सुनने की। क्योंकि हरेक का अपना प्रोसेस होता है, हरेक की अपनी जरूरत होती है और हरेक की अपनी मजबूती होती है। बहुत से डायरेक्टर्स की विजुअल सेंस बहुत मजबूत होती है, रिच होती है, कैरेक्टर डिवेलपमेंट के लिहाज से या राइटिंग के लिहाज से वे कुछ खास नहीं कर पाते। वहीं दूसरी ओर वूडी एलन जैसे भी फ़िल्म डायरेक्टर होते हैं जो सिर्फ ग्रेट राइटर हैं इसलिए लोग उनकी फ़िल्म देखने जाते हैं। तो बंदा खुद ही जानता है कि उसकी मजबूती क्या है, वह किस बात में खास है। उसे अपनी कमजोरी और मजबूती देखनी चाहिए। किसी की सलाह नहीं लेनी चाहिए। उसे ईमानदारी से सोचना चाहिए कि मेरे में क्या कमी है और मैं क्या बेहतर कर सकता हूं।

आपकी स्टोरीराइटिंग कैसे होती है? प्रोसेस क्या होता है?
मुझे तो यार लिखने में बहुत टाइम लगता है। ऐसा कोई प्रोसेस नहीं है कि पहले कुछ आइडिया आए फिर उस पर कुछ रिसर्च करना शुरू करें, वो वर्ल्ड से या कैरेक्टर बेस्ड हो। मुझे लगता है ये सब अंदर से आना चाहिए। मेरा प्रोसेस बस इतना है कि पहले मैं कुछ सोचता हूं। जब किसी चीज के प्रति एक्साइटेड होने लगता हूं तो अपने आप एक अनुशासन आ जाता है कि सुबह उठकर 8 से 11 या 8 से 12 या 8 से 2 बजे तक बैठकर लिखना है। तो इस तरह कहानी के एक खास स्तर तक पहुंचते ही अपने आप राइटिंग का डिसिप्लिन आ जाता है। मेरा राइटिंग प्रोसेस काफी लंबा होता है, महीने या साल लग जाते हैं।

‘डब्बा’ बुनियादी तौर पर बेहद सीधी फ़िल्म है, लेकिन फिर भी ये इतनी बड़ी हो सकती थी, क्या आपने लिखते वक्त सोचा था?
मुझे लगा कि लोगों को अच्छी लगेगी, इतनी अच्छी लगेगी नहीं सोचा था। अवॉर्ड मिलेंगे ये नहीं सोचा था। तब तो यही लगा कि अच्छी कहानी होगी और इसकी अच्छी शेल्फ लाइफ होगी और उसके बाद मुझे दूसरी फ़िल्में मिल जाएंगी। ये नहीं सोचा था कि इतने कम वक्त में इतना कुछ हो जाएगा।

शूट कितने दिन का था और कहां किया?
29 दिन का प्रिंसिपल शूट था फिर बाकी छह दिन हमने डिब्बे वालों को फॉलो किया था डॉक्युमेंट्री स्टाइल में। पूरी स्टोरी बॉम्बे में ही स्थित है और शूटिंग वहीं हुई सारी।

इरफान का किरदार जिस दफ्तर में काम करता है वो कहां है?
चर्चगेट में है, रेलवे का दफ्तर है।

Irfan and Nawaj, in a still from the movie.
इरफान और नवाज को पहले से जानते थे या फ़िल्म के सिलसिले में ही मुलाकात हुई?
नहीं, पहले से तो मैं किसी को नहीं जानता था। प्रोड्यूसर्स के जरिए उनसे संपर्क किया। उन्हें स्क्रिप्ट दी तो अच्छी लगी। एक बार मिला, उन्होंने हां बोल दिया। शूट से पहले तो बहुत बार मिले। कैरेक्टर्स डिस्कस किया। बाकी जान-पहचान शूटिंग के दौरान ही हुई।

इन दोनों में क्या खास बात लगी आपको?
दोनों ही इतने अच्छे एक्टर्स हैं, केंद्रित हैं, किरदार को अपना हिस्सा मानने लगते हैं, पर्सनली इनवॉल्व्ड हो जाते हैं। जो मैंने लिखा उसे दोनों ने और भी गहराई दे दी। उनके साथ काम करना तो बड़ी खुशी थी। मैंने बहुत सीखा उनसे।

सेट पर उनके होने की ऊर्जा महसूस होती थी?
वैसे दोनों ही बहुत रेग्युलर और विनम्र हैं। सेट पर तो काम पर ही ध्यान देते थे हम लोग। बातें करते थे कि कैसे और बेहतर बनाएं फ़िल्म को, कैसे जो मटीरियल हमारा है उसमें और गहराई में जाएं। हम लोग नई-नई चीजें ट्राई करते थे, विचार करते थे। उनके कद का कोई प्रैशर नहीं महसूस हुआ। उन्होंने भी कभी फील नहीं करने दिया कि वे इतने सक्सेसफुल हैं। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि वो इतने फोकस्ड होंगे। लेकिन मुझे लगता है आप सही हैं, अब फ़िल्म के बाद जब सोचता हूं तो लगता है।

आप खाना अच्छा बनाते हैं। फ़िल्म में जो डिश नजर आती हैं वो आपने पकाई थीं?
नहीं नहीं, मैंने नहीं बनाई थीं। सेट पर एक पूरी टीम थी फूड स्टाइलिस्ट्स की। क्योंकि खाना अच्छा दिखना बहुत जरूरी था। बहुत सारे लोग इन्वॉल्व्ड थे हरेक शॉट के पीछे। हमारे पास बहुत अच्छे फूड स्टाइलिस्ट थे जो खाने का ध्यान रख रहे थे।

फ़िल्म के विजुअल्स को लेकर आपके और डीओपी (Michael Simmonds) के बीच क्या डिस्कशन होते थे?
दो महीने पहले से विचार-विमर्श चल रहा था। वो तभी न्यू यॉर्क से बॉम्बे आए थे। स्क्रिप्ट को टुकड़ों में तोड़ा था, हर लोकेशन के मल्टीपल प्लैन थे और पूरा शूटिंग प्लैन बनाया था। प्री-प्रोडक्शन मूवी का छह महीने पहले शुरू कर दिया था। फ़िल्म के किरदार मीना की कहानी उसके फ्लैट के अंदर ही चलती है। वो फ्लैट हमने शूट के चार महीने पहले देखा और तय कर लिया था। हम वहां रोज बैठते थे, चीजें डिस्कस करते थे। उसकी शूटिंग पहले कर ली। हरेक डिपार्टमेंट के साथ, प्रोडक्शन डिजाइनर के साथ, डीओपी के साथ, कॉस्ट्यूम्स के साथ तैयारी बहुत ज्यादा थी।

आप दोनों का विजुअल्स को लेकर विज़न क्या था?
चूंकि मूवी कैरेक्टर ड्रिवन है और मुंबई व फूड इसके महत्वपूर्ण कैरेक्टर हैं, तो मेरा सबसे बड़ा एजेंडा था स्क्रिप्ट को ब्रेकडाउन करना और डीओपी को मेरा निर्देश था कि किरदारों के साथ ज्यादा से ज्यादा बिताना है। उससे जरूरी चीजें कुछ न थी। फूड के अलग-अलग शॉट्स लेने या बॉम्बे के मादक शॉट्स लेने से ज्यादा जरूरी ये था। हम रात के 12-12 बजे तक कैरेक्टर्स के साथ वक्त बिताते थे।

फ़िल्म के म्यूजिक के बारे में बताएं।
ज्यादा है नहीं म्यूजिक तो। गाने हैं नहीं, बैकग्राउंड स्कोर भी बहुत सीमित है। साउंड डिजाइन का अहम रोल है। वो कैरेक्टर की यात्रा दिखाता है। इसके लिए मुख्यतः सिटी का साउंड और एनवायर्नमेंट का साउंड रखा गया है। मेरी बाकी मूवीज में भी ऐसे ही सोचा और किया है। डब्बा में 14 क्यू (cues – different part/pieces of soundtrack ) हैं और म्यूजिक बहुत ही अच्छा है। इसे जर्मन कंपोजर हैं मैक्स रिक्टर ने रचा है।

‘द स्टोरी ऑफ राम’ के बारे में बताएं।
एक स्क्रिप्ट है जिस पर मैं काम कर रहा हूं और ‘डब्बा’ के बाद उसी पर लौटना चाहूंगा। ये बहुत पहले से (2009) दिमाग में है, चूंकि मेरा राइटिंग प्रोसेस बहुत स्लो और थकाऊ है तो वक्त लगता है। इस पर अभी क्या बताऊं। जब हो जाएगी तब बताता हूं।

‘कैफे रेग्युलर कायरो’...
ये एक शॉर्ट फ़िल्म है जो मैंने कायरो में बनाई थी। उसके लिए मैंने कायरो में बहुत सारा वक्त बिताया। ‘लंचबॉक्स’ भी मैंने कायरो में ही लिखी थी।

“The Morning Ritual” – Watch here:

“Café Regular, Cairo” – Watch here:


Ritesh Batra was born and raised in Mumbai, and is now based in Mumbai and New York with his wife Claudia and baby girl Aisha. His feature script 'The Story of Ram' was part of the Sundance Screenwriters and Directors labs in 2009. His short films have been exhibited at many international film festivals and fine arts venues. His Arab language short 'Café Regular, Cairo', screened at over 40 international film festivals and won 12 awards. Café Regular was acquired by Franco-German broadcaster, Arte. His debut feature 'The Lunchbox' (English, Hindi) starring Irrfan Khan, Nawazuddin Siddique, and Nimrat Kaur, was shot on location in Mumbai in2012. 'The Lunchbox' premiered at the Semaine De La Critique (International Critics Week) at the 2013 Cannes International Film Festival to rave reviews. It won the Grand Rail d'Or Award and was acquired by Sony Pictures Classics.
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मानो मत, जानोः “एक मिनट का मौन” ...बलिदानों के लिए

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हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फिल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary...A Minute of Silence (1997), by Ajay Bhardwaj.

Chandrashekhar in a still from the film.
1997 में 31 मार्च की शाम, बिहार के सीवान ज़िले में नुक्कड़ सभाएं कर रहे चंद्रशेखर प्रसाद को जे.पी. चौक पर गोली मार दी गई। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े युवा छात्र नेता थे। अपने गृह ज़िले लौटे थे क्योंकि बेहतर दुनिया बनाने का जो ज्ञान ऊंची-ऊंची बातों और मोटी-मोटी किताबों से लिया था, उसे फैंसी कैंपस की बजाय बुनियादी स्तर पर ही जाकर उपजाना था। सीवान के खौफज़दा माहौल में जहां सांसद शहाबुद्दीन का आंतक था, चंद्रशेखर ने आवाज बुलंद की थी। स्थानीय स्तर पर इतने अनूठे, तार्किक और खुले विचारों के सिर्फ दो ही नतीजे निकलने थे। पहला था बदलाव हो जाना, राजनीति में अपराधीकरण खत्म हो जाना और दूसरा था मृत्यु।

इस बार भी हत्यारा उतना ही अलोकतांत्रिक और अपराधी था जितना कि 1989 में पहली जनवरी को लेखक और रंगकर्मी सफ़दर हाशमी की नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ के बीच हत्या करने वाला स्थानीय कॉन्ग्रेसी नेता। आज़ाद भारत में इन दो युवा कार्यकर्ताओं की हत्या ने भय के माहौल को और भी बढ़ाया है। लेकिन हौंसला आया है तो उसके बाद देश में हुए व्यापक प्रदर्शनों से। जिनके वो सबसे करीबी थे, वो ही आंसू पौंछकर सबसे आगे डटे थे। सफ़दर की मौत के दो दिन बाद उनकी पत्नी मॉलोयश्री ‘जन नाट्य मंच’ के साथ उसी जगह पर वापस लौटीं और उस अधूरे नुक्कड़ नाटक को पूरा किया। उसी तरह चंद्रशेखर की बूढ़ी मां ने अविश्वसनीय हौंसला दिखाते हुए बिना कमजोर पड़े, दोषियों को सरेआम फांसी देने की मांग की। हर रैली में वह दौड़-दौड़कर आगे बढ़ीं।

चंद्रशेखर प्रसाद की हत्या के बाद दिल्ली, सीवान और देश में बने गुस्से के माहौल को निर्देशक अजय भारद्वाज की ये डॉक्युमेंट्री बेहतर समझ से दस्तावेज़ करती है। स्वर सिर्फ शोक के नहीं होते बल्कि उस बलिदान की सम्मानजनक प्रतिक्रिया वाले भी होते हैं। फ़िल्म के बीच-बीच में बहुत बार खुद चंद्रशेखर को सुनने का मौका मिलता है, उनके व्यक्तित्व और विचारों को समझने का मौका मिलता है जो कि दीर्घकाल में न जाने कितने युवाओं के काम आ सकता है। फ़िल्म के शुरू में चंद्रशेखर और अन्य गांव वालों के शवों वाले दृश्य भौचक्का करते हैं, शहरों में बैठों का मानवीय समाज में रहने का भरम टूटता है। ‘एक मिनट का मौन’ देखना अपने असल समाजों के प्रति जागरूक होना है। अजय ने बनाकर कर्तव्य निभाया है, हमें सीखकर, लागू करके इस्तेमाल को सार्थक करना है।

“A Minute of Silence - Watch the full documentary here:

It was a late afternoon in Siwan, a small town in the Indian state of Bihar. A young leader, after already having addressed four street corner meetings, is on his way to JP Chowk to address another, quite unmindful of his apparently impossible dreams in a very cynical present. He is sighted by some associates of a local Member of Parliament, a notorious mafia Don. The young leader is Chandrashekhar Prasad. Seconds later he is killed.

The news spreads. Reaches Jawaharlal Nehru University in Delhi. The premier institute of whose students’ union Chandrashekhar was twice the president. There is an anger, a fury which refuses to subside…The Government refuses to respond. The apathy and ignoble silence so uniquely its hallmark and preserve. This apathy, this grief, this indifference, this hurt. This is what ‘Ek Minute Ka Maun’ sets to establish. Piecing together scenes from the agitation and combining with it the portrait of Chandrashekhar. The man and the leader, the rebel and the dreamer. An unwitting pawn, but a willing activist, caught in the spidery web of criminal – political nexus. But dreams do not die after Chandu. They live on, still hopeful, still optimistic. Very much like him.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

मानो मत, जानोः “कित्ते मिल वे माही” ...अभूतपूर्व पंजाब

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हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary..Where the twain shall meet (2005), by Ajay Bhardwaj.

“ जो लड़ना नहीं जाणदे
  जो लड़ना नहीं चौंदे ...
  ... ओ ग़ुलाम बणा लये जांदे ने ”
           - लाल सिंह दिल, क्रांतिकारी कवि और दलित
              जीवन के बाद के वर्षों में इस्लाम अपना लिया

Lal Singh Dil, in a still.
उस दुपहरी में अपने पड़ोसी के साथ ऐसे पार्क में बैठे लाल सिंह दिल, जहां कोई न आता हो। जरा नशे में, पर होश वालों से लाख होश में। वहां का सूखापन और गर्मी जलाने लगती है, उन्हें नहीं मुझ दर्शक को। वो तपन महसूस करवा जाना अजय भारद्वाज की इस फ़िल्म की कलात्मक सफलता है, कथ्यात्मक सफलता है और जितनी किस्म की भी सफलता हो सकती है, है। इस डॉक्युमेंट्री को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा। कभी नहीं। लाल सिंह दिल जैसे साक्षात्कारदेयी और उनके उस दोस्त और पड़ोसी शिव जैसा साक्षात्कारकर्ता मैंने कभी नहीं देखा। विश्व सिनेमा के सबसे प्रभावी साक्षात्कार दृश्यों में वो एक है। अभिनव, अद्भुत, दुर्लभ।

लाल सिंह के विचार आक्रामक हैं। वो देश के उन तमाम समझदार लोगों के प्रतिनिधि हैं जो इसी समाज में हमारे मुहल्लों-गलियों में रहते हैं, पर चूंकि वैचारिक समझ का स्तर सत्य के बेहद करीब होने की वजह से उनका रहन-सहन और एकाकीपन समाज के लोगों की नासमझ नजरों को चुभता है, तो हम एक बच्चे के तौर पर या व्यस्क के तौर पर उनके करीब तक कभी नहीं जा पाते। कभी उनसे पूछ नहीं पाते कि ये दुनिया असल में क्या है? हमारे इस संसार में आने का व्यापक उद्देश्य क्या है? हमारे समाज ऐसे क्यों हैं? ये समाज की प्रतिष्ठासूचक इबारतें कैसे तोड़ी या मोड़ी जा सकती हैं? कैसे इंसान और मानवीय बनाए जा सकते हैं? काश, हम छुटपन में ऐसे किसी लाल सिंह दिल के पास बैठते तो एक बेहतर इंसान होते। समाजी भेदभाव के भविष्य पर दार्शनिक और दमपुख़्त यकीन भरी नजरें लिए एक मौके पर वे कहते भी है न,

“ जद बोहत सारे सूरज मर जाणगे
 तां तुहाडा जुग आवेगा...” 
  When many suns die
  Your era will dawn...

‘कित्ते मिल वे माही’ हमें उस पंजाब में ले जाती है, जहां पहले कोई न लेकर गया। पंजाबी फ़िल्मों, उनके ब्रैंडेड नायकों, यो यो गायकों और पंजाबियों की समृद्ध-मनोरंजनकारी राष्ट्रीय छवि ने हमेशा उस पंजाब को लोगों की नजरों से दूर रखा। जाहिर है उनके लिए वो पंजाब अस्तित्व ही नहीं रखता। सन् 47 के रक्तरंजित बंटवारे के बाद इस पंजाब में न के बराबर मुस्लिम पंजाबी बचे। उनके पीछे रह गईं तो बस सूफी संतों की समाधियां। डॉक्युमेंट्री बताती है कि ये सूफी फकीरों की मजारें आज भी फल-फूल रही हैं। खासतौर पर समाजी बराबरी में नीचे समझे जाने वाले भूमिहीन दलितों के बीच, जो आबादी का 30 फीसदी हैं। जैसे, बी.एस. बल्ली कव्वाल पासलेवाले पहली पीढ़ी के कव्वाल हैं। उनके पिता मजदूरी करते थे और इन्होंने उस सूफी परंपरा को संभाल लिया। सूफी और दलितों का ये मेल आश्चर्य देता है। और इसे सिर्फ धार्मिक बदलाव नहीं कहा जा सकता, ये सामाजिक जागृति का भी संकेत है। महिला-पुरुष का भेद भी यहां मिटता है। जैसे, हम सोफीपिंड गांव में संत प्रीतम दास की मजार देखते हैं, जो दुनिया कूच करने से पहले अपने यहां झाड़ू निकालने वाली अनुयायी चन्नी को गद्दीनशीं कर चन्नी शाह बना गए।

फ़िल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा 1913 से 1947 तक गदर आंदोलन के नेता रहे बाबा भगत सिंह बिल्गा भी हैं। उन्हें देखना विरला अनुभव देता है। वे और लाल सिंह दिल फ़िल्म बनने के चार साल बाद 2009 में चल बसे। ऐसे में जो हम देख रहे हैं उसका महत्व अगले हजार सालों के लिए बढ़ जाता है। डॉक्युमेंट्री के आखिर में लाल सिंह ये मार्मिक और अत्यधिक समझदारी भरी पंक्तियां सुनाते हैं...

“ सामान, जद मेरे बच्चेयां नूं सामान मिल गया होऊ
 तां उनाने की की उसारेया होवेगा…
 ... बाग़
 ... फसलां
 ... कमालां चो कमाल पैदा कीता होवेगा उनाने
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ ”

(कृपया ajayunmukt@gmail.com पर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी 'पंजाब त्रयी'की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Where The Twain Shall Meet” - Watch an extended trailer here:

Punjab was partitioned on religious lines amidst widespread bloodshed in 1947, and today there are hardly any Punjabi Muslims left in the Indian Punjab. Yet, the Sufi shrines in the Indian part of Punjab continue to thrive, particularly among so-called ‘low’ caste Dalits that constitutes more than 30% of its population. Kitte Mil Ve Mahi explores for the first time this unique bond between Dalits and Sufism in India. In doing so it unfolds a spiritual universe that is both healing and emancipatory. Journeying through the Doaba region of Punjab dotted with shrines of sufi saints and mystics a window opens onto the aspirations of Dalits to carve out their own space. This quest gives birth to ‘little traditions’ that are deeply spiritual as they are intensely political.

Enter an unacknowledged world of Sufism where Dalits worship and tend to the Sufi Shrines. Listen to B.S. Balli Qawwal Paslewale – a first generation Qawwal from this tradition. Join a fascinating dialogue with Lal Singh Dil – radical poet, Dalit, convert to Islam. A living legend of the Gadar movement, Bhagat Singh Bilga, affirms the new Dalit consciousness. The interplay of voices mosaic that is Kitte Mil Ver Mahi (where the twain shall meet), while contending the dominant perception of Punjab’s heritage, lyrically hint at the triple marginalisation of Dalits: economic, amidst the agricultural boom that is the modern Punjab; religious, in the contesting ground of its ‘major’ faiths; and ideological, in the intellectual construction of their identity.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

शोएब मंसूर की ‘बोल’ के बाद अब पाकिस्तान से आ रही है ‘जिंदा भाग’; बातें निर्देशकों मीनू गौड़ व फरज़ाद नबी से

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 Q & A..Meenu Gaur& Farjad Nabi, director duo of Pakistani film “Zinda Bhaag”.

Farjad Nabi and Meenu Gaur, during the shooting of "Zinda Bhaag."
भारीटैक्स और सेंसरशिप के बीच छटपटाती पाकिस्तान की फ़िल्म इंडस्ट्री में बनीं तो ‘जट्ट दे गंडासे’ जैसी ही फ़िल्में, जैसी भारतीय पंजाब में काफी वक्त तक बनती रहीं। इस बीच भारत में बैठकर हमें अगर पाकिस्तानी सिनेमा की ख़ैरियत मिलती रही तो सबीहा सुमर की फ़िल्म ‘ख़ामोश पानी’ (2003) से, शोएब मंसूर की ‘ख़ुदा के लिए’ (2007) से और मेहरीन जब्बार की ‘रामचंद पाकिस्तानी’ (2008) से। बेहद अच्छी फ़िल्में रहीं। दो साल पहले मंसूर की ही फ़िल्म ‘बोल’ भी आई। कोई भी दर्शक, चाहे वो मामूली समझ-बूझ वाला हो या बेहद बुद्धिजीवी, ऐसा नहीं था जिसे इस फ़िल्म ने भीतर तक नहीं छुआ। जब-जब ‘बोल’ की बात आज भी होती है, आदर के साथ होती है। पाकिस्तानी सिनेमा को वहां से आगे ले जाने की कोशिश करती एक और फ़िल्म तैयार है। नाम है ‘जिंदा भाग’। वहां के सिनेमा के लिए ये वही काम कर सकती है जो भारतीय सिनेमा के लिए ‘खोसला का घोंसला’ ने किया।

इस फ़िल्म को बनाया है प्रोड्यूसर मज़हर ज़ैदी और डायरेक्टर द्वय फरज़ाद नबी और मीनू गौड़ ने। अपनी ही मेहनत, सोच और छोटी-छोटी संघर्ष भरी कोशिशों से इन्होंने एक परिपूर्ण फ़िल्म बनाने का ख़्वाब देखा है। फ़िल्म की कहानी तीन पाकिस्तानी लड़कों की है जो अपनी-अपनी जिदंगी की परेशानियों को दूर करने और समृद्ध होने के ख़्वाबों को पाने के लिए ‘डंकी मार्ग’ यानी गैर-कानूनी इमिग्रेशन का रास्ता अख़्तियार करते हैं। बेहद सच्ची परिस्थितियों और सार्थक मनोरंजन के बीच ही फ़िल्म को रखने की कोशिश की गई है। नसीरूद्दीन शाह भी एक प्रमुख भूमिका कर रहे हैं। इसमें ‘बोल’ में दकियानूसी ख़्यालों वाले पिता की बेहतरीन भूमिका करने वाले मंजर सहबई भी थोड़ी देर के लिए नजर आएंगे। फ़िल्म में एक अभिनेत्री और तीन नए अभिनेता (आमना इल्यास, खुर्रम पतरास, सलमान अहमद ख़ान, जोएब) केंद्रीय भूमिकाओं में हैं। संगीत साहिर अली बग्गा ने दिया है जो पंजाबी फ़िल्म ‘विरसा’ का लोकप्रिय गीत “मैं तैनू समझावां की...” गा चुके हैं। ‘जिंदा भाग’ के गाने राहत फतेह अली ख़ान, आरिफ लोहार, अमानत अली और सलीमा जव्वाद ने गाए हैं।

प्रोड्यूसर मज़हर और फरज़ाद पहले जर्नलिस्ट रहे हैं, बाद में फ़िल्म निर्माण में आ गए। गंभीर मिजाज के फरज़ाद को उनकी डॉक्युमेंट्री ‘नुसरत इमारत से निकल गए हैं... लेकिन कब?’ (Nusrat has Left the Building... But When?) और ‘प्रोफेसर का यकीन कोई नहीं करता’ (No One Believes the Professor) के लिए जाना जाता है। इसे साउथ एशिया में कई पुरस्कार मिले। इसके अलावा उनके लिखे पंजाबी स्टेज प्ले ‘अन्ही चुन्नी दी टिक्की’ (Bread of Chaff & Husk) और ‘जीभो जानी दी कहानी’ (The Story of Jeebho Jani) हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। वहीं मीनू भारत की ही रहने वाली हैं। मज़हर से शादी के बाद वह पांच साल से कराची और लंदन के बीच बसेरा करती हैं। वह जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली से पढ़ी हैं। 2010 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से फ़िल्म और मीडिया स्टडीज में पीएचडी की। इसके लिए उन्हें फेलिक्स स्कॉलरशिप और चार्ल्स वॉलेस स्कॉलरशिप प्राप्त हुई। वह एक पुरस्कृत डॉक्युमेंट्री फ़िल्म ‘पैराडाइज ऑन अ रिवर ऑफ हेल’ (Paradise On A River Of Hell) का निर्देशन कर चुकी हैं।

अपनी फ़िल्म को अगले महीने यानी अगस्त तक पाकिस्तान, पश्चिमी देशों और भारत में रिलीज करने की योजना बना रहे फरज़ादऔर मीनू से बातचीत हुई:

Poster of the movie.
 Q..जिंदा भाग का ‘आइडिया’ सबसे पहले कब आया? किस्सा क्या था?
फरज़ाद नबीःजब आप गैर-कानूनी अप्रवासियों (इमिग्रेशन) की कहानियां सुनते हैं तो फैक्ट और फिक्शन की लाइन मिटती चली जाती है। इन कहानियों में हीरोइज़्म और ट्रैजेडी आपस में उलझते होते हैं। जब हमने अपने दोस्तों से ऐसी कहानियां इकट्ठी कीं तो हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल था कि वो कौन सी जरूरत, ख़्वाहिश या दबाव हैं जो हमारे मुल्क (भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका) के नौजवान लड़कों को गैर-कानूनी इमिग्रेशन या ‘डंकी का रास्ता’ चुनने पे मजबूर करते हैं। इसी सवाल के जवाब में ये स्क्रिप्ट लिखी गई।
मीनू गौड़ःहमारी फ़िल्म ‘जिंदा भाग’ एक साउथ एशिया फ़िल्म प्रोजेक्ट के साथ जुड़ी है, जिसकी थीम मैस्क्युलिनिटी है। जब हम इस फ़िल्म की रिसर्च पर निकले तो हमें एहसास हुआ कि अपनी जान पे खेल के, डंकी के रास्ते फॉरेन जाने को मर्दानगी का इज़हार माना जाता है। इस नज़रिए में जिदंगी को एक जुए के तौर पर बरता जाता है और नौजवान लड़के हर समय किसी शॉर्टकट या जैकपॉट की ताक में रहते हैं। रिसर्च के दौरान हमें इन लड़कों की खीझ का अंदाजा हुआ। आज के दौर में सक्सेस और सक्सेसफुल होने का प्रैशर एक तरफ और दूसरी तरफ ये एहसास कि हर जायज रास्ता आपके लिए बंद है, हमारी फ़िल्म इसके दरमियां की कहानी बयां करती है।

 Q..उस कहानी को स्क्रिप्ट की शक्ल देने तक आप दोनों में क्या विमर्श चले? फ़िल्म और उसके संदेश के पीछे पूरी बहस क्या रही?
 मीनूः असल मैं स्टोरी और स्क्रिप्ट साथ-साथ डिवेलप हुए। कुछ राइटर्स के पास पहले स्टोरी होती है और कुछ को पता नहीं होता कि ये स्टोरी क्या दिशा लेगी। हमारे पास शुरू में कुछ सीन्स थे, पूरे-पूरे, डायलॉग्स समेत। हमें फिर बाकी सीन तक पहुंचने का रास्ता बनाना पड़ता। आई थिंक, ये तरीका ज्यादा मुश्किल है और अगली बार हमने ठान ली कि पहले कहानी और फिर सीन और डायलॉग्स की डीटेल। लेकिन हमारे इस तरीके का फायदा ये था कि हमें हर डायलॉग और सीन के पीछे बहुत खास मोटिवेशंस सोचने पड़ते। शायद ज्यादा स्पॉनटेनियस भी था ये प्रोसेस। एक राइटर के तौर पर बहुत संतुष्टि होती है जब आप ये नहीं जानते कि आपके कैरेक्टर्स अब क्या करने लगेंगे। इस प्रोसेस में ज्यादा एक्साइटमेंट भी होती है और ये ज्यादा तकलीफ भरा भी होता है।
फरज़ादःमैसेज पर ये स्पष्टता थी कि फ़िल्म की आवाज असली होनी चाहिए, नक़ली नहीं। कुछ कैरेक्टर्स मुक़म्मल तौर पर रीराइट हुए क्योंकि उनकी आवाज स्वाभाविक नहीं थी। फिर स्ट्रक्चर के ऊपर बहुत मेहनत हुई क्योंकि इस फ़िल्म के ढांचे में एक बहुत अनोखा तत्व है जो देखिएगा, अभी ज्यादा नहीं कह सकता।

 Q..क्या ऐसा भी है कि फरज़ाद ने कहानी के तीन लड़कों की हरकतें, अदाएं और सोच बचपन या जवानी के असल दोस्तों से पाई? और कहानी की बड़बोली हीरोइन के चारित्रिक गुण मीनू ने अपनी किसी सहेली में देखे और याद रखे?
फरज़ादःऐसा सख़्त विभाजन तो बिल्कुल नहीं था। तमाम किरदार एक मुसलसल बहाव का हिस्सा हैं। कभी मुझे कोई आइडिया आता तो मीनू उसको शेप करतीं, और कभी मीनू के आइडिया को मैं शक्ल देता। अंत में ये किसी को याद भी नहीं रहता कि आइडिया किसका था और लाइन्स किसकी। ये हमारी ताकत है।
मीनूःहर राइटर अपने आस-पास के लोगों से प्रेरित किरदार और व्यक्तित्व लिखते हैं। लेकिन लिखने के प्रोसेस के दौरान वो किरदार इतने तब्दील हो जाते हैं कि फिर पहचाने नहीं जाते। एक कैरेक्टर सिर्फ एक रियल पर्सन से नहीं बल्कि सैकड़ों लोगों को मिला के बनता है। तो रुबीना के किरदार के डीटेल्स एक से ज्यादा लोगों से प्रेरित हैं। जब कल्पना उस प्रेरणा पे काम शुरू करती है तो ओरिजिनल प्रेरणा बहुत पीछे छूटती जाती है।

 Q..नसीरूद्दीन शाह को कैसे प्रस्ताव भेजा? क्या उन्हें लेने से सबका ध्यान सिर्फ उन्हीं पर केंद्रित होकर नहीं रह जाएगा?
मीनूःजब हम ‘पहलवान’ का किरदार लिख रहे थे तो हमें पता था कि इस रोल को सिर्फ और सिर्फ एक बहुत पहुंचे हुए एक्टर अदा कर सकते हैं। ये एक मुश्किल रोल था। जब हम सोचने लगे तो बस बार-बार नसीरूद्दीन शाह साहब का ही जिक्र होता। फिर हमने तय किया कि हमें अपनी स्क्रिप्ट उन्हें भेजनी चाहिए। हमें उम्मीद नहीं थी कि कोई जवाब आएगा। मैं आज तक हैरान हूं कि नसीर साहब ने एक डाक में आई हुई स्क्रिप्ट पढ़ी।
फरज़ादःइसमें हमारे प्रोड्यूसर मज़हर ज़ैदी का भी बड़ा रोल है। जब हमने उन्हें कहा कि हम इस रोल में नसीर साहब को देखते हैं तो उन्होंने हमें हतोत्साहित करने के बजाय कहीं से नसीर साहब का पता निकाला और स्क्रिप्ट भेजी। जब नसीर साहब ने स्क्रिप्ट पढ़ी तो बहुत प्रेरित हुए और कहा कि “ये मैं जरूर करूंगा क्योंकि ये रोल लाखों में एक है”। सेट पर वो सबको साथ लेकर चले जिससे हमारे नए एक्टर्स का आत्म-विश्वास बहुत बढ़ा। फ़िल्म देखते हुए बिल्कुल भी ध्यान इस तरफ नहीं जाता कि नसीर साहब एक स्टार हैं।

 Q..“मैं आपको रसगुल्ले की मिठास से ज्यादा, इमली की खटास से ज्यादा और पाकिस्तान में करप्शन से ज्यादा प्यार करती हूं,” …ऐसे डायलॉग का जन्म कैसे हुआ? कितनी आजादी से लिख पाए?
फरज़ादःजिसको कहते हैं न, असली घटनाओं से प्रेरित, बस इस डायलॉग की उत्पत्ति भी कुछ ऐसी ही रही। जो पहले दीवारों की पुताई से लिखे होते थे, अब टेक्स्ट मैसेज हो गए हैं।
मीनूःहमारी ये कोशिश थी कि हम उस भाषा में लिखें जो कि लाहौर के किसी मुहल्ले की एक पीढ़ी की नेचुरल ज़बान लगे, ऑथेंटिक लगे। इसके लिए हमने अपने एक्टर्स के साथ बहुत वर्कशॉप कीं, इम्प्रोवाइजेशन किए। इसी वजह से हमने ये फैसला भी लिया कि हम प्रफेशनल एक्टर्स को कास्ट नहीं करेंगे, मेन लीड में ऐसे लड़कों को कास्ट करेंगे जो उसी मुहल्ले से हों और उसी पर्सनैलिटी के हों, जिस तरह के हमारे तीन लीड कैरेक्टर हैं। फिर हमने बहुत ऑडिशन किया और सलेक्शन के बाद दो महीने तक वर्कशॉप और रिहर्सल्स भी किए। इनमें एक वर्कशॉप नसीर साहब ने भी करवाई। कुल-मिलाकर हम ये कहानी उसी तरह और उसी अंतरंगता के साथ परदे पर लाना चाहते थे जिस तरह हमने खुद उसे देखा... एक दोस्त, कजिन या पड़ोसी की कहानी।

 Q..अपनी फ़िल्म के लिए आप लोग कैसा संगीत चाहते थे? उसके लिए साहिर अली बग्गा पहली पसंद कैसे बने?
फरज़ादः ‘जिंदा भाग’ का संगीत परिस्थितिजन्य है और कहानी के नैरेटिव को आगे लेकर बढ़ता है। हमने हर गाने की सिचुएशन विस्तार से सोची हुई थी और हमारे पास काफी संदर्भ भी थे कि किस किस्म का साउंड चाहते हैं। ये बग्गा का कमाल है कि उसने स्क्रिप्ट के मुताबिक म्यूजिक बनाया और सिंगर्स चुने।
मीनूः फरज़ाद और मैं दोनों ही पुरानी फ़िल्मों और गानों के फैन हैं। और फिर एक जमाना था जब लॉलीवुड एक फलती-फूलती इंडस्ट्री थी। मैडम नूरजहां और मेहदी हसन जैसे प्लेबैक सिंगर थे। हम दोनों की सोच है कि फिल्मी गानों का जो कायापलट हुआ है हाल ही के सालों में, वो अकल्पनीय है। गानों को ‘आइटम’ की तरह ट्रीट किया जाता है। फ़िल्म कोई वैरायटी शो तो नहीं कि उसमें आइटम हों। पुरानी फ़िल्मों के गाने उन हालातों या इमोशंस को जाहिर करते थे जिनको आप डायलॉग के जरिए नहीं कह सकते थे। जैसे कि एक निचले या गरीब वर्ग का इंसान अमीरों की ओर तंज करे, या कोई आध्यात्मिक असमंजस (spiritual dilemma) हो, या प्यार की बात हो। हम फिल्मी गानों के उस दौर को रेफरेंस रख कर चलना चाहते थे। बग्गा का ये कमाल है कि वो इस सोच को और भी आगे तक लेकर गए। उन्होंने पूरी तरह लाइव इंस्ट्रूमेंट्स से हमारी फ़िल्म का म्यूजिक तैयार किया है।

 Q..पोस्ट-प्रोडक्शन इंडिया में कहां किया? अब जब बेहद कम टेक्निकल संसाधनों में भी एडिटिंग, डबिंग, साउंड मिक्सिंग और पोस्ट-प्रोडक्शन हो जाता है, फिर इस काम के लिए पाकिस्तान क्या उपयुक्त स्थान नहीं था? इससे पोस्ट-प्रोडक्शन सुविधाओं को भी वहां बढ़ावा मिलता।
फरज़ादःकुछ पोस्ट-प्रोडक्शन मुंबई में हुआ और कुछ कराची में। इनमें से कई सुविधाएं पाकिस्तान में उपलब्ध नहीं हैं। आमतौर पर डायरेक्टर्स बैंकॉक जाते हैं, हमने इंडिया इसलिए चुना क्योंकि वो सस्ता विकल्प था और हमारी ज़बान और सिनेमैटिक परंपरा एक हैं, तो साथ काम करना ज्यादा आसान होता है और मजा भी ज्यादा आता है।

 Q..इंडिया में ‘बैंड बाजा बारात’, ‘विकी डोनर’ और ‘मेरे डैड की मारूति’ जैसी फ़िल्में बनी हैं। उन जैसी ही गति, शोख़पन, चटख़पन, गली-मुहल्ले वाले डायलॉग और चुस्त किरदार ‘जिंदा भाग’ में भी हैं। आपको क्या लगता है, मौजूदा दौर के सिनेमा में ये विशेषताएं और गति तमाम मुल्कों में एक साथ क्यों नज़र आ रही हैं?
फरज़ादःचुस्त और सुस्त में थोड़ा ही फर्क है और वो है कंटेंट का। अंत में तो आपको कहानी सुनानी है और अगर कहानी कमजोर है तो जितनी मर्जी चाहें चुस्ती कर लें आपकी फ़िल्म सुस्त ही रहेगी।
मीनूःशायद इन सब मुल्क में यंगर जेनरेशन फ़िल्म बना रही है और वो सब ऐसी कहानियां कहना चाहते हैं जिनका रिश्ता उनके खुद की रोजमर्रा की जिंदगी से हो?

 Q..बचपन में कौन सी फ़िल्में आपने सबसे पहले देखी थीं और क्या तब जरा भी लगा कि ये सम्मोहन आपकी जिंदगी का अहम हिस्सा बनेगा? छुटपन में किन डायरेक्टर्स की फ़िल्में पसंद थीं, कौन सी फ़िल्में पसंद थीं?
फरज़ादःसबसे पहले तो सिनेमा की प्रेरणा मुझे म्यूजिक से मिली जो आज भी मिलती है। जहां तक फ़िल्ममेकर्स का ताल्लुक है, किसी एक का नाम लेना मुश्किल है। एक जमाने में जर्मन सिनेमा से मैं बहुत प्रेरित था, फिर ईरानी फ़िल्मों का दौर आया। क्यूबन सिनेमा बहुत कम देखा है लेकिन हमेशा कुछ नया होता है उसमें। आजकल फिर पुरानी पाकिस्तानी फ़िल्मों की तरफ वापसी है। तो ये सफर जारी रहता है। लेकिन इन सब प्रेरणाओं को लेकर हमें अपनी कहानियां अपने तरीके से कहनी हैं। अगर सब टैरेंटीनो, कोपोला या तारकोवस्की बनना चाहेंगे तो फिर क्या बनेगा। जिस तरह बॉलीवुड और हॉलीवुड की अलग-अलग जॉनर वाली फिल्मों से समान उम्मीदें होती हैं, उसी तरह यूरोपियन आर्ट सिनेमा का भी एक तय ढांचा या टेम्पलेट है। इस साल मैं बर्लिनैल गया तो हैरान था कि कितनी ज्यादा फ़िल्में अलग-अलग मुल्कों से होने के बावजूद भी एक हूबहू टेम्पलेट पे बनीं थीं। ये फंदे हैं जिनसे बचना एक फ़िल्ममेकर का संघर्ष है।
मीनूःहमारे घर में बहुत ज्यादा फ़िल्में देखी जाती थीं। बॉम्बे की फ़िल्में भीं और आर्ट फ़िल्म भी। शुरू से ही काफी थियेटर वगैरह से जुड़ाव रहा। हाई स्कूल के टाइम से ही काफी वर्ल्ड सिनेमा देखना शुरू कर दिया था लेकिन कॉलेज में ये और सीरियस पैशन बन गया। वहां फ़िल्म क्लब मैं हम हर नए डायरेक्टर को आज़माते थे। सैली पॉटर की ‘ऑरलैंडो’ (Orlando, 1992) जब देखी तब याद पड़ता है कि स्क्रीनिंग के बाद ये फीलिंग थी कि काश ये फ़िल्म बनाने में मेरा भी कोई छोटा-मोटा हाथ होता। सिनेमा डायरेक्टर्स तो बहुत सारे हैं जिनकी फ़िल्में इंस्पायर करती हैं। कई ऐसे भी हैं जिनकी फ़िल्में बहुत ज्यादा पसंद हैं और मैं जब फ़िल्म पढ़ती हूं तो उनको ही पढ़ना पसंद करती हूं जैसे कि आजकल हेनिके साहब (Michael Haneke) की फ़िल्में... लेकिन उसका ये मतलब नहीं कि मैं उन्हीं की तरह की फ़िल्में बनाना चाहती हूं।

Mazhar Zaidi, producer of the movie.
 Q..आप दोनों में जब रचनात्मक मतभेद (creative differences) होते हैं तो कैसे सुलझाते हैं? दूसरे शब्दों में पूछूं तो जब दो लोग एक क्रिएटिव चीज को बनाने में साथ होते हैं तो तालमेल बनाए रखने का फंडा क्या है?
फरज़ादःक्रिएटिव डिफरेंस की टर्म का उस वक्त इस्तेमाल होता है जब आपके अहंकार का मसला बन जाए कोई बात। असल क्रिएटिविटी में ईगो की कोई जगह नहीं होती। ये बहुत प्रैक्टिकल और रियल प्रोसेस है। जब आप इस प्रोसेस में होते हैं तो एक एनर्जी आपको ड्राइव कर रही होती है और आप एक ही विजन की तरफ जा रहे होते हैं। फिर उसमें चाहे जो भी डिसकशन हो उसका नतीजा पॉजिटिव ही होता है। मीनू के साथ भी काम कुछ इस बेसिस पर होता है इसलिए हम बहुत डीटेल में हर चीज को तोड़कर दोबारा जोड़ सकते हैं। और जैसे कि मैंने पहले कहा, हम एक-दूसरे के आइडियाज को एक कदम आगे ले जाते हैं, पूरा करते हैं।
मीनूःमज़हर (ज़ैदी) और फरज़ाद पहले से ही साथ काम करते थे। उन्होंने मटीला रिकॉर्ड्स साथ शुरू की और काफी आर्टिस्ट्स को रिकॉर्ड किया। हम सब साथ मिलके अपने आइडियाज डिसकस किया करते थे और फिर हमने कुछ फ़िल्में साथ शुरू कर दीं। फ़िल्म तो एक साथ काम करने वाली चीज ही होती है। डायरेक्टर उसका एक छोटा पुर्ज़ा है। ट्रफो (Francois Traffaut) की डे फॉर नाइट (Day for Night, 1973) या फैलिनी (Federico Fellini) की इंटरविस्ता (Intervista, 1987) देखें, मेरी ये बात सही तौर पर जाहिर हो जाएगी कि आप कितने ही बड़े ऑटर क्यों न हों, फ़िल्म मेकिंग का मूल तो सहभागिता ही होता है। ये एक तथ्य है कि कई हजार चीजें आपकी फ़िल्म में, सेट पर मौजूद दूसरे लोगों के छोटे-छोटे प्रयासों से, होती हैं। इसलिए फरज़ाद और मैं बहुत आसानी से साथ काम कर लेते हैं क्योंकि हम हमारे आइडियाज, स्क्रिप्ट या फ़िल्म को निजी संपत्ति की तरह नहीं लेते।

 Q..जिंदगी का लक्ष्य क्या है?
मीनूःअपनी फ़िल्म स्क्रीन तक पहुंचाना और उसके बाद अपनी दूसरी फ़िल्म बनाना!

“Zinda Bhaag (2013)” - Watch the trailer here:

Nusrat has Left the Building...But When?” - Watch Farjad Nabi's documentary here:

“Paradise On A River Of Hell” - Watch Meenu Gaur's documentary here:

Slated to release in August, 2013 ‘Zinda Bhaag’ is a Pakistani feature film directed by Meenu Gaur and Farjad Nabi. Meenu was born in India. She did her PhD in Film and Media Studies from the University of London in 2010. She received the Felix scholarship and Charles Wallace Scholarship for the same. She is also the director of award winning documentary film, 'Paradise on a River of Hell'. After her marriage with Mazhar Zaidi, producer of Zinda Bhaag, Meenu now lives in London and Karachi. Farjad Nabi has directed documentaries including ‘Nusrat has Left the Building... But When?’ and ‘No One Believes the Professor’, which won awards at Film South Asia. He has also documented the work of Lahore film industry’s last poster artist in The Final Touch. His Punjabi stage play ‘Annhi Chunni di Tikki’ (Bread of Chaff & Husk) and ‘Jeebho Jani di Kahani’ (The Story of Jeebho Jani) has been recently published.

For updates here is the Facebook page of the movie.

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